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अध्ययन-कक्ष - सतीशराज पुष्करणा

जीवन मूल्यों के हीरक द्वीप : विष्णु प्रभाकर की लघुकथाएँ
डॉ. सुभाष रस्तोगी

 

अध्ययन कक्ष
जीवन मूल्यों के हीरक द्वीप : विष्णु प्रभाकर की लघुकथाएँ
डॉ. सुभाष रस्तोगी
हिन्दी के सुप्रतिष्ठित कथाकार विष्णु प्रभाकर का मानना है कि लघुकथा पश्चिम से नहीं आई है और न ही यह बीसवीं शती के आठवें दशक की देन है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि आठवें दशक में इसे नये रूप में प्रस्तुत किया गया। वास्तव में उनका यह मानना है कि लघुकथा किसी–न–किसी रूप में अनादिकाल से चली आ रही है। प्राचीनकाल में ऋषियों ने कुछ दृटान्त लिखे थे। इन दृष्टान्तों से ही लघुकथा का विकास हुआ। जैसे ‘सदा सच बोलो’ एक वाक्य है। लेकिन सच बोलना है क्या–यह एक दृटान्त से माध्यम से अच्छी तरह समझाया जा सकता है। जैसे युधिष्ठिर का एक दृटान्त को आज की भाषा में लिखा जाए  तो अच्छी लघुकथाएँ बन सकती है। लघुकथा   का बीजरूप पंचतन्त्र, बोधकथाओं में मौजूद है। बीज विकसित होने पर रूप तो बदलता ही रहता है। बीज की परिणति बीज है, फल नहीं। बीज कभी नष्ट नहीं होता। इसमें भी नये फल आएँगे, नयी भाषा आएगी। यह कहना कि लघुकथा  सन् पचहत्तर में आई एक दम्भ है। हम यह कह सकते हैं कि इसका नया रूप आया है।
लघुकथा को एक स्वतन्त्र विधा मानने में विष्णु जी को कोई आप​त्ति नहीं है, लेकिन वे यह मानते हैं कि लघुकथा  भी कथा ही है। यह आपत्ति उठाए जाने पर कि कथा होने से ही उपन्यास और कहानी तो एक नहीं है, उनका मानना है कि कथा साहित्य में कहानी, उपन्यास, लघुकथा  कहानी नहीं है। युगों से कथा को क्षणों में भोगने को लघुकथा  कहते हैं।
विधा के स्तर पर लघुकथा  को कहानी से पृथक् मानते हुए विष्णु जी भाषा को ही वह आधार मानते हैं,जिस पर कोई रचना लघुकथा  हो सकती है। जैसे रेडियो नाटक और मंच नाटक की भाषा एक नहीं हो सकती वैसे ही कहानी और लघुकथा  की भाषा एक नहीं हो सकती। लघुकथा की भाषा तो ऐसी होनी चाहिए जो थोड़े में बहुत कह सके। इसी प्रकार लघुकथा  और कहानी के समापन में भी अन्तर है। कहानी की तुलना पूर्णता लिये होती है। वे मानते हैं कि लघुकथा  का प्लॉट ही अलग है।
विष्णु जी का मानना है कि ‘ लघुकथा  वह चीज है ,जिसे मैं कहानी में नहीं लिख सकता....वह कहानी का प्लॉट नहीं हो सकता और अपने आप में सम्पूर्ण है....यही नहीं कि किसी प्लॉट पर आप लघुकथा  लिखें तो उसी पर लम्बी कहानी भी लिख दें..... लघुकथा  लिखना कठिन काम है..... बहुत कठिन.... लघुकथा  हमको जीवन में मिलती है।’
विष्णु प्रभाकर जी का मानना है कि लघुकथा  के लिए कथ्य, भाषा और शैली तीनों चीजें अनिवार्य हैं। कथ्य के अनुरूप ही भाषा और शैली होनी चाहिए और लघुकथाकार थोड़े–से–थोड़े शब्दों में अधिक–से–अधिक बात कहने की कला में निष्णात होना चाहिए। जैसे छायावादी कवि जब नारी के यौवन का वर्णन करते थे तो नख से शिख तक हर चीज का वर्णन करते थे, लेकिन शरतचन्द्र ने नारी का वर्णन एक पंक्ति में किया–‘यौवन जैसे उसके शरीर में ठहर गया था।’ तो लघुकथा  के लिए इस भाषा की जरूरत है।
