उर्दू कथा–साहित्य में प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी में सबसे बड़ा एवं असरदार नाम सआदत हसन मण्टो (1912–55) का है, जो अपने लेखन से न केवल सदैव विवादों में रहे, बल्कि जिसने पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से अपने समय के यथार्थ और सियासी भगिमाओं को बेपर्द कर मनुष्य के रुहानी रिश्तों को कलमबंद किया। 1935 से 1955 के भारतीय परिवेश के एकपक्ष को अपने कथा–साहित्य में यथार्थपरक दृष्टि से दर्ज कर मण्टो ने वस्तुत: उस दौर की स्याह दास्तान का उद्घाटन किया है। कहते हैं कि साहित्य अपने समय का सच्चा इतिहास होता है, जिसकी पुष्टि मण्टो के लेखन से होती है। ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘बू’, काली सलवार’, टोबाटेक सिंह’, ‘धुआँ, ऊपर नीचे औरदरम्यान’, ‘नया कानून’,‘ब्लाउज’, ‘सरकंडो के पीछे’, ‘डरपोक’, ‘हतक’, ‘खुशियाँ’ जैसी कहानियों के द्वारा एक जमाने में मण्टो को न केवल व्यापक चर्चा मिली, बल्कि इनमें कई कहानियाँ सामाजिक ठेकेदारों एवं कानूनविदों के बीच हंगामेदार विवादों में भी रहीं और उनमें अधिकतर पर मुकदमे भी चले, जिनमें दो–तीन कहानियों के कारण मण्टो को सजा भी हुई। ये सब अपनी जगह, किन्तु इस हकीकत से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यही कहानियाँ अपने समये के सच को अपने में इतिहास की तरह सुरक्षित रखे हुए हैं। नाना मुसीबतों को मोल लेकर भी मण्टो ने अपने समय के तल्ख यथार्थ को अपने साहित्य में दर्ज किया, वगैर इसकी परवाह किए कि केवल यथार्थ चित्रण भर के लेखन से सारस्वत साहित्य में उसका सतही मूल्यांकन भी हो सकता है। बकोल डॉ. रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ जिस समय मण्टो ने लिखना शुरू किया उस समय उर्दू–कथा साहित्य आदर्शवाद से आगे न बढ़ा था। यह आदर्शवाद भी क्रांतिकारी किस्म का न था, बल्कि नजीर अहमद और राशिदुल खैरी की परम्परा में वैयक्तिक व्यवहार के सुधार की ओर प्रयत्नशील था। प्रेमचंद आदि के प्रभाव से उसमें सामाजिक क्रांति की दृष्टि को एकदम से फलांग कर तत्कालीन यूरोपीय साहित्य से प्रेरणा प्राप्त की, जो फ़्रायड के मनोविज्ञान और लैंगिक मनोविकारों के अध्ययन पर आश्रित था। आलोचकों ने मण्टो के ‘नग्नवाद’ को खूब कोसा, लेकिन मण्टो ने किसी की परवाह न की और बराबर के यौन मनोविकारों के सड़ते हुए घाव खोलकर दिखाते रहे।
लैंगिक मनोविकारों के साथ फसादी माहौल की सियासी भंगिमाओं को भी सामाजिक विद्रूपताओं की लपट में बेपर्द कर उसकी अंत: कथाओं को मण्टो ने लेखनबद्ध किया। इन दो सूत्रों के सहारे मण्टो –साहित्य का आकलन किया जा सकता है। यहाँ हम मण्टो की लघुकथाओं (जिसे उर्दू में अफसांचे कहते हैं,)के ही विवेचन तक अपने को सीमित रखना चाहेंगे। मण्टो ने छोटी–छोटी कथाओं के द्वारा भी भारत विभाजन की त्रासदी तथा साम्प्रदायिक हिंसा की