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अध्ययन-कक्ष - भगीरथ परिहार
लघुकथा में स्त्री विमर्श : भगीरथ परिहार
 
स्त्री विमर्श का आरम्भ कई लोग देह मुक्ति से करते हैं कि कम से कम स्त्री को अपनी देह का अधिकार तो मिले, अपनी देह का मनचाहा उपयोग कर सके। भूमंडलीकरण, कॉरपोरेट जगत, बाजार, विज्ञापन, मीडिया और साम्राज्यावादी पूँजी के गठजोड़ ने अपने हित पोषण के लिए स्त्री को मुक्ति दी है; लेकिन उसे वस्तु से व्यक्ति नहीं बनने दिया है। उसे देह की आजादी का फलसफा पढ़ाकर वह एक बड़ा बाजार रच रहा है। ब्रिटनीस्पीयर्स ने अपने जननांगों का प्रदर्शन छायाकारों के समक्ष किया, तो किसी ने अपने कौमार्य की अन्तर्राष्ट्रीय बोली लगवा दी। धन की शक्ति के आगे वह निर्वसन होकर अपने चित्र खिंचवाती है। इस संदर्भ में विजय माल्या के कलेंडर देखे जा सकते हैं। विज्ञापनों की दुनियाँ स्त्री की एक बिंदास आजादी से है। भारतीय परिवार पितृसत्ता और सामंती मूल्यों से मुक्त नहीं हुआ है, न ही परिवार में कोई जनतंत्र हैं।
निंश्चित ही भारत में स्त्री दूसरे की सम्पत्ति है। उसके बारे में सारे निर्णय पुरुष ही लेते हैं। कहाँ आना–जाना है, किससे बात करना है किससे नहीं, क्या पहनना है, कैसे बैठना–उठना है, सुबह कितने बजे उठना है, सब्जी क्या बनानी है, फोन पर बात करनी है या नहीं, आगे पढ़ना है या नहीं कौन सा विषय लेकर पढ़ना है, नौकरी करनी है या नहीं, किससे विवाह करना है। उसे अपने बारे में निर्णय लेने का कोई हक ही नहीं है। ड्राइंगरूम में शोभा की वस्तु है, लेकिन घर के सारे ‘धतकरम’ उसे ही करना है, उसके प्रत्येक कार्य की जिम्मेदारी का मूल्यांकन उसी समय हो जाता है। इतनी देर कहाँ गई थी, क्या कर रही थी ? एक टोह लेती आँख बराबर स्त्री का पीछा करती है। तमाम तरह के बंधनों में बँधी स्त्री एक खुली जेल में रह रही है थोड़ा बहुत सम्मान तभी मिलता है जब वह पुत्रों को जन्म दे और उनके पालन–पोषण में जीवन खपा दे। आज की स्त्री अपनी अस्मिता की तलाश में है। अपने व्यक्तित्व को संवारने की कोशिश में है। पिता के घर में वह पराया धन है और पति के घर में, उसे कभी भी घर से निकलने को कहा जा सकता है। उसे घरेलू कार्य का आर्थिक मूल्यांकन एक नौकरानी की तनखाह से ज्यादा नहीं है। घर में बहू क्या आई ‘नौकरानी’ (सूर्यकांत नागर) की छुट्टी कर दी गई।
आदर्शवादी व भाववादी लोग स्त्री विमर्श में सबसे पहले स्त्री को देवी कहते हैं, या देवी सर्वभुतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता, जहाँ नारी की पूजा होती है ;वहाँ देवता रमते है, माँ वंदनीय है, माँ के कदमों में जन्नत है, लेकिन भारतीय परिवारों की वास्तविकता से वे रूबरू नहीं होते हैं, स्त्रियों पर कारित घरेलू हिंसा में वे स्वयं सलंग्न होते हैं। उसे सम्पत्ति का अधिकार नहीं है, कानून ने दिया है, लेकिन उसने अभी तक प्राप्त नहीं किया है। दहेज के लिए बहुओं को जलाने का सिलसिला कानून बनने के बाद भी रुका नहीं है, कन्याओं को कोख में ही समाप्त करने का षड्यंत्र