लघुकथाकार समय, समाज और यथार्थ को महत्व नहीं दे रहे :डॉ. दुबे
डॉ. तारिक : आप एक लम्बे समय से साहित्य सृजनरत हैं, किन्तु आपके लेखन की वजहें कौन सी हैं? प्रेरणा स्रोत कौन रहे? हमें बताना चाहेंगे?
डॉ. सतीश दुबे : जन्म देने के पश्चात माँ मुझे छोड़कर कब चली गई, पता नहीं। माँ कैसी थी, यह जिज्ञासा या बचपन में माँ की गोद नहीं मिलने की टीस अब तक कायम है। मैंने अपनी इसी व्यथा को अपने दूसरे लघुकथा संग्रह के समर्पण में ‘‘जन्मदात्री तुम कैसी थी?’’ शब्दों में व्यक्त कर, जीवन के सूनेपन की लम्बी कहानी व्यक्त की है। बहरहाल, माँ के प्यार-दुलार से वंचित बचपन ,पिताजी की दोहरी जिम्मेदारी में बीता। प्रथम लघुकथा-संग्रह ‘‘सिसकता उजास’’ पिताजी को समर्पित कर लघुकथा-संसार में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। वे पैतृक कस्बा हातोद छोड़, जागीरदार की मिल्कियत वाले मालवा के ही एक गाँव फुलान में दीवान थे। हमारे क्वार्टर के सामने लम्बे-चौड़े परिसर में जागीरदार की विशाल कोठी थी। यह स्वतन्त्रता संग्राम के अंतिम वर्षों का समय था, संभवतः इसलिए जागीरदार-परिवार इन्दौर की ‘सन्तोष कुटी’ में शिफ्ट हो गया था। समझ के कपाट और आँखें खुलने वाले बचपन को इस क्षेत्र में रहते हुए जो देखने को मिला, वह था- गाँवों की संरचना, वहाँ के लोग, अभाव, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, आस्था, प्रकृति के उपादानों के साथ ही जागीरदारी के उपयोग हेतु कौड़ी मूल्यों में तुलते घी के डिब्बे, अहलकारों के लिए लकड़ी चीरते, कंडील चिमनी साफ करते छोटे गरीब किसान-मजदूर और कर्ज नहीं चुका पाने की स्थिति में, सरे बाजार हरी कामड़ियों से पीटे जाते थरथराते कर्जदार...।
बालमन पर गहरा असर डालने वाले ऐसे प्रसंगों, दृश्यों, घटनाओं और पात्रों ने लेखन के लिए कलम थामने पर उनके अर्थों को परिभाषित करने का अवसर दिया। प्रेरणा के इन स्रोत बिन्दुओं ने जहाँ विषय दिए वहीं पिताजी के आध्यात्मिक-लेखन ने लेखकीय-संस्कार। छह वर्ष की वय में इन्दौर आने पर, घर आने वाली पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने का अवसर मिला। और यूँ पत्रिकाओं से पुस्तकों की ओर रुझान बढ़ा। बांग्ला उपन्यास अनुवाद माध्यम से पढ़े और इसके साथ ही प्रेमचंद, यशपाल और उनकी परम्परा के लेखकों को।..... मेरे खयाल से इस अपर्याप्त को ही पर्याप्त मान लेना चाहिए।
डॉ. तारिक : मूलतः आप किस विधा में लेखन करते हैं और क्यों?
