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अध्ययन-कक्ष - डॉ. अनीता राकेश
लघुकथा समाजशास्त्रीय पक्ष
डॉ. अनीता राकेश
 


प्रस्तुत आलेख मुख्यत: ‘सादर इण्डिया’ द्वारा प्रस्तुत दो अंकों के लघुकथा–विशेषांक पर आधारित है। विश्व के विविध भागों की लगभग 200–250 लघुकथाओं के आधार पर एक निष्कर्ष निकालने का प्रयास है।
भूमण्डीकरण, वैश्वीकरण, सूचना–संजाल की बढ़ती कोलाहलपूर्ण हलचल ने ऊपरी तौर पर विकास को गति तो अवश्य दी–सांसारिक उपलब्धियों का ऐशो- आराम के साधनों का अम्बार तो अवश्य लगाया ; किंतु मनुष्य के भीतर लगातार कुछ–न–कुछ टूटता रहा। इस विकास की गति के साथ कदम से कदम मिलाने की बहुत बड़ी कीमत मनुष्य ने चुकाई है।
भारत संस्कृतियों एवं संस्कारों का देश है। ‘मातृ–देवो भव,पितृ देवो भव अतिथि देवो भव’ की संस्कृति की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि विदेशों में बसें भारतीयों की आत्मा स्वदेश की ओर ही खिंचती दिखती है....वैसे ही जैसे ‘‘उडि़ जहाज को पंछी फिरि जहाज पर आवै।’’
प्रहलाद श्रीमाली की ‘मुस्कराहट’ संस्कारों को संरक्षित करने की जद्दोजहद की कथा है। एक पिता कभी अपने पिता द्वारा दिए गए उपदेशों को बड़े बेमन से ग्रहण करता है। आज उसी अनमने भाव से पाए गए आधे–अधूरे व्यावहारिक ज्ञान को वह अपने पुत्र में उतारना चाहता है। तब शायद युवा अवस्था की अज्ञानता ने उसे उसका महत्त्व नहीं समझने दिया ; किन्तु एक पिता बनकर उन्हीं संस्कारों को अपने पुत्र को देना चाहता है, क्योंकि वह जान गया है कि आधा–अधूरा ही सही आगामी पीढ़ी की यही वास्तविक पूँजी है। यह सत्य है कि संस्कारों को सजाने सँवारने एवं संरक्षित करने की जिम्मेदारी भी स्त्रियाँ ही ज्यादा निभाती हैं। किशोर श्रीवास्तव की कथा ‘अंतर्भाव’ की बेटी पड़ोसी की बेटियों के प्रेमविवाह के कारण समाज में होती छींटाकशी से आहत माँ से जब वायदा करती है–‘‘माँ ! मैं मर जाऊँगी पर ऐसा वैसा कुछ भी नहीं करूँगी ,जिससे आप सबके सम्मान को बट्टा लगे।’’ तब वही भारत की बेटी दिखती है जो माता पिता एवं आत्म सम्मान को पहले दर्जे पर रखती है। घंमडी लाल अग्रवाल की लघुकथा ‘कद’ में पिता की मृत्यु के उपरांत बेटे संम्पत्ति के बँटवारे में मगन है परन्तु बेटियाँ तो बस विरासत में वह संस्कार सँजो कर रखना चाहती है जिससे रिश्ते मजबूत रहें और उनमें खटास न पड़े। रक्षाबंधन जैसे पवित्र त्योहार भी बाजारवाद के दौर में उपहारों के लेन–देन का प्रतीक बन गए हैं। रिश्ते, प्रेम, स्नेह, अर्थ की वेदी पर स्वाहा हो रहे है। किन्तु उसे जिंदा रखने की एक कोशिश इन्दु सिन्हा की लघुकथा ‘रक्षाबंधन’ कर रही है। वस्तुत: प्रेम–स्नेह की तरलता का महत्त्व सभी समझते हैं, सभी उसे पाने की इच्छा मात्र रखते है देने की नहीं। ऐसा दृश्य यह बाजारवाद सर्वत्र उपस्थित कर रहा है।