हमारे ही परिवार चलाते हैं। नारी की अपनी कोई अस्मिता नहीं है, वह संबंधों में व्यक्त होती हैं। चैतन्य त्रिवेदी अपनी कथा ‘संबंध जिए जाते है’ में कहते है ‘स्त्री खालिस स्त्री रह कर नहीं जी सकती, खालिस स्त्री को पुरुष से नहीं बचाया जा सकता है, परम्परा के अनुसार विवाह कर माँ बनो वरना बलात् भी उसे माँ बनाया जा सकता है। स्त्री के लिए खतरे तभी तक है, जब तक स्त्री, स्त्री है, संबंधों में बँधकर वह सुरक्षा महसूस कर सकती है।
भारत के संदर्भ में स्त्री विमर्श में बड़ी–बड़ी बहसें और बड़ी–बड़ी बातें करने की बजाए, छोटी–छोटी बातों पर ध्यान देने की जरूरत है। जो करोड़ों स्त्रियों के जीवन में कुछ फर्क ला सकें। ‘‘दूध’’ कथा में चित्रा मुद्गल यह दर्शाती है कि र में दूध पुरुषों के लिए है, अवसर पाकर बेटी दूध पीने लगती है तो माँ उसे बुरा भला कहती है। ‘दूध पीकर तुझे कौन सा लठैत बनना है, यानी शारीरिक रूप से उसे कमजोर बनाए रखना ताकि पुरुष की संरक्षा में रहे। बेटी ने माँ से सवाल पूछा ‘‘मैं जन्मी तो दूध उतरा था तुम्हारी छातियों में। तो मेरे हिस्से का दूध घर के मर्दों को पिला दिया’’ माँ फक्क- सी देखती रही, लड़की क्या बोलती है! लेकिन अब लड़की को बोलना होगा अपने मुट्ठी भर आसमान के लिए, जब बेटी को ही नहीं मिलता दूध तो बहुओं को क्या मिलेगा!
बेटे के जन्म पर थालियाँ बजाकर सूचना दी जाती है, प्रफुल्लित उछलती–कूदती दादियाँ घर-घर मिठाइयाँ बाँटती हैं और बेटी के जन्म पर, केवल मुँह लटकाने का काम किया जाता है। बेटों के लिए मंदिरों और मजारों पर मन्नते माँगी जाती है, अभी तो धनी लोग इग्लैंड जाकर आई.पी.एफ. तकनीक से बेटा लेकर आते हैं क्योंकि वहाँ इस तरह की कानूनी मनाही नहीं है।
वंश आगे बढ़ाने की चिंता इतनी ज्यादा है कि भारतीय परिवार इसके लिए कुछ भी कर सकते है, ‘‘दूधो नहाओ पूतो फलो’’ का आशीर्वाद भारत में ही दिया जाता है। सुकेश साहनी की कथा ‘तृष्णा’ की सास का कथन –‘अब देखो बहू ने तीसरी लौंडिया जनी है, दो क्या कम थी बाप की छाती पर मूंग दलने के लिए। अशोक भाटिया की कथा में पत्नी, पति के ‘भीतर का सच’ भाँप कर प्रति प्रश्न करती है अच्छा एक बात बताओ अगर हमारा पहला बच्चा लड़का होता तो भी क्या दूसरे के बारे में सोचते, लेकिन पति बराबर जोर दे रहा था। अगर लड़की हो गई तो? का प्रश्न मुँह बाये खड़ा है। ‘देसराज ने उसी चक्कर में पाँच लड़कियाँ पैदा कर अब पछता रहे हैं’, लेकिन पितृसत्तात्मक परिवारों की मर्दवादी सोच से न स्त्री मुक्त हो पा रही है, न पुरुष ।
जब से भ्रूण परीक्षण की पद्धति विकसित हुई है तबसे ही लड़की को कोख में नष्ट करने का षडयंत्र चल रहा है।, नतीज़ा है सेक्स अनुपात काफी घट गया है विशेष तौर पर पंजाब, हरियाणा, बिहार, यू.पी, राजस्थान और मध्य प्रदेश में। नारी एक ‘निरीह इंसान’ (डॉ.