डॉ. सतीश दुबे : मैं लेखन को शब्दों की आराधना मानता हूँ, इसीलिए अपनी अभिव्यक्ति के लिए मैंने किसी विधा-विशेष की बागड़-बंदी नहीं की। लेखन का स्वरूप अन्तर्वस्तु के अनुरूप हो, यह कोशिश रहती है। दरअसल हकीकत तो यह है कि मैं लिखता नहीं हूँ, बल्कि अपने ही इर्द-गिर्द का जीवन, उससे जुड़े लोग, देखे-भाले अप्रत्याशित या संभावना-सोच से परे अनुभव मुझे लिखने को मजबूर करते हैं। मैं चाहता हूँ मेरा लेखन मनुष्य-जीवन और अपने समय के यथार्थ से सम्बद्ध हो।
ऐसे विषय जो सोच के पर्दे पर उभरकर लुप्त हो जाते हैं, जिनसे व्यक्ति, समय या परिस्थितियों के चरित्र या स्थितियों को उस क्षण-विशेष की घटना, भाव या विचार के माध्यम से जानने का अवसर मिलता है तब मैं लघुकथा केा अपनी रचना प्रक्रिया के सच्चे साथी की तरह याद करता हूँ और इसी सन्दर्भ में विस्तृत फलक की जरूरत होने पर कहानी तथा उपन्यास को।
डॉ. तारिक : आप लेखन के साथ 1981 से अनवरत एक दशक तक प्रकाशित लघुकथा की सम्पूर्ण पत्रिका (लघु) आघात से बतौर प्रधान सम्पादक जुड़े रहे हैं। उस समय और वर्तमान की लघुकथाओं में क्या अन्तर महसूस करते हैं?
डॉ. सतीश दुबे : सामान्यतः कुछ नहीं। वही पुरानी ढपली और राग। जीवन और समय में जिस तेजी के साथ बदलाव आ रहा है, उस रफ्तार की चौखट पर खड़ी लघुकथा अपने नये स्वरूप की प्रतीक्षा कर रही है। आज अनेक समस्याएँ हमारे सामने प्रकट रूप में उपस्थित हैं, फिर क्यों वो विचार और कल्पनाएँ लघुकथाओं में नहीं मिलती जो इसे दूसरी विधाओं के समक्ष चुनौती रूप में रख सकें।
लघुकथा संसार चुप है, ऐसा नहीं। सुकेश साहनी/रामेश्वर काम्बोज, लघुकथा डाट काम के जरिए, पंजाबी पत्रिका ‘मिन्नी’, अ.भा. प्रगतिशील लघुकथा मंच पटना, अ.भा. लघुकथा परिषद, जबलपुर प्रतिवर्ष अ.भा. स्तर के लघुकथा सम्मेलन आयोजित कर तथा डॉ. कमल चौपड़ा वार्षिकी ‘संरचना’ प्रकाशन के माध्यम से इसी सन्दर्भ में प्रयासरत हैं। किन्तु इन प्रयासों के वैचारिक मंथन को ‘‘फालोअप’’ करने के लिए समर्पित रचनाकारों के चेहरे सामने नहीं आते। परम्परागत उत्सवधर्मिता ‘‘चैटिंग-इटिंग’’ तथा लेखकीय अहंतुष्टि की भावना से परे जरूरी है कि रचनाधर्मी या विधा के लिए कुछ कर गुजरने की सोच रखने वाली हस्तियाँ इस ओर पहल करें। पंजाबी-हिन्दी भाषायी सेतु ‘मिन्नी’ के वार्षिक सम्मेलन के अन्तर्गत रात्रिकालीन तीसरे सत्र में लघुकथा पाठ, उस पर आलोचनात्मक टिप्पणी तथा विधा में नए आयाम पर विचार विमर्श का आयोजन होता है। वैसे निरन्तर प्रयास हिन्दी भाषी क्षेत्र में होना चाहिए। तमाम ऐसी अन्य बातों के साथ महत्त्वपूर्ण यह है कि रचनाकार, कथा-विधा की धारा का प्रवाह जिस रूप में जारी है, उसका सूक्ष्म अवलोकन कर स्वयं अपने अन्दर कार्यशाला आयोजित कर लघुकथा-सृजन को सतही नहीं, गम्भीरता से ले तथा नए सृजनात्मक आयाम प्रदान करे। हाँ, और अंत में यह कि पिछले दशक में नए-पुराने कई लघुकथा-लेखकों की ऐसी रचनाएँ निश्चित आई हैं, जिन्हें आप अपने प्रश्न की तसल्ली के लिए देख सकते हैं।
डॉ. तारिक : वर्तमान समय में लघुकथा-लेखन के समक्ष कौन-सी चुनौतियाँ मौजूद हैं? वे सब जो वर्षाें से चली आ रही हैं। कृष्ण कमलेश ने इस विधा के लिए अनेक प्रयास किये थे, जिन्हें भुला दिया गया है। क्या यह उचित है?