बुजुर्गों के प्रति अन्याय, उपेक्षा हमारी भारतीयता ने कभी नहीं स्वीकारा। रामकुमार घोटड़ की ‘छत्रछाया’ लघुकथा माता–पिता की भावनाओं को एक सुंदर स्पर्श देती हैं। पिता की मृत्यु के पश्चात् पुत्र द्वारा घर के पिछवाड़े की सफाई के दौरान कई पेड़ों को कटवा दिया जाता है। माँ एक पेड़ को छोड़ देने का अनुरोध करती है । यह ज्ञात होने पर उसकी छाया में पिता का एहसास कर माँ को सुख, सुकून एवं उनके साथ की अनुभूति होती है तो बेटे ने उसी पेड़ के पास एक और पेड़ रोपित कर दिया। एक तरफ यह पर्यावरण के प्रति सुखद संदेश है तो दूसरी तरफ आधुनिक पीढ़ी में बुजुर्गों के प्रति सम्मान भाव का द्योतक। इतनी आपाधापी ,भ्रष्टाचार के बोलबाला के बावजूद विश्वास–अविश्वास के चक्र में घूमता समाज अपने भीतर ईमानदार एवं सेवी व्यक्तियों की पहचान मात्र ही नहीं करता वरन् उसे सम्मानित भी करता है। डॉ. आशा–पुष्प की लघुकथा ‘नायक’ में कुली की भूमिका सचमुच नायक की है।ट्रेन पकड़ने की जल्दी में वृहद दम्पती की सहायता जिस प्रकार कुली ने की उसने दम्पती की नज़रों में ही नहीं सम्पूर्ण समाज की नज़रों में उसे नायक बनाया। यह लघुकथा हमारे परिवेश के सम़क्ष उज्ज्वल–पक्ष रखकर यह संदेश प्रेषित करती है कि न तो इंसानियत मरी है न ईमानदारी। डॉ. प्रफुल्ल भल्ला की कहानी ‘ईनाम का हकदार’ में मस्ती कर कांइयेपन से पाई सफलता को समाज अस्वीकार करता है तथा ईमानदार परिश्रमी किन्तु अपेक्षाकृत असफल शिक्षक को ही सम्मान का पात्र बनाता है। इसी प्रकार नरेश कुमार गौड़ की ‘देशभक्त’ तथा ‘लाश की फोटो’ कथाएँ पुन: उसी जीवंतता का प्रतीक हैं जहाँ एक टैक्सी–ड्राइवर दलवीर एक फौजी को रात के अंधेरे में बिना पैसे लिए घर पहुँचाता है। एक फौजी का सम्मान कर गौरव से ओतप्रोत मानो स्वयं एक बड़ी जंग जीत का आया है। ‘लाश की फोटो’ के माध्यम से भी गौड़ जी ने उसी संवेदना पर उंगली रखी है जो आज मरण प्राय है। पुलिस विभाग का फोटोग्राफर एक लाश की फोटो खींचने के बाद पैसे लेने से इंकार करता है। इस घटना से वहाँ उपस्थित पुलिसवाला भी शर्मिदा होता है तथा लाश की जेब से निकाले गए बटुए एवं सामान को पुन: वहीं डाल देता है। हिमाचल प्रदेश के त्रिलोक मेहरा की कथा ‘बर्फ़ी का टुकड़ा’ अपनी प्रतीकात्मक शैली में इसी भावना को व्यक्त करती है। यदि संवदेनाएँ ऐसे वाक्यो एवं कथाओं को जिंदा रखती हैं तो निश्चय ही ऐसी लघुकथाएँ अनमोल हैं।
स्वाभिमान, आत्मसम्मान ही हमारी धरोहर है जिसने हमें आज भी विश्व में सम्मानजनक स्थिति प्रदान की है। यथपि आज ढोंगी, दिखावटी दुनिया में ये नकली आभूषणों की भांति तामझाम के साथ बाह्य प्रदर्शन की वस्तु मात्र से बनने को तैयार हैं तथापि आज भी न तो इसका महत्त्व कम हुआ है न उपयोगिता। यत्र–तत्र सम्मान की आभा से मुक्त व्यक्ति मौजूद हैं यह न तो वर्ग–विशेष की जागीर है न जाति–विशेष की। लघुकथाएँ इस आत्मसम्मान