नाना स्थितियों का चित्रण कर व्यक्ति की उन प्रवृत्तियों को आकलन किया है, जहाँ सामुदायिक भावना के पूर्वाग्रहों में आकर वह अपनी मनुष्यता खो बैठता है। मण्टो की इन्हीं स्थितियों की लघुकथाओं का एक संग्रह ‘स्याह हाशिए’ नाम से प्रकाशित हैं अपनी सभ्यता एवं संस्कृति से पूरे विश्व को राह दिखाने वाले मधुमय देश भारत में एक समय ऐसा भी आता है, जब समुदायगत आदिम प्रवृति के कारण उसकी दास्तान स्याह हाशिए में दर्ज हो पूरी मानवता को कलंकित कर जाती है। इस तथ्य को यथार्थपरक दृष्टि से पूरी संवेदना के साथ मण्टो ने अपनी लघुकथाओं में दर्ज किया है। यद्यपि अपनी लघुकथाओं में मण्टो ने फसादी स्थितियों के हर रंग को अतियथार्थपरक ढंग से चित्रित किया है, तथापि कहीं–कहीं रचनात्मक आदर्श के गठन में घटनाओं के मनोवांछित चित्रण के द्वारा उससे युटोपियाई निष्कर्ष निकालने की कोशिश भी की है, जिसके मूल में देशकाल एवं समाज पर किसी विचार का प्रत्यारोपण न होकर गुण–धर्म के आलोक में मनुष्यता की व्याख्या ही है। अपने मानसिक संर्ष के इस ज़द्दोजहद में अनेक बार लघुकथा के शिल्प एवं कथ्यगत बुनावट को मण्टो प्रतीकात्मक तरीके से फंतासी की हदों तक ले जाते हैं, जहाँ ये मोंपासां एवं मॉम जैसी फ़्रांसीसी लेखकों की शिल्पगत संरचना के अधिक निकट मालूम जान पड़ने लगते हैं। व्यंजनामूलक भाषा की चासनी में मण्टो के पात्र अनकही कहानी भी कहते हैं, जिससे उनका अपना संसार, खिलता–खुलता नजर आता है। ‘स्याह हाशिए’ की लघुकथाओं के बहाने प्रथमत: उनके लेखन–तकनीक तथा फसादी माहौल के लेखन–विस्तार की व्याख्या प्रासंगिक होगी।
‘स्याह हाशिए’ की पहली लघुकथा है–‘जूता’। साम्प्रदायिक पृष्ठभूमि की इस रचना में लेखक ने एक बुत के बहाने सामाजिक आदर्श एवं मूल्यों के संरक्षण को तमाम साम्प्रदायिक आग्रहों के ऊपर प्रतिष्ठित किया है। इस रचना में गंगा राम का बुत सामाजिक आदर्श एवं मूल्यों का प्रतीक है, जिसे साम्प्रदायिक जुनून से उद्धत हो अपर समुदाय के लोग जूतों की माला से लांछित कर अपने समुदाय की छद्म भावनाओं को संतृप्त करना चाहता है, किन्तु औचक पुलिक के आगमन से उसकी मंशा सिद्ध नहीं हो पाती है और उनमें एक अत्यंत घायल हो भाग पाने में भी असहाय हो जाता है। प्राण–रक्षा हेतु उसे ‘सर गंगाराम अस्पताल पहुँचा दिया जाता है। इस कथा में दो बातें गौर करने लायक हैं, एक–जिस ‘आदर्श’ के प्रतीक बुत को तोड़–फोड़ कर उसे जूतों की माला से लांछित करने की कोशिश की जाती है, उसी आदर्श से नामित अस्पताल में दंगाई को प्राण–रक्षा हेतु भेजा जाता है अर्थात् सामाजिक आदर्श एवं मूल्य व्यवहार–जगत की संकुचित दृष्टि से बहुत ऊपर पूरे जगत के कल्याणकारी तत्त्व हो जाते हैं, जिन्हें उनके संसारी एवं भौतिक परिचय से मूल्यांकित कर उनके साथ तदनुकूल व्यवहार करना अनुचित होगा। दो–जूता यहाँ लांछन का प्रतीक है। संसारी लोगों में, जो