आज की लघुकथा  ने परम्परा से कलेवर ग्रहण किया है और नाटकीयता के तव का भाव कुछ हद तक लघुकथा  लेखन में इस्तेमाल हो सकता है।
विष्णु प्रभाकर ने 1939 में लघुकथा  लेखन का आरम्भ किया था। उनकी पहली लघुकथा  ‘सार्थकता’ शीर्षक से ‘हंस’ के जनवरी, 1939 के अंक में प्रकाशित हुई थी। इसमें एक फूल की व्यथा बड़े मार्मिक ढंग से रेखांकित हुई है। प्रभाकर जी के अब तक तीन लघुकथा  संग्रह ‘जीवन पराग’ (1963), ‘आपकी कृपा है’ (1982) तथा ‘कौन जीता कौन हारा’ (1989) में प्रकाशित हुए हैं। उनकी सम्पूर्ण लघुकथा ओं का एक संग्रह ‘सम्पूर्ण लघुकथाएँ’ शीर्षक से सन् 2009 में प्रकाशित हुआ है  जिसमें उनकी कुल 101 लघुकथाएँ संकलित हैं। लेकिन इस संग्रह में संकलित लघुकथाओं के नीचे रचना–वर्ष का उल्लेख किया गया है । बहरहाल, ‘सम्पूर्ण लघुकथाएँ’ के प्रकाशन से जिज्ञासु पाठक को विष्णु जी की समस्त लघुकथाएँ एक ही जिल्द में आवश्य सुलभ हो गई हैं।
विष्णु प्रभाकर ने अपने पहले लघुकथा  संग्रह ‘जीवन पराग’ की भूमिका में लिखा है कि यह बोध–कथाओं का संग्रह है। उनके दूसरे लघुकथा  संग्रह आपकी कृपा है में पहले लघुकथा संग्रह की भी कुछ रचनाएँ सम्मिलित हैं। इसी प्रकार दूसरे लघुकथा  संग्रह ‘आपकी कृपा है’ में 15 और लघुकथाएँ जोड़कर विष्णु जी का तीसरा लघुकथा  संग्रह ‘‘कौन जीता कौन हारा’ प्रकाशित हुआ है। इस प्रकार वास्तव में अपनी मान्यता के परिप्रेक्ष्य में अपने तीनों लघुकथा  संग्रहों में उन्होंने लघुकथाओं का संग्रह ‘सम्पूर्ण लघुकथाएँ’ भी उनकी इस मान्यता का अपवाद नहीं है। विष्णु प्रभाकर की लघुकथाएँ अपनी प्रस्तुति में जीवन–मूल्यों के हीरक–द्वीप के रूप में सामने आयी हैं। इनमें मनुष्य की भीतरी शक्ति और सद्गुणों पर प्रकाशवृत्त केन्द्रित करने की अपार क्षमता हैं लघुकथा  के चिंतक डॉ अशोक भाटिया की यह मान्यता इस लिहाज से काफी गौरतलब है, ‘विष्णु प्रभाकर ने मनुष्य के गुणों और शक्ति को अपनी लघुकथा ओं में समेटा है, उभारा है। समय के साथ–साथ जो विसंगतियों, विडम्बनाएँ अपने वीभत्स रूप लेकर सामने आती रहीं, प्रभाकर जी ने उनका चित्रण भी अपनी परवर्ती रचनाओं में किया है, किन्तु मानव–मूल्यों को वहाँ भी वे दृढ़ता से पकड़े रहे हैं।’
‘भला काम’, ‘इतनी सी बात’, ‘मुक्ति’, ‘अतिथि’,‘क्षमा’, ‘चोर की ममता’,‘अनोखा दण्ड’, ‘अहंकार का नाश’, ‘घृणा पर विजय’, ‘डॉक्टर और चोर’, ‘इन्सान’, ‘चोरी का अर्थ’, ‘गुण ग्राहक’, ‘सेवा भाव’, ‘पश्चाताप’, ‘सौ रुपये का नोट’, ‘वीर मामा’, ‘सबसे बड़ा शिल्पी’, ‘ऋण’, ‘सहानुभूति’, ‘शांति की राह’, ‘निर्भयता’, ‘आपकी कृपा है’, ‘प्रेम की भेंट’, ‘तर्क का बोझ’,  तथा ‘मूक शिक्षण’ ऐसी लघुकथाएँ हैं ;जो केवल विष्णु प्रभाकर ही लिख सकते हैं। प्रत्येक लघुकथा  में एक जीवन मूल्य है जो उसके अन्तरतम को दीप्त किये रहता है। यह बोध कथाएँ हैं जो हमें दुविधा से मुक्त करके सत्कर्म का मार्ग दिखाती हैं। जीवन की विसंगतियों के अम्बार से इन