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अध्ययन-कक्ष - माधव नागदा
हिन्दी लघुकथाओं में प्रेम :माधव नागदा
 
स्त्री पुरुष में परस्पर प्रेम संबंध जीवन का आधार है। यह संबंध पति-पत्नी के रूप में , प्रेमी-प्रेमिका के रूप में या फिर मित्र के रूप में हो सकता है । प्रेम मनुष्य को परिपूर्ण बनाता है । प्रेम पाकर पुरुष पूर्णपुरुष एवं स्त्री पूर्णनारी बन जाती है । प्रेममय जीवन में ऊर्जा व उमंग की वो सृष्टि होती है कि उसके चलते जीवन के अभाव, दुःख-दर्द , संघर्ष,गरीबी आदि का सामना करना कहीं अधिक सुगम हो जाता है । हूबनाथ कहते हैं; तुम हो तो लगता है / फिर एक बार लड़ी जा सकती है / लड़ाई इंसाफ की / फिर एक बार /लगाई जा सकती है / जिंदगी दाँव पर1 । प्रेम ही ऐसा जीवन मूल्य है जो मनुष्य को उदात्त,अहिंसक,साहसी और मानवीय बनाता है। यह बात दीगर है कि समाज में प्रचलित रूढ़ नैतिक मूल्यों पर प्रेमियों के जीवन मूल्य खरे नहीं उतरते । कई बार उन्हें समाज की संगठित शक्ति के आगे परास्त होकर जीवन से हाथ धोना पड़ जाता है । लेकिन यह तो सदियों से होता आ रहा है। फिर भी प्रेम की धारा समय की तमाम क्रूरताओं को किनारे करते हुए अजस्त्र रूप से बह रही है । दरअस्ल प्रेम एक प्रगतिशील जीवन मूल्य है जिसमें जातिवाद , अमीरी-गरीबी,साम्प्रदायिकता या भौगोलिक सीमाओं का कोई स्थान नहीं है । प्रेम सामाजिक समरसता का प्रतीक है । इसीलिये कवियों और कहानीकारों की तरह लघुकथाकारों को भी चाहिये कि जहां भी प्रेम की ज्योति जगमगाती हुई देखें , उसके आलोक को लघुकथा के माध्यम से समाज तक पहुंचाने का पुनीत कार्य अवश्य करें।
देखने में यह आया है कि प्रेम विषयक लघुकथाएं बहुत कम लिखी जा रही हैं । इसके पीछे भी कतिपय कारण हो सकते हैं । पहला तो यह कि आज की भागमभाग भरी जिन्दगी में इतनी उठापटक,इतनी समस्याएं,इतने संघर्ष,इतने अभाव , इतने अरमान हैं कि प्रेम जैसी कोमल भावना इन सबके बोझ तले कहीं दबकर रह गई है। यह सच है कि प्रेम का पौधा जीवन के रणक्षेत्र में ही अंकुरित होता है परंतु बराबर खाद-पानी के अभाव में शीघ्र ही मुर्झा भी जाता है और लघुकथाकार की पकड़ में आते-आते रह जाता है । दूसरा यह कि आज प्रेम के प्रतिमान बदल गये हैं। वर्तमान दौर में देह प्रमुख हो गई है । एक पक्ष अपनी देह को किसी वस्तु की तरह प्रस्तुत करने पर उतारू है तो दूसरा पक्ष इसे येन-केन-प्रकारेण इस्तेमाल करने को आतुर। देह क्रीड़ा को ही प्रेम समझा जाने लगा है। ‘काम’और‘प्रेम’ की सीमा रेखा समाप्त सी हो गई है। प्रेम जितना दुरूह है उतना ही दुर्लभ होता जा रहा है । प्रेम से जुड़े त्याग और समर्पण के भाव तिरोहित से हो गए हैं। खासकर बड़े शहरों में । अरविन्द त्रिपाठी ठीक ही कहते हैं,‘प्रेम की दुनिया को देह और सेक्स में सीमित करना प्रेम की भारतीय आंख को फोड़कर पश्चिम की नकली आंख को प्रत्यारोपित करना है2। ’आज तू नहीं तो और सही की मनोवृत्ति सिर उठाने लगी है(प्यार:पुष्पलता कश्यप3)। यही कारण है कि आपको देह व्यापार से संबंधित l लघुकथा संकलन तो कई मिल जाएंगे परन्तु प्रेम आधारित लघुकथा संकलन मुश्किल से मिलेंगे।
