हिंदी में पहली लघुकथा किसने लिखी, कब लिखी, यह बहस का विषय रहा है। लेकिन सचेत रूप में लघुकथा के नाम से इस विधा में रचनाएँ बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में ही लिखी गईं। स्वतंत्रता के बाद के हालात (खासकर समाज में फैली विसंगतियों तथा राजनैतिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार) इस विधा के उद्भव के मुख्य कारणों में से हैं। मुल्क की आज़ादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी का लघुकथा के विकास में विशेष योगदान रहा है। यह विधा पिछली सदी के आठवें व नवें दशक में बहुत चर्चित हुई और इसने एक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। पत्र–पत्रिकाओं ने इसे अपने पन्नों पर सम्मानजनक स्थान दिया। लघुकथा की पत्रिकाएँ अस्तित्व में आई। अनेक पत्रिकाओं ने अपने लघुकथा विशेषांक प्रकाशित किए। विशेषांक प्रकाशित करने वाली पत्रिकाओं में सारिका तथा गंगा जैसी व्यवसायिक पत्रिकाएँ भी शामिल थीं। ऐसी परिस्थितियों में लघु–पत्रिकाओं व समाचारपत्रों में लघुकथाओं का प्रकाशित होना बहुत कठिन कार्य नहीं रहा। इस विधा के लघु आकार को देखकर बहुत से लोगों ने इसे लेखक बनने का शार्टकट रास्ता मान लिया। तभी तथाकथित लेखकों की एक भीड़ एकत्र हो गई जिसने लघुकथा को प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कुछ लेखकों ने पैसे के बल पर अपनी पत्रिकाएँ निकालीं तथा अपनी बेहूदा रचनाएँ प्रकाशित कर साहित्य के इस क्षेत्र में जबरन धाक जमाने व मसीहा बनने के प्रयास किए। इस भीड़ ने लघुकथा का बहुत अहित किया और विधा के लिए कठिन परिस्थितियाँ पैदा कर दीं। इन्हीं विपरीत परिस्थितियों में कई ऊर्जावान् व समर्थ लेखक लघुकथा–लेखन से तौबा कर गए।
लघुकथा लेखकों की भीड़ के तितर -बितर हो जाने पर बहुत कम लेखक ऐसे बचे जिन्हें लघुकथा की शक्ति में पूरा विश्वास था। वे पूरे सामर्थ्य व निष्ठा से लघुकथा की विकास–यात्रा में डटे रहे। पंजाब जैसे अहिंदी–भाषी राज्य में ऐसे लेखकों की संख्या हाथों की कुल उंगलियों जितनी भी नहीं रही। इन शेष बचे लेखकों में डा. सुरेन्द्र मंथन का नाम सम्मान से लिया जाता है। प्रादेशिक व राष्ट्रीय स्तर पर उनकी साहित्यिक पहचान है। डा. सुरेन्द्र मंथन ने अपने लेखन की शुरूआत वर्ष 1961 में लघुकथा एवं कहानी से एक साथ की। उनकी दो लघुकथाएँ उसी वर्ष एक दैनिक में प्रकाशित हुई। इस बीच उनका अधिक ध्यान कहानी–लेखन पर केंद्रित रहा। वर्ष 1972 में लघुकथा विधा के प्रबल समर्थक एवं नामवर लेखक रमेश बतरा के सम्पर्क में आने पर उन्होंने फिर लघुकथा लेखन की ओर रुख किया। फिर उन्होंने नियमित रूप से लघुकथाएँ लिखीं। हिंदी साहित्य में ऐसे लेखक बहुत कम मिलेगे ;जिन्होंने पूर्ण रूप से कहानी–लेखन में जुटने के पश्चात् लघुकथा–लेखन की ओर वापसी की हो। मेरे विचार में ऐसा इसलिए भी है कि कहानी–लेखन, लघुकथा–लेखन से बहुत भिन्न है। कहानी की तुलना जहाँ हम आठ सौ मीटर से लेकर पाँच किलोमीटर की दौड़ से ही की जा सकती है। सौ मीटर की दौड़ कठिन होती है। किसी भी धावक के लिए लंबी दौड़ व सौ मीटर की दौड़, दोनों में महारत हासिल करना लगभग असंभव ही माना जाता है। डा. मंथन लिखते हैं कि लघुकथा मंद–मंद बहती सरिता नहीं, पहाड़ी झरना है।
लघुकथा लेखन में सुरेन्द्र मंथन की गति सदा एक जैसी नहीं रही। यह गति अधिकतर मंद ही रही है। कई बार तो उन्होंने वर्ष भर में एक दो रचनाएँ ही लिखीं। रचना की विषयवस्तु, लेखक की दृष्टि तथा उससे सम्बंधित विचार मिलकर ही रचना को जन्म देते हैं। रचना कागज़ पर उतरने से पहले लेखक के मस्तिष्क में चल रही रचना–प्रक्रिया की आग पर पकती है। यही रचना–प्रक्रिया हैं रचना के लिए विषयवस्तु तो इस संसार में विचरते हुए पता नहीं कब कहाँ मिल जाए। लेकिन इसका मिलना वैसा ही होता है ,जैसे अँधेरे में पैर तले बटेर आना। वर्ष में कभी एक या दो आ जाएँ, कभी आठ–दस और कभी एक भी नहीं। सुरेन्द्र मंथन के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा। कोई परिस्थिति या घटना जब तक लेखक को लिखने के लिए बेचैन न करे, वह कच्चा माल रचना–प्रक्रिया की अग्नि पर रखी हांडी में ठीक से पके नहीं, श्रेष्ठ रचना का रूप धारण नहीं कर पाती। सुरेन्द्र मंथन के मस्तिष्क में भी रचनाएँ महीनों या फिर वर्षों तक इस रचना–प्रक्रिया से गुज़री होंगी। सुरेन्द्र मंथन का प्रथम लघुकथा–संग्रह घायल आदमी 1984 में प्रकाशित हुआ था, यानि पहली रचना लिखने के 23 वर्ष बाद। और अब यह दूसरा लघुकथा–संग्रह पहल संग्रह के 23 वर्ष बाद आ रहा है। इससे यही पता चलता है कि छपास का उतावलापन सुरेन्द्र मंथन के स्वभाव में नहीं है।
