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निशान्तर : क्या लघुकथा साहित्य की नव्यतम विधा है? मेरे प्रश्न का तात्पर्य है कि 16 अप्रैल, 1989 ई. को ही पटना में आपके संयोजन में आयोजित ‘लघुकथा –लेखक–आलोचक–सम्मेलन–89’ में लघुकथा को ‘विधा’ घोषित किया गया। इसके पहले इसे आप ‘उपविधा’ कहते रहे हैं।
पुष्करणा : लघुकथा को ‘विधा’ के रूप में नव्यतम कह सकते हैं, किन्तु लघुकथा नव्यतम नहीं है। उपविधा कहने से मेरा तात्पर्य यह था कि एक तो लघुकथा के पास न तो कोई ‘अपना शास्त्र’ था और न ही इसके पास सशक्त लघुकथाओं का ‘विपुल भण्डार’ था। और ऐसी लघुकथा एँ तो बहुत कम ही थीं जो ‘कालजयी हो पाएँ । लेकिन शनै:शनै लघुकथा के भण्डार में वृद्धि हुई और 16 अप्रैल, 1989 ई. को हुए ‘लघुकथा –लेखक–आलोचक–सम्मेलन–89’ में पटना कॉलेज के हिन्दी–विभागाध्यक्ष शास्त्रीयता’ शीर्षक से आधार आलेख प्रस्तत करके उस कमी को पूरा कर दिया। अत: अब इसे विधा कहने में किसी प्रकार के संकोच की बात नहीं थी।
निशान्तर : आपने कहा कि लघुकथा विधा के रूप में तो नव्यतम है परन्तु लघुकथा नव्यतम नहीं है। तो यहाँ मुझे थोड़ा ‘कंफ्ज्यूज़न’ लगता है कि जब लघुकथा पहले से ही लिखी जाती रही है तो फिर वह कम लिखी जाए या अधिक, रचना का एक प्रकार तो था हमारे सामने, जिसे अन्य साहित्यरूपों से अलग माना गया, तभी उसे ‘ लघुकथा ’ का नाम दिया गया। तो जिस साहित्यरूप को अलग से नाम दे दिया गया उसे स्वतंत्र विधा क्यों नहीं माना आपने?
पुष्करणा : चूंकि पुरानी लघुकथाएँ, जिन्हें हम आज लघुकथा की परम्परा से जोड़ते हैं, अलग–अलग नामों से जानी जाती हैं। अधिकतर कथाकार इसे न तो लघुकथा मानकर लिख रहे थे और न ही लघुकथा समझ रहे थे। उन्होंने कहानी मानकर लिखा हैं यह ठीक है कि लघुकथा का नामकरण पाँचवें दशक के आरम्भ में हो चुका था, किन्तु तब की उसकी परिभाषा एवं उसके स्वरूप को देखकर कहानी और लघुकथा को अलग से देखना तत्काल कठिन हो रहा था। यहाँ तक कि छठे दशक में लिख रहे रावी जी की लघुकथाओं को लेकर भी आज यह प्रश्न उठता है कि क्या वे लघुकथा एँ है? वर्तमान लघुकथा का स्वरूप बहुत स्पष्ट सातवें दशक में होना आरम्भ होता है और आठवें दशक में आते–आते वह चुटकुलों के इतना करीब पहुँच जाता है कि चुटकुले और लघुकथा में अंतर स्पष्ट करना कठिन हो जाता है। इसी काल में लघुकथा के नाम पर कूड़ा–करकट, झाड़–झंखाड़ या गंदला पानी, बाढ़ आदि जो भी कह लीजिए अधिक लिखा गया। लघुकथा के तथाकथित महंतों एवं विद्वानों के परम्पर ,विरोधी वक्तव्यों ने लघुकथा की बनती हुई स्थिति को और डावांडोल कर दिया। नवें दशक के आरम्भ से अब तक क्रमश: इसमें सुधार और विकास दोनों ही हुए। और यहीं आकर दरअसल इसका स्वरूप स्पष्ट हो पाया है। यों भी विधा का लेखन पहले होता है, नामकरण बाद में, शास्त्र और भी बाद में तैयार होता है। इन सारे सोपानों को पार करने के बाद ही कोई भी साहित्यरूप ‘विधा’ कहला पाता है।
निशान्तर : आपके इस वक्तव्य से दो प्रश्न एक साथ उठते हैं। पहला यह कि नवें दशक की (हाल की) उन लघुकथाओं को दरअसल लघुकथा नहीं मानते अथवा खारिज करते हैं। परन्तु आप तो एक अरसे से लघुकथा को उसकी एक लम्बी परम्परा से जोड़ते रहे हैं और भारतेन्दु को पहला लघुकथाकार मानते आ रहे हैं। यह कैसा परस्पर विरोधी वक्तव्य हैं?