साम्प्रदायिक आग्रही होते हैं, उनके द्वारा किसी आदर्श की हत्या में वह आदर्श लांछित नहीं होता, बल्कि उसकी ही मनुष्यता लांछित होती है। ऐसे में ‘गिरे हुए’ अर्थात् पतित व्यक्ति की रक्षा भी वही ‘आदर्श’ करता है, जिसकी हत्या साम्प्रदायिक आग्रही करते हैं। यहाँ यह भी गौर करना चाहिए कि यह छोटी–सी रचना ‘जूता’ शीर्षक पाकर अनन्त विस्तार पा लेती है, जिससे ध्वन्यांकित होता है कि दंगों की आवोहवा में महज समुदाय–भावना की सनक में जिन असंख्य लोगों की हत्याएँ की जाती हैं, उससे हमारी अपनी ही मनुष्यता लांछित होती है।
दंगे की ज्वाला में लगातार हाथ सेंकने वाले समुदाय न केवल अपनी चेतना खो बैठते हैं, बल्कि उसकी संवेदना भी–भू लुंठित हो जाती है। ऐसे ही नृशंस समुदाय की कथा है–‘बेखबरी का फायदाह’, जिसमें संवेदनशून्यता की स्थिति को चित्रांकित किया गया है। इस कथा में एक समुदायी की पिस्तौल दिन भर गोलियाँ उगलती हैं जिससे अनेक जाने हलाल होती हैं। पिस्तौल की गोलियाँ खत्म हो जाती हैं, पर समुदायी की सनक नहीं। तभी एक बच्चा सड़क पर दिख जाता है। उसे भी समुदायी अपनी गोली से हलाल कर जाना चाहता है। उसका संवेदनशून्य मस्तिष्क बड़े और अबोध बच्चे में कोई फर्क नहीं कर पाता। अपनी सनक में वह इस कदर बेखबर है कि उसे पता ही नहीं चलता कि पिस्तौल में गोली है भी या नहीं। अबोध बच्चा तो उसकी बेखबरी के कारण बच जाता है किन्तु उसके मानस का वहशीपन अपनी दास्तान कह जाता है। यहाँ अबोध बच्चे का बच जाना महज इत्तेफ़ाक बताकर लेखक उस पूरे परिवेश के चेतनाशून्य हादसे का बयान कर जाता है। फसादी–माहौल की एक अन्य लघुकथा है–‘करामात’। दंगाई मानसिकता मनुष्य की आत्मा को भी कुलषित कर देती है और जब आत्मा ही कुलषित हो जाती है तो हर मीठी चीज भी खारा लगने लगती है। ‘करामात’ शीर्षक लघुकथा इसी दृष्टि की उत्तम रचना है। दंगे में बाजार की लूट का स्वाद प्राय: सभी चखना चाहते हैं, लेकिन बाद को शिकंजा कसने लगता है तो उससे जान छुड़ाने के लिए लूटी गई वस्तु के साथ–साथ अपनी वस्तुएँ भी बाहर कर देते हैं। एक व्यक्ति लूटे गए शक्कर के बोरे को कुएँ में डालने के साथ–साथ खुद भी उसमें गिर जाता है। लोग उसे बाहर निकालते हैं ;लेकिन कुछ देर बाद ही वह मर जाता है। यहाँ तक कथा को बयान करने के बाद लेखक उसे आश्चर्यजनक मोड़ देता है–लोग जब दूसरे दिन कुएँ के जल को इस्तेमाल में लाते हैं तो वह मीठा लगने लगता है और लोग यह भी देखते हैं कि मरने वाले की कब्र पर दीए जल रहे हैं। यहाँ कुएँ के जल का मीठा लगना’ और ‘कब्र पर दीए जलने’ की प्रतीकात्मकता के द्वारा लेखक स्पष्ट करना चाहता है कि लूट में हिस्सेदारी निभाने से जो आत्मा कलुषित हुई थी, वह व्यक्ति के मर जाने अर्थात् आत्मोत्सर्ग से निष्कलुष हो जाती है और इसीलिए कुएँ का खारा जल मीठा हो जाता है। लोक व्यवहार में क्योंकि ऐसा होता नहीं;इसीलिए रचना के अंत