डॉ. सतीश दुबे : इस सन्दर्भ में कृष्ण कमलेश के साथ ही जगदीश कश्यप, रमेश बतरा, महावीर प्रसाद जैन जैसे मस्तिष्क में उभरने वाले नाम हैं। नींव के इन नायकों को भुलाया नहीं, इग्नोर किया जा रहा है और उनके स्थान पर अपनी कलम से स्वयं के लिए वरिष्ठ/प्रख्यात पुरोधा जैसे विशेषण जोड़ने वालों की स्थापना मुहिम जारी है।
प्रसंगवश, इन नामों के साथ ‘कामों’ पर टिप्पणी करने का अर्थ होगा, किसी ख्यात व्यक्ति की वजह को याद करना। कृष्ण कमलेश वह शख्सियत है जिसने सातवें दशक में ‘अन्तर्यात्रा’ निकालकर लघुकथा-लेखन का माहौल बनाया, ‘कथाबिम्ब’ तथा ‘युगदाह’ के लघुकथा विशेषांक कमलेश के अनुभवों की ही देन हैं, लघुकथा के मुत्तालिक उनकी अनेक विशेष टिप्पणियों को देखा जाना इतिहास से गुजरना है। शकुन्तला किरण को लघुकथा पर शोधकार्य तथा पुष्पलता कश्यप को आलेख तथा लघुकथा लिखने की प्रेरणा इसी शख्स से मिली। एकल लघुकथा संग्रह की परम्परा में मेरे ‘सिसकता उजास’ के बाद कृष्ण कमलेश का ‘मोहभंग’ आया, फ्लैप पर जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा, विष्णु प्रभाकर जी ने की। जगदीश कश्यप की व्यक्तिगत नकारात्मक भंगिमा को नजरअंदाज कर उन कार्यों को याद करना चाहिए, जो उन्होंने लघुकथा की विधागत स्थापना के लिए मृत्युपर्यन्त किए। पुरानी पोथियों को खगालकर वैदिक-काल से आठवें दशक तक लघुकथा के विकास का इतिहास सर्वप्रथम जगदीश कश्यप ने लिखा। कालांतर में इस प्रकार के कार्यों को इसी की छवि माना जाना चाहिए। ‘मिनीयुग’ पत्रिका के लघुकथा स्तम्भ पर विशेष टिप्पणियों के साथ रचनाकार-रचना की प्रस्तुति, महावीर जैन को साथ में लेकर ‘समग्र’ लघुकथा-विशेषांक का सम्पादन, कालान्तर में विशेषांक की सामग्री को ‘छोटी-बड़ी बातें’ शीर्षक से पुस्तकाकार में प्रकाशन, पुस्तक की संकलित कुछ लघुकथाओं पर लघुकथा-लेखकों से इतर अवध नारायण मुद्गल की टिप्पणियाँ, जैसी योजनाओं को अंजाम देना इनकी विशेष देन है। जगदीश कश्यप जितने अच्छे लघुकथा-समालोचक रहे उतने ही रचनाकार। इस सन्दर्भ में उनके संग्रहों को देखा तथा उनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। श्रेष्ठ लघुकथाओं को प्रकाश में लाने के लिए उनकी सजगता को उनके सम्पादन में हाल ही में प्रकाशित संकलन ‘बीसवीं सदी की लघुकथाएँ’ में देखा जा सकता है। लघुकथा आन्दोलन की प्रथम पंक्ति में रमेश बत्तरा का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। रमेश भाई ने