पुष्करणा : आपके इस प्रश्न का उत्तर यों तो पूर्व प्रश्न के मेरे उत्तर में ही स्पष्टत: उपस्थित है। फिर भी मैं पहले ही कर चुका हूँ कि रचना पहले होतेी है और उनके विधि–विधान या शास्त्र ये सब काफी बाद में तय होते हैं। जब कोई विधा एक आंदोलन के रूप में लिखी जाती हैं तभी उसकी खोज परम्परा में की जाती है, इसी का परिणाम भारतेन्दु को पहला लघुकथाकार मानना है। और जिस काल में जो रचना लिखी जाती है वह उस काल और परिवेश के अनुसार ही लिखी जाती है और उसका मूल्यांकन भी उसक काल के अनुसार ही होना चाहिए। जैसे मनुष्य का स्वरूप जो आज है निश्चित रूप से हज़ारों साल पहले ऐसा नहीं था। तब हम जब आज की लघुकथा की बात करते हैं तो उसकी तुलना सौ वर्ष पहले लिखी गई लघुकथा की बात करते हैं तो उसकी तुलना सौ वर्ष पहले लिखी गई लघुकथा से नहीं हो सकती। इसलिए इसमें (मेरे वक्तव्य में) मेरे विचार से विरोध जैसी कोई स्थिति नहीं होनी चाहिए।
निशान्तर : आपके इससे पूर्व के वक्तव्य से जो दूसरा प्रश्न उठता है वह यह है कि लघुकथा के शास्त्र से आपका क्या तात्पर्य है? क्या विधा होने के लिए उसके शास्त्र का होना अनिवार्य है? जहाँ तक मेरा ख्याल है संस्कृत वाड्मय में कहानी, उपन्यास या अनय विधाओं के साथ–साथ आज नाटक और काव्य के लिए भी किसी शास्त्र की माँग नहीं की जाती। आधुनिक काल में साहित्य की सभी विधाएँ ‘शास़्त्र’ के बंधन से मुक्त हैं। जब कहानी (जो कि लघुकथा की संवगी है) जैसी विकसित विधा के लिए शास्त्र की अनिवार्यता नहीं महसूस की गई तो फिर कहानी से आठ–नौ दशक बाद की, बीसवीं सदी के आखिरी दशक में लघुकथा जैसी नव्यतम (?) एवं अत्याधुनिक विधा के साथ शास्त्र की अनिवार्यता क्या उचित है?
पुष्करणा : जहाँ तक लघुकथा के शास्त्र का सवाल है तो मेरा तात्पर्य यह है कि लघुकथा की लम्बी परम्परा को सामने रखते हुए और उस काल से निरंतर लिखी जाती रही लघुकथाओं को मेनज़र रखते हुए स्वरूप और शिल्प इत्यादि को लेकर उसके विषय में कुछ ऐसा लिखा जाए जो लगभग सर्वमान्य हो, वर्तमान में हम उसी को शास्त्र कह सकते हैं। यह सही है कि साहित्य को किसी चौही में बांधा नहीं जा सकता है किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि साहित्यरूप बनाये रखने के लिए कुछ बिंदुओं को निर्धारित करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य होता है। आप इस ‘अनुशासन’ को भी शास्त्र कह सकते हैं, जिसकी मांग मैं लघुकथा में किया करता था। ऐसा नहंीं है कि कहानी आदि के साथ कोई शास्त्र अथवा अनुशासन नहीं रहा। अगर ऐसा होता तो इनकी समुचित समीक्षा और आलोचना का कार्य इतने बड़े पैमाने पर कभी संभव नहीं होता। इसी अभाव के कारण ही तो लघुकथा में समीक्षा–आलोचना कार्य उतना नहीं हो पाया जितना कि होना चाहिए था।
निशान्तर : तो आपके अनुसार लघुकथा का वह शास्त्र–संक्षेप में क्या है जिसके आधार पर लघुकथा विधा का दर्जा पा सकी?