लघुकथा ओं में विष्णु जी ने संगति के मोती इस तरह से खोजे हैं कि हमें अचरज होता है। इन लघुकथाओं का अन्त हमें हतप्रभ नहीं करता, बल्कि हमारे मन के बंद कपाटों को खोलकर उन्हें झक रोशनी से जगमग कर देता है। ‘मुक्ति’ के कंकाल हुए नीग्रो को जब यह समझ में आता है कि मुक्ति इन्सान के जीवन की शर्त है तो उसकी आँखों में प्रसन्नता की तेज रोशनी चमकने लगती है और वह दृढ़ता से अपने रास्ते पर आगे बढ़ जाता है। इसी प्रकार ‘सेवा भाव’ में सेवा का असल और नया अर्थ तब उजागर होता है जब मुंशी जी प्लेग की गिल्टी निकल आए नौकर रामू को इसलिए छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं होते कि ‘जन्मभर रामू ने मेरी सेवा की है, मैं उसे छोड़कर कैसे जा सकता हूँ।’ ‘मूक शिक्षण’ लघुकथा  का ट्रीटमेंट हमें गहरे में प्रभावित करता है। जाड़ों में भी फुलेना प्रसाद का कोट इसलिए न पहनना ;क्योंकि मजदूर बस्ती में रहने वाले मजदूरों को न पहनने के लिए वस्त्र मयस्सर हैं और न उनके पेट में अन्न है, ऐसी रोंगटे खड़ी करने वाली सच्चाई है जिसमें अब भी राई–रत्ती बदलाव नहीं आया है। आदर्श की छाया में परवान चढ़ी यह लघुकथा  यह साबित करती है कि विष्णु जी को जीवन के किसी भी क्षेत्र के किसी अंक के सत्य की प्रस्तुति एक नये ढंग से करने में महारत हासिल है।
‘फर्क’, ‘ईश्वर का चेहरा’, ‘दोस्ती’, ‘पानी की जाति’, ‘अतिरिक्त लाभ और उदारता’, ‘और बहन राह देखती रही’, ‘खोना और पाना’, ‘पाप की कमाई’, ‘पीरीन प्यारे पिराणनाथ’ तथा ‘खद्दर की धोती’ विष्णु जी की कालजयी लघुकथाएँ तो हैं ही , हिन्दी लघुकथा  परिदृश्य की भी दिशा–को मोड़ने वाली  लघुकथाएँ हैं। ‘फर्क’ विष्णु जी की बहुचर्चित लघुकथा  है। भारत और पाकिस्तान की सीमाएँ निश्चित हैं। एक देश का निवासी दूसरे देश की सीमाओं में प्रवेश करेगा तो प्रश्नों के काँटों से बींध दिया जाएगा। परन्तु बकरियों का एक झुंड सीमा की परवाह किए बिना पाकिस्तान से हिन्दुस्तान चला जाता है। इन्सान के लिए देशगत सीमाओं का बन्धन बेमानी है। यह बात देखने में छोटी लगती है, परन्तु प्रभाव इसका बड़ा है। यही वह बिन्दु है , जहाँ आदमी स्वयं को जानवर से भी बद्तर जानवर पाता है। आदमी ही है जिसने मनुष्य–मनुष्य के बीच देश, जाति और नस्ल व रंग की दीवारें खड़ी की हैं, वरना जानवर तो यह फर्क करना नहीं जानते। मनुष्य पहले मनुष्य है, हिन्दू और मुसलमान बाद में है। ‘ईश्वर का चेहरा’ इसी मानवीय मूल्य के पुनर्स्थापना की लघुकथा  है। सबीना और प्रभा एक ही अस्पताल में दाखिल हैं और एक ही जानलेवा रोग से पीडि़त हैं ; लेकिन वह अपने दुख को भूलकर बार–बार प्रभा के पास आ बैठती है और उसके शीघ्र स्वस्थ होकर  जाने की कामना करती है। प्रभा सबीना की अपने प्रति चिंता और लगाव को देखकर सोचती है कि ‘ईश्वर का अगर कोई चेहरा होगा तो सबीना के जैसा ही होगा।’ ‘मोहब्बत’ लघुकथा  की भावनात्मक स्तर पर साम्प्रदायिक सद्भाव को ही उजागर करती है। ईद के दिन मुसलमान दोस्त को तो अपने हिन्दू दोस्त के घर से दूध ले जाने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन जब वह उसी दूध की बनी सिवैएँ  लेकर अपने हिन्दू दोस्त के घ र जाता है, तब उसकी माँ उनके घर की बनी सिवैएँ  लेने से इंकार कर देती है। संयोग से उस मुस्लिम दोस्त के हाथ से सिवैएँ  का कटोरा वहीं गिर जाता है और सिवैएँ  चारों ओर बिखर जाती हैं। बस यहीं पर लघुकथा  की चरमावस्था आती है जो बहुत ही मनन योग्य है, ‘मुझे लगता है सिवैयाँ  नहीं थीं, इन्सान की मुहब्बत थी जो मेरे दरवाजे पर पैरों से रौंदे जाने के लिए पड़ी थीं।’ यह एक निष्कर्ष वाक्य है जिसमें परिणाम का गम्भीर घाव करने वाली भंगिमा विष्णु प्रभाकर को अपांक्तेय लघुकथाकार के पद पर अधिष्ठित करती है। ‘खद्दर की धोती’ लघुकथा  विष्णु जी के बचपन की एक घटना पर आधारित लघुकथा  है। इसमें गांव की पैठ से खद्दर की मोटी धोती लेने की जिद्द करने वाला और पिता से गाल पर तमाचा खाने वाला बालक लेखक स्वयं है।
विष्णु जी यह मान्यता कि लघुकथा  जीवन में होती है, ‘खद्दर की धोती’ लघुकथा  उनकी इस मान्यता को चरितार्थ करती है। ‘दोस्ती’ लघुकथा  हमारी पतनशील व्यवस्था के इस विदू्प को रेखांकित करती है कि विधायक और डाकू में अब कोई अन्तर नहीं रह गया है। यात्रियों से भरी बस को डाकुओं ने घेर लिया था। यात्रियों के पास जो कुछ भी था –बटुए, जेवर,घड़ियाँ, सूटकेसज सभी कुछ डाकुओं ने लूट लिया। इन यात्रियों में एक विधायक भी था सपलीक। जाते हुए डाकुओं के सरदार ने विधायक को चीजें लौटा दीं –पर्स, मणिमाला, ब्रीफकेस, सूटकेस सभी। एक सहयात्री ने अपनी व्यथ भूलकर जब विधायक से पूछा कि डाकुओं ने आपकी सब चीजें क्यों लौटा दीं, तो विधायक ने कहा, ‘उनका लीडर मेरा सहपाठी रहा है।’
‘पानी की जाति’ लघुकथा  भी विष्णु की श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक है। यह लघुकथा  विभाजन के उन खौफनाक दिनों की याद दिलाती है जब पानी भी हिन्दू और मुसलमान हुआ करता था। लेकिन असल में हिन्दू और मुसलमान के भेद की दीवारें समाज की ही खड़ी की हुई हैं। समाज का शुभ इन दीवारों को तोड़ने में ही अन्तनिर्हित है और इन्हें तोड़ता है दुख। गाँधी टोपी और धोती पहने एक युवक, जिसे ज्वर था और प्यास के कारण जिसके प्राण कण्ठ में आ गए थे, भटकता हुआ एक मुसलमान की दुकान में जा पहुँचा और उससे पानी माँगा। मुस्लिम युवक के यह कहने पर कि तुम तो हिन्दू हो, तुम हमारे हाथ का पानी पी सकोगे। उसका यह उत्तर देना, हिन्दू के भाई, मेरी जान निकल रही है, तुम जात की बात करते हो। जो कुछ हो लाओ।’ उनके बीच हिन्दू–मुसलमान के कृत्रिम भेद को बेमानी कर देता है।
मुस्लिम युवक का जातिगत विद्वेष तत्क्षण हवा हो जाता है, वह न केवल उस हिन्दू व्यक्ति की उल्टी साफ करता है, बल्कि सहारा देकर उसे लिटाता भी है और उसे शिकंजी भी पिलाता है। ‘खोना और पाना’ तथा ‘पाप की कमाई’ जैसी लघुकथाएँ जहाँ हमारे वर्तमान से विलुप्त होते जा रहे मानवीय मूल्यों की खोज का नतीजा है, वहीं ‘पीरन–पीयारे पिराणनाथ’ एक मूढ़ और गूँगे बालक को अकथ प्रेम का रहस्य समझाने में सम्पूर्णता ग्रहण करती है ।