की गणना को भी प्रदीप्त रखने का प्रयास करती दिखाई देती हैं। गरीबी के बावजूद सहायता को ठुकरा कर रामकुमार आत्रेय की कथा ‘आदत’ की मजदूरनी ताकत की अंतिम सीमा तक अपना कार्य स्वयं सम्पादित करना चाहती है। रत्नकुमार सांभरिया की ‘वज़ूद’ लघुकथा गरीबी के बावजूद अपने अस्तित्व की रक्षा का प्रयास जितनी कुशलता के साथ प्रदर्शित करती है वह समाज में जाग्रति के साथ–साथ उच्च वर्गीय हीन मानसिकता का संकेतक भी है। यह कथा लघु होकर भी संघर्ष का बड़ा शंखनाद है। माला की चमत्कारिता ने मालिक द्वारा दी गई अठन्नी को ठीकरे में तब्दील कर एक प्रतीक की योजना की है। यहाँ स्वाभिमान एवं अस्तित्व की रक्षार्थ धन धन नहीं ठीकरा है तथा ठीकरा ईमान की तरह का बाधक। बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘रद्दीवाला’ का रद्दीवाला प्रेरणा का असीम पुंज है। जीवन से थके–हारे व्यक्ति द्वारा डिग्रियों को रद्दी में बेच दिया जाता है। किंतु रद्दीवाला उसे भूल समझकर लौटाने आता है। कथा का यह एक पक्ष है जो ईमानदारी एवं समझदारी का द्योतक किंतु इसका दूसरा पक्ष चमत्कृत कर जाता है ;जब वह उसे अंधेरे तंग कमरे से निकल किसी भी काम में यहाँ तक कि रद्दी बेचने जैसे काम में लगे जाने की सलाह देता है। कथा की पराकाष्ठा वहाँ हैं जब वह यह कहकर निकल जाता है ‘‘आपकी फाइल से मेरी फाइल भारी है’’ जीवन की जद्दोजहद, आशा–निराशा की शुष्कता के बीच ऐसी लघुकथाएँ स्रोतस्विनी सी हैं। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘खुशबू’ कथा ऐसी ही प्रेरणा से लबरेज़ है। जीवन का एक पहलू यह भी है जहाँ परिवार की जिम्मेदारियाँ निभाते–निभाते उम्र कब धीरे से सिसक जाती है तथा निराशा और अकेलापन का ढंग जीवन को भार बना देता है। किंतु, वहाँ भी स्कूल की बच्ची द्वारा दिए गए गुलाब की खुशबू में जीवन मुस्कुराता हुआ खड़ा मिलता है। पुन: जीवन एवं प्रसन्नता की नयी परिभाषा गढ़कर स्त्री–जीवन–पथ पर अग्रसर हो जाती है। स्त्री पक्ष समाज के पुरुष पक्ष द्वारा हमेशा ही दमित तथा प्रताड़ित होता रहता है– यद्यपि हमारा इतिहास स्त्रियों की महत्ता एवं भागीदारी की अप्रतिम कथाओं से भी भरा है। हमारी संस्कृति स्त्रियों की पक्षधर रही है तथा बीच के काल में अन्य विकृतियों के साथ यह विकृति भी विकराल रूप में सामने आई । आज पुन: स्त्री अपने उसी दृढ़ आत्मविश्वास एवं साहस के साथ सामने आ रही है। डॉ0 पूरनसिंह की ‘महाकाली’ अपनी अस्मत की रक्षार्थ पुरुष पर हमला करने वाली बालिका के साहस का दर्शन कराती है। घमण्डीलाल अग्रवाल की ‘आत्मविश्वास,’ अनिता वर्मा की ‘दर्पण’ , कुमुद शाह की ‘मनुष्य की खोज’, अरविंद अनुराग की ‘मैं जैसा भी हूँ’, चेतना को जाग्रत करती लघुकथाएँ हैं। यह सत्य है कि दृढ़ चरित्रवान मनुष्यों की खोज कठिन है तथापि मनुष्य स्वयं का सर्वाधिक श्रेष्ठ सुधारक है। ऐसा संदेश देती कथाएँ लघुकथा की विधा को उपयोगी साहित्य की श्रेणी में स्थापित करती है।