देहाकर्षण को ही प्रेम का पर्याय मान लेने का दुष्परिणाम यह हुआ है कि नारी के प्रति असहिष्णुता बढ़ गई है। बढ़ते बलात्कार और हिंसा प्रेम के अभाव के ही द्योतक हैं(प्रेम किये दुःख होय:पृथ्वीराज अरोड़ा4) । प्रेम से परिपूर्ण मन कभी भी हिंसक नहीं हो सकता। किसी के भी प्रति नहीं। पृथ्वीराज अरोड़ा ने इस बात को बड़े अच्छे ढंग से अपनी लघुकथा‘रक्तपात’5में प्रेमी के मुख से कहलाया है, ‘अगर सम्राट अशोक पत्नी के साथ कहीं गहरे जुड़े होते तो इतना रक्तपात कभी न करते। ’
प्रेम के लिये सदैव विपरीत परिस्थितियां रही हैं । हर युग में प्रेम दीप को आंधियों से होकर गुजरना पड़ा है। और हर युग में इसके उजास में कवियों ने यादगार गीत गुनगुनाए हैं तो कहानीकारों ने कालजयी कहानियां रची हैं। लघुकथा अपेक्षाकृत नई विधा है। फिर भी संख्या मे न सही, गुणात्मकता में कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रेम लघुकथाएं लिखी गई हैं।
प्रेम सदैव से एक पहेली की तरह रहा है। इसे परिभाषित कर पाना सहज नहीं है। प्रेम को समझाने के लिये आरती झा अपनी लघुकथा‘प्यार’6 में एक खूबसूरत बिम्ब गढ़ती हैं। शान्त झील में बोटिंग हो रही है। लेखिका जिज्ञासावश बोटवाले लड़के से बातें करने लगती है। जब स्युसाइडल पाइंट की बात चलती है तो वह पूछ बैठती है, ‘प्यार क्या है तुम्हारी नजर में?’ जवाब में लड़का झील के उस तरफ स्थित मंदिर को देखने के लिये कहता है। मंदिर दिख नहीं पाता । चप्पू से पानी उछल रहा है । इस पर लड़का चप्पू चलाना बंद कर देता है। लेखिका को मंदिर का कुछ हिस्सा दिखने लगता है,धुंधला सा । लड़का स्पष्ट करता है, ‘ऐसा ही है प्यार भी। हलचलों के बीच स्थिर सी कोई चीज..कुछ देखा कुछ अनदेखा। ’ ‘घासवाली’7(रामवृक्ष बेनीपुरी)में बरसों बाद मिले असफल प्रेमी इक्केवान मोहन और घासवाली सुकिया के मन में एक ही बात गूंजती है , ‘गरीबों का प्रेम ऐसा ही होता है। तालाब में एक ढेला गिरा,कुछ तरंगें उठीं,फिर पानी शान्त। ’
मुहब्बत मनुष्य को एक निरपेक्ष दृष्टि देती है,कारण कि ‘मुहब्बत’8(शराफत अली खान) अकेले तारी नहीं होती। विश्वास , ईमान और निष्ठा साथ लेकर आती है। मुहब्बत में डूबा व्यक्ति न हिन्दू होता है और न मुसलमान। बल्कि एक सच्चा इंसान होता है । जोश मलीहाबादी साहब फरमाते हैं, ‘इश्क में कहते हो हैरान हुए जाते हैं । ये नहीं कहते कि इंसान हुए जाते हैं । ’ पृथ्वीराज अरोड़ा अपनी ‘रिश्ते’9 लघुकथा में प्रेम के आवश्यक उपपाद विश्वास की पड़ताल करते हुए बताते हैं कि यही विश्वास पति-पत्नी के मधुर रिश्ते का आधार है । पृथ्वीराज ने दो विपरीत स्थितियां खड़ी कर चुटीले संवादों के माध्यम से इसे प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। यही बात कमलेश भट्ट कमल ‘जोरू का गुलाम’10 के अंत में पत्नी की विकलांगता का राज खोलकर एक झन्नाटे के साथ सामने रखते हैं । दूसरी ओर ‘मन के सांप’11(सतीशराज पुष्करणा) का नायक विश्वास और वासना के हिंडोले में झूलता रहता है । पत्नी पीहर गई हुई है। मन फिसलता जा रहा है। वह संभलने की कोशिश करता है परन्तु मन है कि बार-बार लुढ़क जाता है । अन्त में वह युवा नौकरानी को दूसरे कमरे में जाने का आदेश देते हुए कहता है कि अंदर से कुण्डी लगा लेना । इस तरह कथानायक मन की तमाम कमजोरियों को अपने भीतर बंद कर बाहर से कुण्डी लगा देता है । यह लघुकथा पारे के समान चंचल मन की द्विविधा को सशक्त मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करती है। इधर ‘द्वन्द्व’12(रामकुमार घोटड़) में पति के प्रति नाना प्रकार की आशंकाओं और अविश्वास से घिरी पत्नी तब निर्द्वन्द्व हो जाती है जब शादी की सालगिरह को याद रखते हुए पति दफ्तर से ऋण लेकर उसके लिये कीमती तोहफा लाता है।
हमारे यहां प्रेम करना अकाल में रेगिस्तान के सफर की तरह दुरूह कार्य है (अकालग्रस्त रिश्ते:विभा रश्मि) । प्रेमिल रिश्ते समाज के भय से तपती रेत के नीचे दफ़न हो जाते हैं । ‘अकालग्रस्त रिश्ते’13 लघुकथा में रेगिस्तान का बिम्ब बहुत सार्थक बन पड़ा है। राजेन्द्र वामन काटदारे ने‘मुगलेआज़म’14में घर से भागे प्रेमी-प्रेमिका को सलीम और अनारकली की उपमा दी है । सलीम और अनारकली को नहीं मालूम कि उधर घर पर पंचायत के दबाव में मुगलेआज़म उनकी मौत का फरमान जारी कर चुके है । प्रतापसिंह सोढ़ी की ‘शक्ति बिखर गयी’15 में स्वयं प्रेमिका जातिवाद की पक्षधर है जिसके चलते दलित युवक का प्रेम असमय ही दम तोड़ देता है । यह एक जमीनी हकीकत है जिसकी तरफ बहुत कम लघुकथाकारों की नजर गयी है । ‘प्रेमब्लोग’16(सतीश दुबे)के के.के. का प्रेम भी जातीय दंश का शिकार हो जाता है। फर्क यही है कि यहां लड़की की मां जातीय वंश बेल से जकड़ी हुई है । बाद में के.के.अपने दोस्त के माध्यम से ब्लोग पर बचपन के प्यार का जिक्र करता है । नेट के माध्यम से प्रेमाभिव्यक्ति की बहुत कम लघुकथाएं मेरी नजरों के सामने से गुजरी हैं। प्राण शर्मा की‘प्रेमिका’17में भी नेट प्रेम है,चेट संवाद भी टटके हैं परन्तु संजीदा पाठक उस समय ठगा सा रह जाता है जब उसे ज्ञात होता है कि नेट पर प्रेम का खेल खेलने वाली और कोई नहीं अनुरागी की ही पत्नी मधुरिमा है । अलबत्ता सोशल नेटवर्किंग साइट पर पनपे प्रेम और उसकी परिणति पर अखिलेश शुक्ल की ‘सीख’18गंभीर टिप्पणी है। युवक-युवती फैसला करते हैं कि अब मिलना चाहिये । निर्धारित समय और स्थान पर युवती पहले पहुंच जाती है। युवती विकलांग है। युवक दूर से युवती को व्हीलचेयर पर बैठे देख उससे बिना मिले ही खिसक जाता है । यह लघुकथा न केवल नेटजन्य प्रेम के खोखलेपन पर प्रकाश डालती है बल्कि पुरुष की स्वार्थी मनोवृत्ति की भी अच्छी खबर लेती है।