वास्तव में विष्णु प्रभाकर की लघुकथा एँ उनके जीवन के अनुभवों में से निकल कर आई हैं। यह लघुकथाएँ समग्रत: उन जीवन–मूल्यों को रेखांकित करती हैं जो विष्णु जी के स्वार्जित अनुभवों का नतीजा हैं। चाहे हमारे वर्तमान के विद्रूप की कोई घटना हो अथवा देश के विभाजन का संताप हो या फिर साम्प्रदायिक सद्भाव की बात हो, सभी में जीवन का रस व्याप्त है। विष्णु जी की बोधकथाओं तक में उपदेश आपको नहीं मिलेगा। उसके स्थान पर वह सब कुछ मिलेगा ,जो आपको झकझोर देगा। बाध्य करेगा इस बात के लिए कि आप आन्दोलित हो जाएँ। सोद्देश्यता की भूमि में ये लघुकथाएँ अपने अन्तस् में भरपूर कथा तत्त्व लिये हुए हैं। विष्णु जी की लघुकथाओं में एक जिज्ञासा रहती है और यह जिज्ञासा या प्रश्नाकुलता अन्तिम पंक्ति पर जाकर शामित होती है। वास्तव में विष्णु प्रभाकर उस पीढ़ी के लेखक थे जो जीवन–मूल्यों की दृष्टि से बहुत समृद्ध थी और उनकी लघुकथाएँ मानवीय मूल्यों की दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न और समृद्ध हैं।
विष्णु जी की लघुकथाओं में भाषा के पुरानेपन की झलक अवश्य मिलती है, लेकिन यह भाषा कृत्रिम किसी दृष्टि से नहीं है। लघुकथा  की भाषा के लिए संक्षिप्तता और संश्लिष्टता यह दो जो अपरिहार्य गुण हैं, वे विष्णु प्रभाकर की लघुकथा ओं में भरपूर मात्रा में हैं। विष्णु प्रभाकर लघुकथा  के क्षेत्र में हमेशा संकेतों के लेखक के रूप में स्मरण किए जाएँ गे और कम्पैक्ट संवादों के सुगढ़ रूप यहाँ देखे जा सके हैं। मनुष्य के कल्याण को समर्पित उनकी लघुकथा ओं में हमेशा शिवता साकार हुई है।
सन्दर्भ
1.विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ310
2. विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ 314
3.विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ 316
3 विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ316
4 विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ317
5 विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ317
6 विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ310
7 विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ315
8 विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ311
9 विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ140–141
10 (सं.)डॉ. अशोक भाटिया, नींव के नायक,पृष्ठ 22
11 विष्णु प्रभाकर, सम्पूर्ण लघुकथाएँ ,सेवा–भाव,पृष्ठ 38
12 (सं.) डा. अशोक भाटिया, पैंसठ हिन्दी लघुकथाएँ ,पृष्ठ 75
13 (सं.) डॉ. कमल किशोर गोयनका, विष्णु प्रभाकर प्रतिनिधि रचनाएँ ,पृष्ठ 164
14 (सं.) डॉ. अशोक भाटिया, पैंसठ हिन्दी लघुकथाएँ , पृष्ठ 76
15 (सं.) डॉ. अशोक भाटिया, पैंसठ हिन्दी लघुकथाएँ पृष्ठ 78
16 (सं.)महीप सिंह, विष्णु प्रभाकर व्यक्ति और साहित्य,पृष्ठ 207
17 (सं.) महीप सिंह, विष्णु प्रभाकर व्यक्ति और साहित्य, पृष्ठ 209
विष्णु प्रभाकर, मेरे साक्षात्कार,पृष्ठ310
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