पुष्करणा : आपके इस प्रश्न के उत्तर में मैं इतना ही कहूँगा कि आप 16 अप्रैल, 1989, ई. को हुए लघुकथा –सम्मेलन में प्रो. निशांतकेतु द्वारा प्रस्तुत आलेख को देख लें।
निशांतर : तो क्या आप ऐसा समझते हैं कि निशांतकेतु द्वारा प्रस्तुत लघुकथा के उक्त शास्त्र को ही लघुकथा की समीक्षा या आलोचना का निष्कर्ष माना जाए? और लघुकथा के क्षेत्र में समीक्षा–कार्य का जो अभाव था वह दूर हो जाएगा? जबकि निशांतकेतुजी से काफी पहले से समीक्षा कार्य होता आ रहा है? विशेषकर डॉ. शंकर पुणताम्बेकर, डॉ. स्वर्ण किरण तथा निशान्तर (स्वयं मैं) भी सन् 85 से लघुकथा –आलोचना का कार्य करते आ रहे हैं। इसके बारे में आपका क्या कहना है?
पुष्करणा : कोई भी शास्त्र या अनुशासन एकाएक तैयार नहीं होता। निश्चित रूप से उस विधा विशेष में किए गए पूर्व के कार्यों को मेनज़र रखते हुए कोई शास्त्र या मानदण्ड या प्रतिमान बनते हैं। निशांतकेतु जी का आलेख भी इसका अपवाद नहीं है। दूसरी बात कि भविष्य में जो कुछ निर्धारित होगा वह फिर अपने पूर्व के लिए गए कार्यों के आधार पर ही होगा। चूंकि विधाएँ समय–समय पर अपने रंग और ढंग बदलती रहती हैं, तो भविष्य के लिए हम यह कैसे मान लें कि वर्तमान में जो तय किया गया है वह भविष्य में भी अडिग और अटल रहेगा। यों भी परिवर्तन गति का, जीवंतता का द्योतक है और ठहराव मृत्यु का। इसके अतिरिक्त मैं आपको इतना और बता दूं कि आपके द्वारा बताए गए तीन नाम ही लघुकथा –आलोचना का कार्य नहीं कर रहे थे। बल्कि प्रत्येक चर्चित लघुकथा –लेखक का इस दिशा में योगदान है। लघुकथा –लेखकों के अतिरिक्त स्वतंत्र आलोचना कार्य की शुरुआत आपसे होती है। इस विकास–क्रम में डॉ. वेद प्रकाश जुनेजा, राधिकारमण अभिलाषी एवं प्रो. रवीन्द्र नाथ ओझा भी आते हैं।
निशान्तर : आपने आरम्भ में बताया, ‘नौवें दशक के आरम्भ से अब तक क्रमश: इसमें सुधार और विकास दोनों ही हुए। और यहीं आकर दरअसल इसका ( लघुकथा ) स्वरूप स्पष्ट हो पाया है।’ तो लघुकथा एँ लघुकथा का आपके दृष्टिकोण से वह स्वरूप क्या है? तथा उसके आधार पर वास्तविक लघुकथा के प्रतिमान क्या है?