कथ्य और्र शिल्प के स्तर पर लघुकथा को नई भंगिमा प्रदान करने के साथ ‘सारिका’ के उपसम्पादक के नाते लघुकथा को विस्तृत आकाश प्रदान किया। उन्होंने सहज भाव से देश के समस्त श्रेष्ठ रचनाकारों से समय-समय पर व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित कर उनकी लघुकथाओं को ‘सारिका’ में स्थान दिया। वे ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने मैत्रीभाव से अधिक रचनाभाव को महत्त्व देने की परम्परा कायम की। लघुकथा की रचनात्मकता पर टिप्पणियाँ, लघुकथा-आयोजनों, गोष्ठियों आदि से सम्बन्धित रपट का नियमित प्रकाशन तथा लघुकथा को हाशिए की अपेक्षा सम्मानजनक स्थान ‘सारिका’ में देकर अन्य पत्रिकाओं के समक्ष मिसाल कायम की। ‘सारिका’ का लघुकथा विशेषांक निकाले जाने सम्बन्धी कमलेश्वर जी की मंशा को रमेश बत्तरा ने अंजाम दिया। इस विशेषांक में लघुकथा-विषयक सामग्री तथा शताधिक लघुकथाएँ प्रकाशित कर, साहित्य और पाठकों के खेमों को कथा विधा की इस सबसे छोटी सहचरी की शक्ति और अहमियत से परिचित कराया।
डॉ. तारिक : अभी जो लघुकथाकार हैं, वे ही लघुकथा की आलोचना-समीक्षा का भी निर्वाह कर रहे हैं, फलतः वे जिसे चाहते हैं उसकी रचना को श्रेष्ठ, कालजयी और विभिन्न उपाधियों से विभूषित करने में नहीं चूकते, जबकि उनकी रचनाएँ ही रचनात्मक-स्तर पर अनेक खामियों से भरी होती हैं। इस सम्बन्ध में आप क्या कहेंगे?
डॉ. सतीश दुबे : लघुकथा विधा से सम्बद्ध प्रत्येक समर्पित सृजनधर्मी इस प्रवृत्ति से आहत है। अभी नहीं, यह सब लघुकथा को पाठक एवं साहित्य-जगत से विधा का विशिष्ट दर्जा प्राप्त होने के बाद से जारी है। मैंने इस मुद्दे पर इन्दौर से प्रकाशित ‘नई दुनिया’ में एक आलेख लिखा था- ‘लघुकथा को दरकार है तटस्थ समीक्षकों की’। क्या इस मनोवृत्ति से लघुकथा के विकास और रचनात्मक-स्वरूप का सही मूल्यांकन हो रहा है? आप हम कुछ कहें, इसकी बजाय लघुकथा के ‘रामचन्द्र शुक्लों’ ने आत्ममंथन के जरिए स्वयं तय करना चाहिए। मैं अनुभव कर रहा हूँ कि क्षेत्रीयता ही नहीं, क्षेत्रीयता में भी छोटे-छोटे द्वीप बने हुए हैं, बन रहे हैं।
इस लेखन से जुड़ने वाले किसी भी उम्र के कुछ नए रचनाकार, गुणात्मक तथा निरंतर सृजन की अपेक्षा, विधा में अपनी स्थापना के लिए जोड़-तोड़ में जुटे हुए हैं। बाजारवादी सूत्रों को अपनाकर कम पूँजी में अधिक लाभ की नीति इन्हें मानक हस्ताक्षर तथा रचनाएँ उद्धरणीय बनने लगी हैं। नए-पुराने ऐसे पुरोधाओं के प्रशस्ति गान में लघुकथाकार-समीक्षक ही नहीं अकादमिक विद्वान भी सम्मिलित रहे हैं।