आधुनिक समय यदि किसी क्षेत्र में सर्वाधिक प्रभावित है, तो वह है राजनीति। नीतिपूर्ण ढंग से राज चलाने की प्रक्रिया से विमुख होकर राजनीति आज स्वार्थ परकता एवं कुटिल चालों का प्रतीक बन गई है। आम जनता उसे जिस नज़र से देखती है, अनुभूत करती है वह कई स्थानों पर हतप्रभ कर देती है। शैल चन्द्रा की ‘वजह’ लघुकथा में दो सम्प्रदायों के बच्चों की निश्छलता को कैसे साम्प्रदायिक करपंथी राजनीतिज्ञों ने अपनी रोटियाँ सेंकने हेतु दंगों में तब्दील कर दिया ,यह बड़ा ही दुखद है। ऐसी संवेदनशील नाजुक घड़ी में भी दोनों बच्चे असलम एवं मयंक छिपकर छतों पर खेलते हैं। मुहल्ले में आई पुलिस की तरफ ध्यान जाता तो जरूर है किंतु उनका भोलापन कारण से बेखबर बेपरवाह अपने खेल में मग्न है। राजनीति का यह घिनौना पक्ष सचमुच धिक्कार योग्य है। राजनीति का ही दूसरा पक्ष अत्यंत अंधकारपूर्ण है जो अपने घरों के उजाले के लिए हजारों दीपक बुझा देते हैं, अपनी क्षुधापूर्ति के लिए लाखों के निवाले छीन लेते हैं। योजनाएँ–दर–योजनाएँ गरीबों के लिए नहीं उनके नाम पर स्वयं के लिए। भ्रष्टाचार की जड़े इन राजनीतिक मालिकों द्वारा सींच–सींच कर और सुदृढ़ की जा रही हैं। लघुकथाकार अपनी रचनाओं द्वारा न तो इन्हें धिक्कारों से बाज आते हैं न इनकी बघिया उधेड़ने से। उज्जवला केलकर की लघुकथा ‘दुगना काम’ एक काल्पनिक भ्रष्टाचार विरोधी योजना द्वारा व्यंग्य की तीखी धार छोड़ती है भ्रष्टाचार से भरी समस्त सरकारी व्यवस्था पर। ऐसी अनेक घटनाएँ होती हैं जिनका सामना हम नित्य जीवन में करते हैं। हूँदराज बलवाणी की ‘भाषा’ चरण मित्र की ‘यह है प्रजातंत्र’, रामकुमार आत्रेय की ‘महाबदमाश’, जाफर मेहदी जाफरी की ‘जो बोओगे वही काटोगे,’ राजीव कुमार त्रिगर्ती की नेतागिरी’, अर्चना चतुर्वेदी की ‘मुखौटा’, चके विश्वम्बर प्रसाद चन्द्रा की ‘ये कैसी आजादी’, कथाओं द्वारा राजनीति के अपराधीकरण एवं अपराध के राजनीतिकरण के सिद्धांतों को रचनाकारों ने बड़ी सूक्ष्मता से परखा है। उसमें उठती सड़ाँध के प्रति भी ने उतने ही सजग हैं तभी तो ऐसी ही विषय बड़ी संस्था में उभरकर आए हैं। ये लघुकथाएँ समाज में, मनुष्य के भीतर घिरते राक्षसों के बीच अंगद का पाँव बनना चाहती हैं।
मारीशस के रामदेव धुरंधर की लघुकथा ‘एक बेटी किश्तों में’, एक साथ ही एक पूरे परिवार की व्यथा कह जाती है। जीवन में ‘समझौता’ मानो शब्दकोश से विलीन होता जा रहा है। परिणाम होता है तलाक। तलाक का दंश रिश्तों को पूर्णत: दहन कर देता है किंतु यदि कहीं थोड़ी शीतलता की सम्भावना है तो वह हैं संतान रूपी पौध की। तलाक को ओर बढ़ते कदम संतानों के मनोविज्ञान को समझने में सर्वथा असमर्थ होते है। ‘एक बेटी किश्तों में’ शींर्षक ही सारी कथा बयाँ कर देता है। जीवन की सफलताओं के बीच भी ऋचा जैसी संताने कितनी खोखली एवं टूटी रह जाती है। अलगाव में भी पिता की खुशियाँ कितनी चरम पर हैं तथा माँ अपनी विकट परिस्थिति में भी बच्ची का पालन कैसे करती है ये दृश्य निश्चय ही थोड़े में ही बड़ी दास्तान सुनाते हैं।