को चमत्कारपूर्ण कर प्रतीकात्मक तरीके से एक रचनात्मक आदर्श के गठन की कोशिश की गई है। ‘करामात’ शीर्षक रखकर भी रचना में इसी तथ्य को रेखांकित किया गया है कि किसी जटिल एवं संक्रमणकारी युग में किसी करामात से ही रचनात्मक आदर्श का गठन संभव है। इस रचना में दंगे के एक आयाम को दर्शाने में यथार्थपरक चित्रण करते हुए भी रचनात्मक आदर्श की निर्मिति में कदाचित फंतासी का सहारा लिया गया है।
दंगे की मानसिकता विवेक को पूरी तरह से किस प्रकार हर लेती है, इस ‘घाटे का सौदा’ में देखा जा सकता है। दो मित्र अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए अनेक लड़कियों में से एक को बयालीस रुपए में खरीदता है। बाद को, लड़की से बातचीत करने पर उसे पता चलता है कि लड़की उसी के समुदाय से है, जबकि बेचने वाले ने उससे झूठ कहा था कि लड़की उसके समुदाय से नहीं है। सच्चाई जान लेने के बाद दोनों मित्र लड़की को वापस कर आने का निर्णय लेते हैं। यौन बुभुक्षा एक प्रकार की बॉयोलोजिकल नेसीसिटी है, लेकिन दंगाई पृष्ठभूमि में मनुष्य यौन तृप्ति में भी समुदायगत भावना से ही निर्णय लेते हैं–यही निर्दिष्ट करना इस लघुकथा का अभीष्ट है। शरीर की भूख से मुक्ति के लिए सौदा किया जाता है, वह इसलिए घाटे में तब्दील नजर आता है कि लड़की उसके ही समुदाय की निकल जाती है। दंगों में केवल विवेक ही विकृत नहीं होता, प्रवृत्ति भी दूषित हो जाती है।
‘पेशबंदी’ शीर्षक लघुकथा दंगाई हालात में सुरक्षा प्रहरियों के गलत डेपुटेशन की अन्त:कथा बयान करती है। इस रचना का चरमोत्कर्ष है एक सिपाही को नई जगह पर गश्ती के हुक्म दिए जाने पर उसके द्वारा इंस्पेक्टर से कहा गया कथन–‘मुझे वहाँ खड़ा कीजिए, जहाँ नई वारदात होने वाली है।’ यहाँ यह संवाद ही पूरी अंत:कथा खोकर खुलासा कर देता है। दंगे का एक सच यह भी है कि व्यक्ति संकट में सब कुछ खोकर भी अपनी जान का प्रतिरक्षक बना रहता चाहता था। ‘तआबुन’ इसी स्थिति की रचना है। समुदाय–विशेष के क्षेत्रों में अपर समुदाय का एक तन्हा व्यक्ति जो दौलतमंद भी है, इसी बात में समझदारी मानता है कि बलवाई लुटेरों को आमंत्रित कर हवेली का सब कुछ लूट जाने दे, ताकि उसकी अपनी जान सलामत रहे। वह यही करता है। इस रचना का निहितार्थ यह है कि दंगे में व्यक्ति धन के मद में वशीभूत होकर ही दूसरे समुदाय की जान का दुश्मन बनता है, अन्य कारण गौण भूमिका में होते हैं। इसी तथ्य को एक अन्य लघुकथा ‘तकसीम’ ने नए अंदाज में पेश किया है। यूटोपियाई निष्कर्ष के द्वारा अघटित के वर्णित करने के मूल में भी इसी प्रकार की सदिच्छाएँ ही होती हैं। ऐसी सदिच्छाएँ उसी के मानस में पनपती हैं, जिसे लगातार दंगाई माहौल में रहना पड़ा हो। ‘तकसीम’ इसी प्रकार की रचना है। लूट से प्राप्त धन के आधे–आधे वितरण के निमिा जब संदूक खोला जाता है, तो उसमें से एक आदमी निकलता है और वह दोनों लुटेरों को दो–दो हिस्सों में काट डालता है। दंगे का यह मन–कल्पित दृश्य भर है, जिसके द्वारा व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति को एक आदर्श की तरफ आकृष्ट भर करना रचना का अभीष्ट है। रचना केवल यथार्थ भर नहीं होती, मानव मन के आकलन को प्रेरित करने के निमित वांछित आदर्शोंन्मुख कल्पना का प्रतिफलन भी होती है। ‘तकसीम’ को इसी आलोक में देखा जाना चाहिए।