श्यामसुन्दर दीप्ति की ‘एक ही सवाल’19कई महत्त्वपूर्ण सवालों से टकराती है। क्या प्यार ही सब कुछ है?क्या उसके मुकाबले स्वयं के अरमान, महत्त्वाकांक्षाएं, जिंदगी का मिशन कोई अर्थ नहीं रखते?लड़की का मिशन है कि वह नर्सिंग करके मानवता की सेवा का बीड़ा उठाए । लड़का कहता है कि मां ने मना कर दिया है ; शादी के बाद नौकरी नहीं करोगी । क्या प्यार में शर्तें जायज हैं?लड़की अड़ जाय कि मैं तो नौकरी करूंगी , उधर लड़का हठ पकड़ ले कि नौकरी नहीं करोगी तो फिर प्यार कहां है? प्रेम तो त्याग और समर्पण का दूसरा नाम है। लड़की जानना चाहती है कि लड़के की मंशा क्या है । क्या वह भी यही चाहता है जो कि उसकी मां?इसी सवाल के जवाब में यह बात निहित है कि लड़के के दिल में प्यार है या नहीं । ‘एक ही सवाल’ एक महत्त्वपूर्ण लघुकथा है जो पाठक को सोचने पर मजबूर कर देती है।
रविन्द्र कुमार रवि ‘लेकिन इस बार’20 में संतुलित कथानक द्वारा कहते हैं कि परिवारजन प्रारंभ में भले ही कड़ा रुख अपनाएं परन्तु अन्ततः वात्सल्य के आगे पराभूत होकर प्रेम विवाह को स्वीकार कर ही लेते हैं। ‘वन-वे’21(लता) एक तरफा प्यार की लघुकथा है जो प्रेमी की बेवफाई को लेकर मन को आक्रोशित कर देती है तो दीपा की स्थिति को लेकर दुःखी । यहां लेखिका ने दीपा की मनःस्थिति का वर्णन पूरी संलग्नता के साथ किया है। अश्विनीकुमार आलोक की ‘ततःकिम्’22 में अमीर और गरीब का प्रेम(?) दर्शाया गया है। गरीब सब्जीवाली निशा अमीर प्रतीक से शीघ्र ही विवाह बंधन में बंध जाना चाहती है क्योंकि उसे आशंका है कि विदेश जाने के पश्चात् वह बदल न जाए। यह प्यार को न समझ पाने की नादानी है। इस अभरोसे में यदि प्रतीक निशा से शादी कर ले तो भी वह अर्थहीन है।
अकेला भाई की ‘स्पर्श’23 अलग ही मिजाज की प्रेम लघुकथा है । कुछ-कुछ दार्शनिक पुट लिये हुए। मां बेटी दोनो सेक्स वर्कर हैं। रोजाना कई लोग उनके शरीर से खेलते हैं। बेटी को उस दिन विचित्र अनुभूति होती है जब एक व्यक्ति दूर बैठकर उससे प्रेमपूर्वक बतियाता है और कहता है कि एक दिन उसे डोली में बैठाकर ले जाएगा। वह खुशी से चहकते हुए मां से कहती है, ‘मां,मां मुझे आज किसी ने छुआ है । ’ मां इस विराट अनुभव से कभी गुजरी नहीं है इसलिये बेटी की बात सुनकर अचंभित रह जाती है । परन्तु बेटी प्रेम की जो छुअन महसूस करती है वह वर्णनातीत है। वास्तव में दिल से दिल का स्पर्श ही वास्तविक स्पर्श है। शरीर तो खेल का एक उपकरण मात्र है।
सतीश दुबे ‘आंखों की जुबान’24लघुकथा में काव्यात्मक संवाद के माध्यम से कहते हैं कि प्रेमाभिव्यक्ति के लिये शब्द की आवश्यकता नहीं है। आंखें ही सब कुछ बयां कर देती हैं। बकौल मदनमोहन पाण्डेय, ‘मैं जब प्रेम में रहा/उसके लिये शब्द नहीं सूझे/अब हजारों शब्दों से घिरा हूं/प्रेम नहीं है मेरे पास। ’25