वस्तुत: स्वार्थ की कटार से जब भावनाओं की धज्जियाँ बिखेरी जाती है तब स्वाभिमान जाग्रत होता है। दाम्पत्य जीवन में तलाक जैसी बहुत सी समस्याएँ सिर उठाने लगती है। अंग्रेजी कथाकार सॉमरसेट मॉम की कथा ‘गत बीस वर्ष वापिस करो’ ये नारी का वह रूप है जो तलाकशुदा पति द्वारा दिए गए भरपाई के 15 शिलिंग उसके मुँह पर मारते हुए कहती है, ‘‘पिछले बीस वर्ष मुझे वापिस करो।’’
भारतीय परिवेश भी अपने वर्तमान परिवेश से जिन अभिशप्त क्षणों को जीने के लिए बाध्य है उसकी जड़ों में सांस्कृतिक क्षरण ही हैं उदारीकरण, भूमंडलीकरण के दौर में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पैसे उगलती नौकरियाँ , ऐश्वर्य के साधनों के बीच संबंधों एवं भावनाओं का पसरता महाशून्य न जाने कैसे–कैसे संकटों से ग्रस्त करेगा मनुष्य को। हर घर एक टापू और हर व्यक्ति एक रॉबिन्सनक्रूसों बनने का तैयार है। संयुक्त परिवार की टूटन के बाद भारतीय माता–पिता पुत्र की चाहत अपने वंश मान, वृहदास्पद के सहारे के रूप में तो करता है नहीं किंतु भावनाओं का स्नेह दुलार के समन्दर के बीच ही ये तमन्नाएँ लहराती हैं न कि स्वार्थ की सूखी ठूँट पर। तथापि संतानों की उनके प्रति उपेक्षा एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। कुमार कृष्ण यादव की कहानी ‘बेटा’ ऐसे ही माता–पिता की कथा बयाँ करती है जो बड़ी आरजू मिन्नतों के पश्चात् पुत्र रत्न की प्राप्ति करते तो हैं सारी मेहनत परिश्रम के पश्चात् उसके विवाह से थोड़ा टूटते है। आस निराश की इसी ऊहापोह में जिंदगी समाप्त हो जाती है। बेटा अंतिम संस्कार तक भी नहीं पहुँच पाता। यह एक बेटे एवं माता–पिता की कथा नहीं सम्भवत: हर गली मुहल्लों में ऐसे दो यार उदाहरण अवश्य मिल जाएँगे। प्रदीप मिश्र की ‘यथार्थ’ पुष्पा गुप्त की ‘स्वामिनी’, चंद्ररेखा दडवाल की ‘रिश्ता’, मुकेश शर्मा की ‘बर्फ़ पर पड़ी संवेदना,’, राजेश्वर प्रसाद गुप्ता की ‘वसीयत’ जैसी कथाएँ ऐसे ही उपेक्षित माता–पिता की दुर्दशा का लेखा–जोखा प्रस्तुत करती हैं।
इसमें संदेह नहीं कि पिता–पुत्र, पति–पत्नी, नेता–प्रजा, गुरु–शिष्य, नौकर मालिक, भाई –बहन, मित्र–मित्र के कई स्नेहिल रिश्ते दिनोदिन दूषित होकर तार–तार हो रहे हैं। लघुकथाकारों की पैनी नजरें अन्य विषयों की भांति इन संवेदनशील महत्वपूर्ण रिश्तों का भी पोस्टमार्टम करती नज़र आती है। कारण निवारण इनका महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है। अकेली संतान के अकेलेपन भाई की तलाश को सुरेंद्र कुमार भक्त ने लिजलिज़े लोग’ कथा के माध्यम से उपेक्षित लोगों के बीच जाकर पूरा किया। उन भाइयों का कथन ‘‘बहना जिस स्थिति में जहाँ भी पुकारेगी कृष्ण की तरह हम वहाँ उपस्थित रहेंगे।’’ एक आदर्श समाधान की नींव रखता दीखता है। इस कथा का निष्कर्ष ‘‘शायद कुछ लोग हमारी समझ से परे होते है और ज्यादा अच्छे होते हैं जिन्हें हम समझना ही नहीं चाहते हैं।’’ एक नयी सोच की ओर अग्रसर होने को प्रेरित करता दीखता है। ऐसे उपेक्षित वर्गों की ओर न तो सरकार का ध्यान है, न गैर सरकारी संस्थाओं का। यदि ध्यान है भी तो इनके माध्यम से अपने लाभ का। ये वर्ग ऐसे भ्रष्टाचार की नींव के पत्थर बनते जा रहे हैं। ये मंच से महान उद्घोषणाओं के विषय मात्र है। इनकी तरफ भी लघुकथाकारों सहृदयम एवं मर्मस्पर्शी दृष्टि पड़ती है तथा संवेदना एवं करुणा से ओत–प्रोत हो लघुकथाओं का सृजन गम्भीरता पूर्वक होता है। आनंद कुमार की ‘गुलाब’ कथा में पं. नेहरू का जन्मदिवस बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है किंतु गरीब बच्चों की उपेक्षा से उत्पन्न यह वाक्य ‘‘क्या गुलाब फुटपाथ से बचकर महकता था?’’ समस्त सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों एवं दिवस विशेषकर करारा व्यंग्य ही नहीं एक बड़ा प्रश्न भी है। ‘अपना घर’ पेट, जैसी इनकी लघुकथाएँ समाज के उस तबके की लघुकथाएँ हैं जो मुख्य धारा से करा संसार की गति एवं आबो–हवा से अपरिचित अपने परिवार के लिए रोटी का जुगाड़ करने में जिंदगी स्वाहा कर देता है। ‘अपना घर’ का युवक ट्रक ड्राइवर हो या ‘पेट’ का वृद्ध। यह समाज का कटु सत्य है जो विकास की नींव का दीमक एवं योजनाओं के मुँह पर तमाचा है। फिर भी इसके उत्थान की ओर किसी का ध्यान नहीं। ऐसा प्रतीत होता है। मानो निराला ने भिक्षुक एवं पत्थर तोड़ती मजदूरनी को अपने काव्य का विषय बना कर समाज में अमरता की घुट्टी पिला दी है।
इस प्रकार लघुकथाकारों ने देश–देशांतर के, समाज के विविध परिदृश्यों को लघुकथाओं, फ्लैश बैक के माध्यम से विविध प्रतीकों, शैलियों में प्रस्तुत किया है। प्रकृति,पशु,पक्षियों का मानवीकरण कर लघुकथाओं को सशक्त प्रभावोत्पादक ही नहीं आकर्षण एवं मनोरंजक भी बनाया गया है। इण्टरनेट के माध्यम से विविध वेबसाइट इसके आयाम एवं स्तर को परिवद्धित परिमार्जित एवं स्मृद्ध करने की भी अनवरत कोशिश कर रहे हैं। अस्तु ये उस रोशनी की तरह है जिसका कोई धर्म नहीं होता। मंदिर–मस्जिद–गिरजा, गुरूद्वारे में विविध माध्यमों से जलती शिखा एक सा आनंद रोशन करती है। लघुकथाएँ वर्तमान के धरातल पर भूत के स्वर्णिम आदर्शों को जिंदा मात्र ही नहीं रखना चाहती वरन् भविष्य के आंचल मंा छिपे विश्व के हृदय अमिट छाप भी छोड़ना चाहती है। भूत–भविष्य–वर्तमान की एवं संतुलित त्रिवेणी में उज्ज्वलता एवं पवित्रता का संघर्ष एवं संगीत का, साहस एवं धैर्य का पोषक हैं ये लघुकथाएँ।
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