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अध्ययन-कक्ष - सतीशराज पुष्करणा
हिन्दी लघुकथा में समीक्षा की समस्याएँ एवं समाधान
डॉ0 सतीशराज पुष्करणा
 

हिन्दी साहित्यकोश के अनुसार–‘‘समीक्षा अर्थात् अच्छी तरह देखना, जांच करना–सम्यक् ईक्षा या ईक्षाणम्। किसी वस्तु, रचना या विषय के संबंध में सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना, प्रत्येक तत्त्व का विवेचन करना समीक्षा है।’’ मेरे विचार से किसी भी ‘पुस्तक’ या ‘रचना’ की समीक्षा करने से पूर्व उस ‘साहित्य रूप’ की शास्त्रीय गंभीर एवं गहराई तक होनी चाहिए तथा प्रत्येक समीक्षक का अपना साफ एवं स्पष्ट एक निकष भी होना चाहिए।
लघुकथा–समीक्षा की समस्या में सबसे बड़ी समस्या इसके लेखक ही है–वे इतने संकीर्ण है कि अपनी मान्यताओं के अतिरिक्त वे किसी अन्य की मान्यता को महत्त्व देना ही नहीं चाहते (जबकि उनका अन्त:करण सच्चाई को स्वीकारता है–ऐसा उनके लेखों से आभासित होता है)। उन्हें यह खतरा बराबर दिखाई देता है कि शायद लघुकथा के इतिहास में उनके कार्यों का मूल्यांकन नहीं होगाग ;जबकि बात ऐसी नहीं है–किए गए कार्यों का देर–सवेर मूल्यांकन होता ही है। सूरज को बादल कितनी देर तक ढककर छिपा सकता है? यकीनन बहुत देर तक नहीं। अत: इस भ्रम से ऊपर उठना चाहिए।
लघुकथा समीक्षा की दूसरी समस्या यह है कि–लगभग प्रत्येक लघुकथा –लेखक कहता है कि उसकी अपनी लघुकथाओं के अतिरिक्त अधिकतर कूड़ा लिखा जा रहा है। इसमें झाड़–झंखाड़ उग आए हैं, आदि–आदि ‘रिमार्क पास’ करके वे लघुकथा की अहित करने पर उतारू रहते हैं। तात्वर्य यह है कि अपनी कुंठा को आक्रोश का रूप देकर प्रस्तुत करते हैं। ऐसे लोग स्पष्ट क्यों नहीं बताते कि यह कूड़ा–करकट या झाड़–झंखाड़ कहाँ से आ रहा है?
लघुकथा की तीसरी समस्या है–लघुकथा के कुछ लेखक जाने–अनजाने इसे आवश्यकता से अधिक ‘कायदे–कानूनों की चौहद्दी’ में बाँधने का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रयास करते है या कर रहे हैं । या यों कहें कि इसे ‘गणित’ एवं ‘विज्ञान’ की तरह ही ‘सूत्र’ में बाँधकर चलना चाहते हैं। ऐसे ही लोगों के ‘अड़ियल’ रुख ने शायद बहुत सारे ‘फालतू’ विवादों को जन्म दिया है, जिससे लघुकथा –समीक्षा के विकास की बात तो एक किनारे रखिए ‘इसका’ ठीक से जन्म तक नहीं होने दिया।
तमाम सार्थक और निरर्थक विवादों के बावजूद लघुकथा निरंतर समृद्धि–पथ पर है। इसे किसी भी चौहद्दी में कसने या बाँधने का अर्थ इसकी प्रगति एवं विकास को अवरुद्ध करना है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इसमें ‘अनुशासन’ नहीं होना चाहिए। अन्य साहित्यरूपों की तरह ही इसमें एक अनुशासन की आवश्यकता एवं अनिवार्यता तो है।
लघुकथा –समीक्षा की चौथी समस्या है–कि अभी तक निशांतर, डॉ0 वेदप्रकाश जुनेजा एवं राधिका रमण अभिलाषी जी को छोड़कर लघुकथा –समीक्षा का कार्य लघुकथा–लेखक ही करते आए हैं, और कर रहे हैं। प्रारंभ में तो यह कोई बुरी बात नहीं थी; किंतु अब यह स्थिति ठीक नहीं है। कारण, प्रत्येक लघुकथा –लेखक ने लघुकथा को अपने–अपने ढंग से समझा या समझने की चेष्टा/कुचेष्टा की है, जो कि स्वाभाविक ही है। और यही कारण है उन्हें अपनी ‘बात’ को स्पष्ट करने हेतु मात्र ‘अपनी ही लघुकथाएँ’ दिखाई देती हैं या यों कहें कि यही उनकी विशेषता भी है।