‘पाप और प्रायश्चित’26में बलराम ने सच्चे प्यार और रूढ़ मान्यताओं के मध्य द्वन्द्व को मौलिक कथानक द्वारा बड़े सशक्त अंदाज में प्रस्तुत किया है । अशोक भाटिया की ‘दहशत’27 लघुकथा में एक तरफ युवावस्था की दहलीज पर खड़ी किशोरी के मन में उभरते प्यार के इन्द्रधनुषी रंग हैं तो दूसरी तरफ मां की वर्जनाओं की स्याह कूची। यहां नादान उम्र के मोहक सपनों और मन में बद्धमूल भयजनित अन्तर्द्वन्द्व को बड़ी ही मासूमियत के साथ उकेरा गया है । बलराम अग्रवाल की ‘संवादहीन’28में कथानायक स्मृतियों में बसे मौन प्यार को वाणी देना चाहता है मगर वक्त दोनों के मध्य दीवार बनकर खड़ा है। सतीश दुबे की ‘वह’29 प्लेटोनिक प्रेम की हृदयस्पर्शी दास्तान है। ‘एक शायर की मौत’30प्रेम और विरह की ऐसी मार्मिक लघुकथा है जो हमे भीतर तक हिलाकर रख देती है । इसे प्रियंवद ने मानो गुलाब की पंखुड़ियों को अश्कों में डुबोकर लिखा है। राजा और शायर के मध्य इस संवाद पर जरा गौर करिये;
‘तू ने मुहब्बत के गीत लिखे हैं, तुझे मौत मिलेगी। ’
‘मंजूर। ’शायर हँस पड़ा। ‘इसका गला बरछियों से छेद दो। ’राजा चिल्लाया। ‘बुलबुल मेरे तराने गायेगी। ’शायर हँसा। ‘इसके जिस्म के टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दो। ’ ‘मैं फूल बनकर गुनगुनाऊंगा। ’शायर और हँसा। ‘इसके बदन का लहू निकालकर नदी में बहा दो। ’
‘मै ओस बनकर टपकूंगा। ’ शायर ने फिर अट्टहास किया।
दिनेश पालीवाल की ‘डबल बैड’31, जगदीश कश्यप की ‘सरस्वती पुत्र’32 तथा इन पंक्तियों के लेखक की ‘कितना प्यार’33, ‘उस पार’34, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’35, ‘शिखर’36 आदि लघुकथाएं भी प्रेम के विविध रंग और इन रंगों की आब से रूबरू कराती हैं।
अंत में दो और लघुकथाओं का जिक्र करना चाहूंगा। एक है श्मासुन्दर अग्रवाल की ‘बेड़ियाँ’ तथा दूसरी है रामेश्वर कामबोज हिमांशु की ‘सुबह हो गई। ’
श्यामसुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘बेड़ियाँ’37 में कृष्णा और नेरेटर का प्यार सामाजिक बेड़यों में जकड़ा हुआ है। दोनों शादीशुदा हैं और अपनी-अपनी मर्यादाओं में बंधे हुए हैं। कृष्णा पति के अत्याचारों से त्रस्त है। मानसिक तनाव के चलते एक दिन उसकी मस्तिष्काघात से मृत्यु हो जाती है। उसकी चिता के सम्मुख नेरेटर पश्चाताप की आग में झुलसता रहता है, ‘मैं तुम्हें नहीं बचा पाया। मैं भी...’। यह लघुकथा एकतरफ उस समाज के लिए बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है जो औरत को गृहस्थी की चक्की में पिसकर रोते हुए तो देख सकता है परन्तु उसे किसी पुरुष के प्यार में प्रसन्नचित्त नहीं देख सकता तो दूसरी तरफ नेरेटर जैसे कमजोर इच्छाशक्ति वाले प्रेमियों के लिए एक सबक है जो अपने प्रिय की सलामती के लिए खतरे नहीं उठा सकते।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘सुबह हो गई’38 धीमी आंच की रचना है जिसमे समाये प्यार के ताप को जरा गौर से पढ़ने पर ही महसूस किया जा सकता है। शालू और परेश एक ही क्वार्टर में रहते हैं। एक ही कार्यालय में काम करते हैं। परेश अंतर्मुखी है। शालू उसके स्वभाव से आतंकित सी रहती है। परंतु जब परेश देखता है कि शालू लालसिंह जैसे बदमाश से ब्लेकमेल की जा रही है तो वह अपना मौन तोड़कर साहसपूर्वक शालू से यह कहता है कि मैं तुमसे शादी करूंगा, सिर्फ तुमसे और किसी से नहीं। किसी को उसकी तमाम कमजोरियों और मजबूरियों के साथ स्वीकार कर पाना आज विरल होता जा रहा है। .सुबह हो गई’ इसी विरल प्रेम की कथा है।