मेरे अर्न्तमन की पीड़ा से निःसृत इस टिप्पणी का आशय व्यक्ति या व्यक्तियों की ओर नहीं, प्रवृत्ति की ओर संकेत करना है। लघुकथा विधा के लिए समर्पित हर सृजक इस मुद्दे पर गहरे से सोचे, यह अपेक्षा करना गैर-मौजूं नहीं होगा। इस मुद्दे पर गहरे से चिन्तन करना इसलिए ज़रूरी है कि आज लघुकथा संसार बहुत व्यापक है। उस संसार की चौकस-दृष्टि के मद्देनज़र समालोचक अपनी लेखकीय-नीति निर्धारित करें। संदेश यह जाना है कि लघुकथा के हर पक्ष में गहराई और सोच में तरलता है। समालोचक विधा का निर्माता माना जाता है, इसलिए उसकी छवि निर्माणकर्ता की हो, विध्वंसक की नहीं।
डॉ. तारिक : आपकी दृष्टि में लघुकथा में किन-किन तत्वों का होना अनिवार्य है? ऐसे कुछ लेखकों के नाम बताइए, जिनकी रचनाएँ आपको पठनीय लगती हैं।
डॉ. सतीश दुबे : लघुकथा, कथा विधा का संक्षिप्त-अभिव्यक्ति माध्यम है। ज़रूरी है कि इसकी सम्प्रेषणीयता, कथा का आस्वाद कराए। रचनाकार की शैली-क्षमता तय करती है कि कथ्य के अनुरूप गठन कैसे किया जाय। जाहिर है लघुकथा में कथ्य प्रमुख है और उसके अनुरूप पात्र, भाषा-शैली, संवाद, चरित्र-चित्रण तथा उद्देश्य।
अब तक कई लघुकथाएँ पढ़ी हैं। अनेक रचनाकर इसमें निरन्तर सृजन कर रहे हैं। नए लोग जिनसे पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से रू-ब-रू होने का अवसर मिलता है, लघुकथा को वे सतही नहीं गम्भीरता से ले रहे हैं। ऐसे माहोल में ‘कुछ लेखकों’ के नाम गिनाना मुश्किल है।
डॉ. तारिक : कुछ लोग अपने आलेखों में अपने मित्रों और शुभचिन्तकों के नाम गिनाने में खासे व्यस्त हैं। उनकी नज़र में वे ही महान हैं? इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?
डॉ. सतीश दुबे : यदि ऐसा है तो इसे साहित्यिक-धर्म नहीं, ‘अहो रूपं अहो ध्वनि’ की कूपमंडूक मानसिकता से ग्रस्त साहित्य का बाजारवादी राजनीतिकरण माना जाना चाहिए।
डॉ. तारिक : आपने कई विधाओं में सक्रिय लेखन किया है किन्तु सर्वाधिक संतुष्टि और सफलता किस विधा में मिलती है?
डॉ. सतीश दुबे : सफलता हर विधा में और संतुष्टि कथा-विधा में।
डॉ. तारिक : कुछ लोग लघुकथा को दोयम दर्जे का और कुछ हद तक चुटकुलों से अलग मानते हैं? बावजूद इसके हंस, नया ज्ञानोदय, पाखी से लेकर दैनिक समाचार-पत्रों में लघुकथाएँ छापते हैं? इससे वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं?