कमलेश्वर ने ठीक ही कहा है–आलोचना अब एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में भी इस्तेमाल होती है और चूंकि राजनीति के पास अपनी ‘विचार–धारा’ होती है, अत: वह अन्य विचारों का तिरस्कार केवल लेखकों के नामों का सहयोग चाहती रहती है। यह भयंकर स्थिति है। राजनीति–मूलक आलोचकों को ‘विचार’ की जरूरत नहीं होती, उन्हें सिर्फ़ अपने समर्थकों की जरूरत होती है। ऐसी हालत में लेखक के अपने अनुभव की प्रामाणिकता (यथासंभव) तरीके से पेश कर देने वाले लेखक ही उनके लिए महान् लेखक बन जाते हैं।
यहीं पर उन लेखकों के लिए संकट उत्पन्न होता है, जो विचार–धारा–विशेष को अपनी आस्था का अंग मानते हैं, पर लेखक के रूप में अनुभव की प्रामाणिकता को ही तरजीह देते हैं; क्योंकि राजनीति मूलक समीक्षा लेखक का प्रामाणिक अनुभव नहीं चाहती, वह अपने अनुवाद को यथा–संभव प्रामाणिक आवरण पहनाने की माँग करती है।
अपनी विचारधारा मनवाने हेतु लेखक–लेखक पर पत्रिका का प्रकाशन आरंभ होता है। फिर जो मन में आता है, उसे लघुकथा के नाम पर प्रकाशित कर देता है। परिणाम यह होता है कि अनावश्यक विवाद की स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिससे व्यक्तिगत स्तर पर भी मनमुटाव हो जाता है। इससे भी सृजन–कार्य बाधित हो जाता है और ‘खेमे’ बनते हैं और बने हैं। यही कारण है, वर्तमान में लघुकथा के खाते में लघुकथा का उतना विपुल भंडार नहीं है ,जितना कि अब तक हो जाना था। यदि ऐसा होता तो समीक्षक स्वयं इस ओर आकर्षित होते। इसके अतिरिक्त इच्छुक समीक्षक लघुकथा –लेखकों के परस्पर विरोधी वक्तव्यों को सुन–सुनकर आतंकित हो उठते हैं ओर वे इस विवादास्पद कथा–प्रकार की ओर हाथ बढ़ाने से भी डरते हैं। यदि दुस्साहसी समीक्षक लघुकथा हेतु कुछ कार्य करना भी चाहते हैं तो या उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। यह कार्य अधिकतर वे सम्पादक करते हैं जो ‘ लघुकथा –बाहुल्य’ पत्र–पत्रिकाओं का सम्पादन करते हैं। लेखक न तो इनका विरोध करते हैं और न ही स्पष्ट रूप से मुखर होते हैं।
इसी प्रकार ‘लघुकथा ’ की कई अन्य छोटी–मोटी समस्याएँ हैं, हो सकती हैं। यहाँ मैं लेख की सीमा को और अधिक विस्तार न देते हुए इतना कहना चाहूँगा कि लघुकथा को समझने से पूर्व कथा को समझना नितांत आवश्यक है। कथा हर काल में अलग–अलग ढंग से देखी, समझी एवं पढ़ी गई है। अग्निपुराण (उत्तरभाग) के पृष्ठ 1643 में इसकी व्याख्या कुछ है, हिन्दी साहित्य कोश (भाग–1) में कुछ है और बटरोही ने इस पर अपने अलग ढंग से विचार किया है। मेरे विचार से कथा का ही परिष्कृत, परिमार्जित, विकासशील एवं आधुनिक रूप लघुकथा है। यह परम्परा रही है कि समय–समय पर ‘समय’ और ‘परिवेश’ के अनुकूल ही साहित्यरूप भी अपना रूप बदल–बदलकर वर्तमान से जुड़कर चलते हैं और तभी ये प्रासंगिक भी रहते हैं और विकास भी पाते हैं। जो साहित्यरूप अपने को वर्तमान से नहीं जोड़ पाते हैं वे लुप्त हो जाते हैं और मात्र इतिहास की वस्तु बनकर रह जाते है।