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सन्दर्भ:
1.तुम हो तो(कविता):हूबनाथ:युगीन काव्या:जन.-मार्च 2011,पृष्ट 37
2.प्यार:पुष्पलता कश्यप:इक्कीसवीं सदी की लघुकथाएं:पृ.72
3.इस सदी की प्रेमकथा पर कुछ पैराग्राफ:अरविन्द त्रिपाठी:वर्तमान साहित्य: जन.-फर.2000 पृ.214
4.प्रेम किये दुःख होय:पृथ्वीराज अरोड़ा:हरिगंधा,दिस.-जन.10-11 पृ. 93
5.रक्तपात:पृथ्वीराज अरोड़ा:तीन न तेरह(लघुकथा संग्रह) पृ 71
6. प्यार:आरती झा:लघुकथा. कॉम
7.घासवाली:रामवृक्ष बेनीपुरी:निर्वाचित लघुकथाएं(सं.अशोक भाटिया)पृ.42
8.मुहब्बत:शराफतअली खान:सरस्वती सुमन,जुलाई-सित. 2011 पृ. 109
9.रिश्ते:पृथ्वीराज अरोड़ा:कितनी आवाजें(सं.हीरालाल नागर,विकेश निझावन)पृ 94
10.जोरू का गुलाम:कमलेशभट्ट कमल:सौ श्रेष्ठ लघुकथाएं:सं.चेतन दुबे अनिल पृ.31
11.मन के सांप:सतीशराज पुष्करणा:निर्वाचित लघुकथाएं(सं.अशोक भाटिया)पृ. 149
12.द्वन्द्व:रामकुमार घोटड़:आधी दुनिया की लघुकथाएं पृ. 49
13.अकालग्रस्त रिश्ते:विभा रश्मि :राजस्थान के लघुकथाकार(सं.रामकुमार घोटड़) पृष्ट 229
14.मुगलेआज़म:राजेन्द्र वामन काटदारे:संरचना-3 (सं.कमल चोपड़ा), पृ. 161
15.शक्ति बिखर गयी:प्रतापसिंह सोढ़ी:निर्वाचित लघुकथाएं:सं.अशोक भाटिया पृ.218
16.प्रेमब्लोग:सतीश दुबे:बूंद से समुद्र तक ,पृ. 31
17.प्रेमिका:प्राण शर्मा:मंथन(वेब पत्रिका)
18.सीख:अखिलेश शुक्ल:हंस,अप्रैल 2011 , पृ. 43
19.एक ही सवाल:श्याम सुन्दर दीप्ति:नई धारा’अप्रैल-मई 09 , पृ. 82
20. लेकिन इस बार:रविन्द्र कुमार रवि:हरिगंधा,दिस.-जन 10-11 ,पृ. 194
21.वन-वे:लता:स्वरों का आक्रोश सं:हरनाम शर्मा ,पृ. 59
22.ततःकिम्:अश्विनी कुमार आलोक:नई धारा,अप्रैल-मई 09, पृ.156
23.स्पर्श:अकेला भाई:सरस्वती सुमन:जुलाई-सित. 2011 ,पृ. 11
24.आंखों की जुबान:सतीश दुबे:बूंद से समुद्र तक, पृ 134
25.प्रेम(कविता)मदनमोहन पाण्डेय :युगीन काव्या,जन.-मार्च 2011,पृ. 50
26.पाप और प्रायश्चित:बलराम:सौ श्रेष्ठ लघुकथाएं:सं.चेतन दुबे अनिल ,पृ. 68
27.दहशत:अशोक भाटिया:अस्तित्व,नवंबर 87 (सं.श्यामसुन्दर दीप्ती),पृ. 12
28-संवादहीन:बलराम अग्रवाल:कितनी आवाजें(सं.हीरालाल नागर,विकेशनिझावन) पृष्ठ 96
29.वह:सतीश दुबे:बूंद से समुद्र तक
30.एक शायर की मौत:प्रियंवद:स्वरों का आक्रोश:सं.हरनाम शर्मा पृ. 37
31.डबल बैड:दिनेश पालीवाल:निर्वाचित लघुकथाएं:सं.अशोक भाटिया,पृ.210
32.सरस्वती पुत्र:जगदीश कश्यप:जनगाथा .ब्लॉगस्पॉट.कॉम से
33.कितना प्यार:माधव नागदा:आग(लघुकथा संग्रह) पृ.51
34.उस पार:वही, पृ. 44
35.वसुधैव कुटुम्बकम् पृ. 31
36.शिखर:वही पृ. 86
37-लघुकथाडॉट कॉम- अक्तुबर 2011
38.असभ्य नगर लघुकथा संग्रह)- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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माधव नागदा
गां.पो.:लालमादड़ी (नाथद्वारा)
पिन:313301(राज.)
मोब.09829588494

 
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