मुक्ता) है। ‘तुम गर्भपात करवा लो अन्यथा हम तुम्हें घर से निकाल देंगे’, सास ने बहू से कहा और आज्ञाकारी पुत्र माँ के पक्ष में खड़ा रहा। इस लेख के लेखक की कथा ‘क्या मैं ने ठीक किया’ में असीम दबाव व दमन से उत्पीडि़त औरत तीसरे कन्याभ्रूण को लेकर पिता के घर आ जाती है। स्त्रियाँ साहस जुटा रही हैं, ‘फैसला’ (सीमा शकुनि) के पति का अभिमत है ‘अगर कन्या भ्रूण की सूचना हो तो तुम अच्छी तरह जानती हो कि तुम्हें क्या करना है, वही जो दो बार पहले कर चुकी हो, हमारे समाज में प्रथम लड़की होना अशुभ माना जाता है’ और ऐसी जननी से रिश्ते तोड़ कर उसे पीहर भेज दिया जाता है’। पति को पत्नी के स्वास्थ्य की चिंता नहीं, दो बार गर्भपात होने पर भी तीसरे बार गर्भपात करने को कह रहा है, कैसी निर्मम है मर्दवादी सोच। लेकिन स्त्री साहस जुटाकर फैसला करती है कि इस बार मैं ऐसा नहीं करूँगी, मैं अपनी बेटी को जन्म दूँगी। अनिता वर्मा की ‘निश्चय’ में भी स्त्री कन्या को जन्म देने का ‘निश्चय’ करती है।
नरेन्द्र कौर छाबड़ा की कथा ‘युक्ति’ में अजन्मी पुत्री का पत्र है। वह लिखती है ‘ माँ मैं मरना नहीं चाहती, मैं भी इस दुनिया में आना चाहती हूँ वह माँ को उससे निजात पाने की युक्ति बतलाती है ‘मुझे जन्म देकर किसी अनाथालय में दे देना, नि:संतान दम्पती मुझे अपनी बेटी बना लेंगे मुझे माँ–बाप मिल जाएँगे और तुम्हें मुझसे मुक्ति’। अमानवीयता की हद तक हमारा जेण्डर प्रेफरेन्स है। अंजु दुआ जैमिनी की कथा ‘पहली’ में माँ स्त्री की दयनीय स्थिति देखकर दूसरी लड़की को जन्म नहीं देना चाहती। प्रतिवर्ष हजारों स्त्रियां दहेज हत्या की शिकार हो जाती हैं या स्वयं मृत्यु का आलिगंन कर लेती है। हसन जमाल बताते हैं कि एक ‘जौहर’ तो पद्मिनी के समय हुआ था अब नये किस्म के जौहर का चलन चल पड़ा है, नित्य नयी दुल्हनें जलने लगी हैं। अगवा की गई स्त्री के बरामद होने पर माँ–बाप उसे स्वीकार नहीं करते। ‘चंगुल (कमल चोपड़ा) स्त्री का कसूर न होते हुए भी उसे दूसरों के अपराध का दंश भोगना पड़ता है।
भारतीय परिवारों में बुराई का ठीकरा हमेशा औरत पर फोड़ा जाता है। बेटी की दूसरी शादी कराने के इच्छुक माता–पिता के सामने ‘बहू का सवाल’ (बलराम) कि संतानोत्पत्ति में उनका बेटा अक्षम है, यह जानकर क्या वे उसकी दूसरी शादी करवा देंगे? दोहरे मापदण्ड ‘स्त्री पुरुष के लिए और यही से जेण्डर असमानता के प्रश्न मुख्य हो जाते हैं।
यौन शोषण की गाथाएँ लघुकथा ओं में अलग–अलग ढंग से व्यक्त हुई है। ‘औरत का दर्द’ (श्यामसुन्दर अग्रवाल) की माँ बेटी को न घर पर छोड़ सकती है न काम पर ला सकती है, घर पर पिता की कुदृष्टि है तो काम पर ठेकेदार की। ‘पाप के साँप’ (सतीश दुबे) की नौकरानी कुदृष्टि रखने वाले गृहस्वामी को लताड़ कर चली जाती है। पवन शर्मा की कथा में ‘लड़की’ सैक्सुअल हरासमेन्ट करने वाले को सबक सिखाने की ठान लेती है। पुलिस वाले पति व बेटे की जमानत के बदले बहू की अस्मत चाते हैं (आजादी–मोहन राजेश) ‘गुरु दक्षिणा’ (नीतू) में गुरु शिष्या से रति कर्म करना चाहते हैं। रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की कथा ‘स्क्रीन टेस्ट’ की युवती फिल्मी दुनिया के चकाचौंध के प्रति आकर्षित होकर घर से भागती है और अन्तत: देह शोषण का शिकार हो जाती है। स्त्रियाँ हमेशा पुरुषों के ‘भय’ (कमला चमोला) से आशंकित होती हैं।