पुष्करणा : मेरे दृष्टिकोण से लघुकथा पहले ‘रचना’ है और तब लघुकथा है। और कोई भी रचना तब तक सार्थक नहीं होती जब तक कि उसमें ‘मानवोत्थान’ की बात न हो, और वह बात बहुत ही पुरअसर तथा प्रासंगिक और सहज सम्प्रेषणीय न हो। ऐसी रचनाएँ अनुभूति और संवेदना से जुड़कर ही लिखी जाती हैं–ऐसी ही रचनाएँ ‘कालजयी’ भी होती हैं। लिखने का ढंग और विचारधारा लेखक–लेखक पर निर्भर है। मेरे अनुसार लघुकथा का कथानक एक ही घटना और कम–से–कम अवधि का हो और उसमें पात्रों की संख्या भी अधिक न हो तो अच्छा है। आकारगत विशेषता तो इसकी है ही कि इसे ‘ लघु’ होना चाहिए। परन्तु, उस लघुता को हमलोग शब्दों की संख्या में नहीं बांध सकते। यह महज समझने की बात है। दूसरी बात–अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा में इसका शीर्षक भी बहुत महवपूर्ण होता है जो कि लघुकथा की गहराई के तल तक स्पर्श करता है। इसमें जो कुछ भी लिखा जाता है वह बहुत ही सहज, स्वभाविक और ‘कॉम्पैक्ट’ होता है। इसमें अनावश्यक फैलाव की कहीं कोई गुंजाइश नहीं होती। यह अपने उेश्य तक ‘डाइरेक्ट’ पहुँचना चाहती है तथा पाठक को चिंतन–मनन के लिए विवश करती है। इसकी मारक शक्ति ऐसी होती है कि कहीं भीतर तक तिलमिला देती है। यों तो श्रेष्ठ लघुकथा वही होती हैं जो अपना अनावश्यक लादा गया व्यंग्य, अनावश्यक और अस्वाभाविक रूप से प्राकृतिक या मानवेतर उपादनानों का उपयोग लघुकथा को बोझिल एवं सतही बना देते हैं। मेरे ख्याल से यही वे सब बातें हैं जिनसे या जिन प्रतिमानों पर हम लोग की परख और पड़ताल करते हैं।
निशान्तर : क्या उदाहरणार्थ कुछ ऐसी लघुकथाओं के शीर्षक बताएँगे?
पुष्करणा : हाँ! भवभूति मिश्र की ‘बची खुची सम्पत्ति’, सुगनचन्द मुक्तेश ‘कार्यक्षेत्र’, कैलाशचंद जायसवाल की ‘पुल बोलते हैं’, डॉ.सतीश दुबे की ‘योद्धा’, महावीर जैन की ‘श्रम’, बलराम की ‘बहू का सवाल’, मोहन राजेश की ‘मातृत्व’, प्रबोध गोविल की ‘माँ’, कमलेश भारतीय की ‘किसान’, धीरेन्द्र शर्मा की ‘शीतयुद्ध’, कृष्णशंकर भटनागर की ‘उाराधिकार’, डॉ. संतोष दीक्षित की ‘और वह गौतम न बन सका’, राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बंधु’ की ‘भीतर का सच’, कमल चोपड़ा की ‘खू–खाता’, रमेश बतरा की ‘बीच बाजार’, रामयतन प्रसाद यादव की ‘लॉटरी’, शिवनारायण की ‘जहर के खिलाफ’, चांद मुंगेरी की ‘छोटा आदमी’, अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’ की ‘दर्पण’, बलराम अग्रवाल की ‘गौभोजनम् कथा’, सुकेश साहनी की ‘वापसी’ आदि अन्य कई लघुकथा एँ हैं।
निशांतर : अब इसी प्रकार कृपया अपने दृष्टिकोण से कुछ श्रेष्ठ लघुकथाकारों के नाम भी बताएँ ।
पुष्करणा : मेरे द्वारा बताए जा रहे नामों पर मतभेद हो सकता है। फिर भी, मुझे जो पसंद हैं और जिसके नाम मुझे तत्काल याद आ रहे हैं उनमें से प्रमुख नाम हैं–सतीश दुबे, भगीरथ, कमलेश भारतीय, पृथ्वीराज अरोड़ा, शकुंतला किरण, विक्रम सोनी, कमल चोपड़ा, नीलम जैन, बलराम अग्रवाल, रमेश बतरा, बलराम, चित्रा मुद्गल, राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी बंधु, डॉ. संतोष दीक्षित, रामयतन प्रसाद यादव, चाँद मुंगेरी, शिवनारायण, राजकुमार निजात, तरुण जैन, सुकेश साहनी, अंजना अनिल, चन्द्रभूषण सिंह ‘चन्द्र’, अपर्णा चतुर्वेदी ‘प्रीता’, शहंशाह आलम, सिन्हा वीरेन्द्र, रामजी शर्मा रजिका, मुकेश शर्मा, सुभाष नीरव, सुरेन्द्र मंथन, डॉ. स्वर्ण किरण, सतीश राठी आदि–आदि। यह ध्यान रहे कि मैंने ये नाम जिस क्रम में याद आए हैं, वैसे ही बोल गया हूँ। यहाँ वरीयता क्रम का ध्यान नहीं रख पाया हूँ। |
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