डॉ. सतीश दुबे : जाहिर है वे लघुकथा को दोयम दर्जे का नहीं, साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं। आपने देखा होगा ये प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ लघुकथा का सम्मान के साथ प्रकाशन ही नहीं, उन पर पाठकों से प्राप्त प्रतिक्रियाएँ भी प्रकाशित करती हैं। डॉ.शोभनाथ यादव मुंबई से प्रकाशित ‘प्रगतिशील आकल्प’, टैबलाइज्ड साहित्यिक पत्र में एक रचनाकार की लघुकथाएँ पूरे पृष्ठ पर सपरिचय प्रकाशित करते हैं। इन पत्र-पत्रिकाओं के इस अवदान की वजह से लघुकथा की रचनात्मकता पर उठने वाली उँगलियाँ अब लड़खड़ाने लगी हैं।
डॉ. तारिक : आपकी नज़र में आपकी बेहतरीन लघुकथाएँ कौन सी हैं? कुछ एक नाम बताइए।
डॉ. सतीश दुबे : लघुकथाएँ : संस्कार, फैसला, योद्धा, वादा, अंतिम सत्य, सल्तनत कायम है, शैतान, अहसास, बंदगी, विनीयोग, पासा, भीड़, रीढ़, पाँव का जूता, शिनाख्त, तलाश, भीड़ में खोया आदमी, रिश्तों की सरहद, सुहाग का चूड़ा, शिष्यत्व, फीनिक्स, फैसला, झंझट, जल्लाद, बंदगी, कागज की आग, बाबूजी, नश्तनू, आकांक्षा, बौना आदमी, संजीवनी, अतिथि, चौखट, बहिष्कार, बर्थ डे गिफ्ट, बरकत, जिन्दगी, क्यों, ड्रेस का महत्व, बहुरुपिए, धरमभाई, गब़रू चरवाहा, अर्थ, दिन, स्टैच्यू, धर्मनिरपेक्षता, पेड़, तपस्वी, जाजम, एषणा, अनुभव, कौए, रिटायरमेन्ट, फूल। (सन् 2011 में प्रकाशित ‘बूँद से समुद्र तक’ में संकलित 21 वीं सदी की लघुकथाएँ इसमें सम्मिलित नहीं हैं।)
डॉ. तारिक : आज जिस तरह की लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं, क्या वे आपने समय और समाज को सही अंदाज में पेश करने में समर्थ हैं? यदि नहीं तो क्यों?
डॉ. सतीश दुबे : प्रत्येक रचनाकार अपने परिवेश और अनुभवों से सामान्य से इतर कथ्य बटोरकर उसे रचनात्मक आकार देता है। तय है हर लेखक की सूक्ष्म दृष्टि अन्तर्वस्तु का बीज रूप में चयन करती है। बावजूद इसके बदलाव की दस्तक से समूचा भू-भाग समान रूप से प्रभावित होता है। यह बदलाव ही अपने समय का यथार्थ है। अधिकतर लघुकथाकार, लेखन को गम्भीरता की अपेक्षा सतही-सपाट रूप में ले रहे हैं। उनके विषय अपने हैं पर उनमें ताज़गी नहीं है। शायद वे समय, समाज और यथार्थ जैसे शब्दों को उतना महत्व नहीं देते, जितने स्कोर बनाने वाले फटाफट लेखन को।
डॉ. तारिक : लेखन के प्रारम्भिक दौर में आपने किस विधा को तरजीह दी थी... और क्यों?
डॉ. सतीश दुबे : लिखने की मनःस्थिति बनते ही सबसे पहले व्यंग्य पर कलम चलाई। 1960 में नोंकझोंक, सरिता और जागरण में कुछ महीनों के अन्तराल से व्यंग्य रचनाएँ प्रकाशित हुई। इसके बाद रामावतार चेतन की पत्रिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान तथा अन्यत्र प्रकाशन शुरू हुआ। यही वह समय था जब मैंने सर्वप्रथम व्यंग्य के धरातल पर लघुकथा के प्रारूप को तराशने की कोशिश की।
इस शहर से प्रकाशित साप्ताहिक ‘लाल भारत’ में अस्सी के अंतिम दशक के कुछ वर्षों तक तत्कालीन स्थितियों पर ‘राम झरोखा बैठिके सबका मुजरा लेय’ स्तम्भ से जुड़ने का मौका मिला। कालांतर में व्यवस्थित व्यंग्य लेखन भले ही छूट गया हो, लेकिन मेरे हर प्रकार के कथा-लेखन में अन्तर्धारा के रूप में आज भी मौजूद है और इसे मित्रों तथा पाठकों के साथ मैं अपने लेखन की शक्ति मानता हूँ।
[अविराम साहित्यिकी के जनवरी-मार्च 2012 से साभार एवं सम्पादित ]
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