लघुकथा का दुर्भाग्य यह है कि अभी तक इसका अपना कोई शास्त्र नहीं बन पाया है। हालांकि धीरे–धीरे इस दिशा में प्रयास चल रहे हैं। अब जरूरत है लघुकथा–समीक्षा की दिशा में आगे कार्य करने हेतु विष्णु प्रभाकर, रमेश बतरा, भगीरथ, स्वर्णकिरण, जगदीश कश्यप, सतीशराज पुष्करणा, विक्रमसोनी, निशान्तर आदि के लेखों एवं वक्तव्यों को गंभीरता से देखने एवं समझने की। हालांकि अभी तक किसी ने भी लघुकथा के शास्त्रीय पक्ष एवं समीक्षा को लेकर एक भी ऐसा लेख नहीं लिखा है ,जिसे लघुकथा पर लिखा गया ‘मानक लेख’ या श्रेष्ठ लेख कहा जा सके। उपयु‍र्क्त लोग भी ‘एक लगभग’ की स्थिति को ही छू पाये हैं। हाँ,! लघुकथा के इतिहास पक्ष में कृष्ण कमलेश, जगदीश कश्यप, शकुंतला किरण, स्वर्ण किरण एवं सतीशराज पुष्करणा ने प्रामाणिक कार्य अवश्य ही किए हैं।
अन्त में एक बात और कि लघुकथा की स्वायत्तता पर भी बात होनी चाहिए और अन्य कथा–रूपों में इसकी ‘अलग पहचान’ होनी चाहिए। पार्थक्य बिन्दु को मतैक्य से तय किया जाना चाहिए। जैसे उपन्यास और कहानी आकार में छोटे–बड़े होने के कारण ही एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार कहानी और लघुकथा भी आकार में छोटे–बड़े होने के कारण ही एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। एक लघुकथा आकार में कहानी से बड़ी हो सकती है और एक कहानी लघुकथा से छोटी हो सकती है। इनमें ‘अंतर केवल कथानक का होता है।’ फिर भी यह तो मानना ही होगा कि ‘आकारगत लघुता’ लघुकथा की एक विशेषता है।
लघुकथा समीक्षकों को बिना किसी आग्रह एवं दुराग्रह के लघुकथा या उसकी पुस्तक को उसके रचना एवं प्रकाशन काल को मान–जानकर ही उसका समीक्षा–कर्म करना चाहिए। इससे भी पूर्व अन्य साहित्य रूपों और विशेष तौर पर कथासाहित्य एवं उसकी समीक्षा का भी अध्ययन–मनन करना होगा। लघुकथा को विकसित करने के लिए जहाँ यह अनिवार्य है कि उसकी परिभाषा को सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष से प्रस्तुत करना चाहिए अर्थात् लघुकथा में क्या हो और क्या न हो–स्पष्ट करना चाहिए, वहीं यह भी जरूरी है कि लघुकथा को विकसित करने के लिए समीक्षक इसे कहानी की विकास–यात्रा वाले मार्ग लेकर इसे इसके सही स्थान पर पहुँचाएँ जिसकी यह सही हकदार है। इस कार्य में लघुकथा –लेखकों को समीक्षकों से मिलकर (परस्परवाद से दूर रहकर) ‘ईमानदारी’ से एक–दूसरे के कार्य में बिना दखलंदाजी के सहयोग करना होगा।
इसके साथ–साथ मैं पुन: कहना चाहूँगा कि ‘‘अच्छी लघुकथाएँ ही लिखी जाएँ’’ और ‘‘अच्छी लघुकथाएँ ही छापी जाएँ ’’ भले ही पुरानी रचनाओं को ही बार–बार क्यों न छापना पड़े। अच्छी लघुकथाओं से हमें लघुकथा –जगत् को समृद्ध करना है, करना होगा और समीक्षक को बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वतंत्र रूप से काम करना होगा, तभी लघुकथा भी अन्य साहित्य–रूपों की तरह से प्रतिष्ठा पा सकेगी।
एक बात और, हमें पत्रकारों द्वारा पूर्वाग्रह एवं राजनीति के वशीभूत होकर लिखी गई समीक्षाओं से घबराना नहीं चाहिए। पत्रकार जब समीक्षा लिखता है तो समीक्षाकर्म नहीं करता, वह पत्रकारिताकर्म (वर्तमान में जैसी पत्र–पत्रकारिता चल रही है) हो सकता है। ऐसे असमीक्षकों को महत्त्व नहीं देना चाहिए। आपकी लघुकथा ओं में दम होना चाहिए फिर चाहे कोई भी, कुछ भी लिखता रहे, कोई अन्तर नहीं पड़ता। समय न्याय करता है और अच्छी रचनाओं से ही लेखक और स्वस्थ समीक्षाओं से ही समीक्षक, साहित्य एवं साहित्य रूप जीवित रहते हैं।

1.विस्तृत लेख कथादेश (संपादक डॉ. सतीशराज पुष्करणा) अयन प्रकाशन 1/20, महरौली, नई दिल्ली–110030,पृष्ठ संख्या–633 पर उपलब्ध है।

 
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