दंगाई–लूट में केवल सामान्य व्यक्ति ही अपने धर्म से च्युत नहीं होता, कभी–कभी वे भी इसके शिकार हो जाते हैं जिन पर देश–समाज की रक्षा का भार होता है। साम्प्रदायिक हिंसा के इस कटु पक्ष के यथार्थ को लेखक ने ‘मजदूरी’ एवं ‘निगरानी में’शीर्षक लघुकथा ओं के माध्यम से चित्रित किया है, जो पुलिस एवं सेना के लेकर है। इसी कड़ी की दूसरी लघुकथा है–‘निगरानी में’, जिसमें मिलिटरी वाले की भी दंगाई लूट में हाथ सेंकने की दास्तान है। जिन पर राष्ट्र–रक्षा का दायित्व होता है, उनमें भी कुछ दंगाई माहौल के प्रभाव में आकार किस कदर बहक जाते हैं, उसे सांकेतिक रूप में यह रचना उद्घाटित करती है। जिस देश में पुलिस एवं मिलिटरी के लोग भी अपने कर्तव्य को भूल दंगाई–लूट में अपने हाथ गरम करने लगे, उस देश की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है? यही स्याह हाशिए की निर्मम दास्तान है, जिन्हें पूरी संजीदगी के साथ लेखक ने अपनी लघुकथा ओं में चित्रित कर उस नग्न को उदटित किया, जिससे यह देश कलंकित हुआ।
‘स्याह हाशिए’ की लघुकथाओं में सॉरी, उलेहना, आराम की जरूरत, दावते अमल, जेली, इस्तेकलाल, साअतेशीरी, किस्मत, आँखों पर चर्बी जैसी रचनाएँ भी है, जो दंगे में हलाल–लूट आदि को पृथक–पृथक् कोण से चित्रित कर न केवल जातीय संस्कार को झटकती हैं, अपितु फसादी माहौल के अतियथार्थपरक चित्रण के द्वारा सभ्य समाज के सामने ऐसा संकट (द्वन्द्व) उपस्थापित करती है, जिनसे जूझने के उपरान्त ही मनुष्यता की रक्षा संभव है। यहाँ इस तथ्य को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है कि मण्टो के अफसांचों को आधुनिक हिन्दी लघुकथा के कलागत शिल्प एवं कथ्य की पूर्ववर्ती रचना–परम्परा के रूप में न देखकर, स्वातंत्रयोत्तर भारत की सीमावर्ती क्षेत्रों में व्याप्त तत्कालीन भीषण साम्प्रदायिकता दंगे की विविध कोणीय यथार्थपरक चित्रण के रूप में ही आकलित किया जाना चाहिए, तभी हम उनके साथ न्याय कर पाएंगे....गो कि इतना तो मानना ही पड़ेगा कि मण्टो की लघुकथा ओं ने भी भावी हिन्दी लघुकथा ओं की दिशा को प्रभावित किया। आज मण्टो की रचनाएँ अपने समय के सच का इतिहास बताती हैं तो लगता है कि वे कल की नहीं, आज की ही हकीकत बयान कर रही हैं....केवल संदर्भ एवं घटनाएँ बदल गई हैं, पर आज भी मनुष्य अपनी उसी आदम प्रवृत्तियों के साथ ‘मनुष्यता की लूट’ में सक्रिय है....और सच मानी में, यहीं मंटों की प्रासंगिकता अधिक उजागर होती है!
-0-