बलराम अग्रवाल की कथा ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’ में छेड़–छाड़ का विरोध करने वाले को ही मार दिया जाता है; क्योंकि समाज कोई सार्थक हस्तक्षेप नहीं कर पाता। मर्द वह जो अवसर पाकर स्त्री की देह को बलात हथिया ले, जो ऐसा नहीं कर सके उसे वे ‘नंपुसक’ (पृथ्वीराज अरोड़ा) सम्बोधित करते हैं। इसी मर्दवादी सोच के कारण काकी नौकरी पर जाती विधवा को ‘कवच’ (कनु भारतीय) यानी सुहाग के चिह्न धारण करने को कहती है। यौन शोषण के साथ–साथ स्त्री का आर्थिक शोषण भी है उसे मजदूरी कम मिलती है। पति व उसके घर वाले स्त्री की कमाई हथियाने के कई हथकन्डे अपनाते हैं। इस सन्दर्भ में रूपसिंह चन्देल की कथा ‘बैंक बैलेन्स’ देखी जा सकती है। पत्नी अपनी कमाई से अपने भाई बहनों को नहीं पढ़ा सकती, माता–पिता का इलाज नहीं करवा सकती, यानीउसके पैसों पर भी नियंत्रण नहीं है।
कसौटी (सुकेश साहनी) में कार्पोरेट नियोजक ऐसी महिला कर्मचारी चाहते हैं ;जो कम से कम चालीस प्रतिशत नॉटी हो। नॉटी होने के मायने बॉस के साथ ट्यूर पर जाना, बॉस के दोस्तों को ड्रिंक सर्व करना, रूम शेयर करना आदि। कॉर्पोरेट जगत धन का लालच फैंक कर शर्म हया के पर्दे उठा रहे हैं, कॉर्पोरेट जगत में काम करने वाले सुधांशु और मंदिरा दस वर्षों से लिव–इन–रिलेशनशिप में हैं, दोनों आत्मनिर्भर हैं, अपनी मर्जी से जीते हैं, लेकिन मंदिरा अब माँ बनना चाहती है ;इसलिए वह सुधांशु से शादी करने को कहती है लेकिन सुधांशु शादी के लिए तैयार नहीं होता। उसे लगता है कि वह छली गई है (वजूद–सतीशराज पुष्करणा)।
स्त्री को हमेशा से दंगों में हिंसा झेलनी पड़ी है, ‘शाह आलम कैम्प की रुहें’ (असगर वजाहत) गुजरात के दंगों में मारी गई औरतों की व्यथा–कथा कहती है। रात के वक्त शाह आलम कैम्प में रुहें आती हैं। अपने बच्चों के सिर पर हाथ फिरा कर कहती हैं, ‘कैसे हो सिराज’, ‘तुम कैसी हो अम्मा’, ‘सिराज अब मैं रुह हूँ अब मुझे कोई नहीं जला सकता’। रुहें कैम्प में अपने बच्चों को ढूँढ़ रही है उन्हें अपने बच्चे नहीं मिले तो रूहें दंगाइयों के पास गईं। वे कल के लिए पेट्रोल बम बना रहे थे ‘अरे ये उस बच्चे की माँ तो नहीं है ;जिसे हम त्रिशूल पर टाँग आए हैं ।कैम्प में एक बच्चा बहुत खुश रहता है मैं बहादुरी का सबूत हूँ उनकी जिन्होंने मेरी माँ का पेट फाड़ कर मुझे निकाला था और मेरे दो टुकड़े कर दिए थे।
इन लघुकथा ओं से गुजरते हुए यह महसूस हुआ कि यौन शोषण व जैण्डर असमानता के विषय बहुतायत से मिलते हैं, लेकिन अन्य पक्षों पर कलम कम चलाई गई है। समाज में हो रहे परिवर्तनों को उकेरने की चेष्टा भी कम हुई हैं, बाजार और भू–मण्डलीकरण किस तरह स्त्री का चेहरा विकृत कर रहा है उसके विशद विश्लेषण की आवश्यकता है। लेखिकाओं को इस सन्दर्भ में निर्भीक अभिव्यक्ति करने की आवश्यकता है जो उनके लिए मुक्ति का मार्ग प्रस्तुत कर सके।
 
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