लघुकथा की संक्षिप्त–सी परिभाषा देनी हो तो इसमें इसके नाम वाले दो तत्त्व लघु तथा कथा अवश्य ही होने चाहिए। इस संग्रह की लगभग सभी रचनाएँ लघुकथा विधा की इस संक्षिप्त परिभाषा पर एकदम खरी उतरती हैं। सुरेन्द्र मंथन ने इस विधा में लघुता के महत्त्व को बखूबी एवं सही परिप्रेक्ष्य में समझा है। उन्हें पता है कि लघुता का अर्थ कदापि एक–दो पंक्तियों वाली रचना नहीं है। उन्होंने रचनाओं में सपाटबयानी से बचने का भरसक प्रयास है।
सुरेन्द्र मंथन का कार्यक्षेत्र अध्यापन का रहा है। उन्हें शिक्षा जगत का गहरा अनुभव तो है ही, साथ ही उनके पास अन्य क्षेत्रों से संबंधित अनुभव–सम्पन्न दृष्टि है। मनुष्य के मन के भीतर देखने की उनकी दृष्टि कैमरे जैसी है। उनकी दृष्टि समाज में फैली विसंगतियों, साम्प्रदायिकता,पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बंध, भ्रष्ट प्रशासन, तिकड़मबाज़ राजनीति और खोखली अर्थव्यवस्था पर भी पड़ी है। उन्होंने छोटी–छोटी घटनाओं को आधार बनाकर अनेक विषयों पर कलम चलाई है।
इस संग्रह की लघुकथाएँ पढ़ते वक्त बहुत साधारण–सी नज़र आती हैं। कई बार तो लेखक की उँगली थामे रचना में आगेग बढ़ रहा पाठक नीरसता महसूस करने लगता है। वह अनमना–सा ही रचना के अंत तक पहुँचता है। रचना के अंतिम वाक्य तक पहुँचने पर उसे जो झटका लगता है, उससे वह सन्न रह जाता है। वह फिर से रचना के शीर्षक की ओर नज़र दौड़ाने को विवश हो जाता है। रचना के शीर्षक एवं समापन बिंदु के उपकरणों के प्रयोग में सुरेन्द्र मंथन जैसी कलात्मकता एवं कुशलता अन्यत्र कम देखने को मिलती है। रचना का समापन बिंदु पढ़ने के बाद पाठक पुन: रचना के शीर्षक की ओर नज़र दौड़ाता है, तब उस रचना के कथ्य का संप्रेषण हो जाता है। इसे लेखक का विशेष कौशल ही माना जाएगा। लघुकथा सरीखी लघु आकारीय रचना में शीर्षक का कितना महत्त्व है, यह सुरेन्द्र मंथन की लघुकथाओं से पता चलता है।
इस संग्रह की सभी रचनाओं पर चर्चा करना न तो संभव है और न ही वांछनीय। अत: लेखक की कुछ चुनिंदा रचनाओं पर अपने विचार रखना चाहूँगा। राजनीति के विषय पर लेखक ने खुलकर लिखा है। राजनीतिज्ञों के चेहरों पर से नकाब हटाते हुए उनके दुष्कृत्यों को उजागर किया है। राजनीति इस विषय पर लेखक की पहली रचनाओं में से है, लेकिन मेरी नज़र में यह श्रेष्ठ रचना है। यही वह रचना है जिससे मैंने वर्ष 1981 में अनुवादक के रूप में अपना सफर शुरू किया था। मानवेतर पात्रों के माध्यम से लेखक नसे इस कथ्य का संप्रेषण सफलतापूर्वक किया है कि राजनीतिज्ञ बहुत अड़ियल, स्वार्थी और चालबाज़ होते हैं। उनके लिए किए गए वायदे का कोई महत्त्व नहीं होता। रचना में पहली बकरी बैठ जाती है ताकि संकरे पुल से दूसरी बकरी उसके ऊपर पैर रखकर गुज़र सके। ऐसा करने का सुझाव भी उसका ही था। लेकिन जैसे ही दूसरी बकरी अपना पैर उसकी पीठ ऊपर रखती है, पहली खड़ी हो जाती है। संतुलन बिगड़ जाने से दूसरी बकरी धड़ाम से नीचे गंदे नाले में गिर जाती है। पहली बकरी को अपने दुष्कर्म एवं वायदा खिलाफी पर थोड़ा–सी भी अफसोस नहीं होता। वह मुस्कराती हुई, छाती तानकर, पुल पार करती है। राजनीति विषय पर ही सिफारिश, सत्ताधीश एवं चोर की जूती आदि रचनाएँ प्रशंसनीय बन पड़ी हैं। चोर की जूती बिल्कुल अलग तरह की रचना है, जिसमें लेखक यह संदेश देने में सफल रहा है कि हम कितने ही चतुर बनें, राजनीतिज्ञों से ठगे तो हम ही जाते हैं। हम जाने–अनजाने उनके प्रचार–प्रसार में भागीदार बन जातें हैं। सत्ताधीश में बाँटो और राज करो की नीति का कथ्य बखूबी उजागर हुआ है।
पाठक रचनाओं के माध्यम से ही लेखक व उसके विचारों से परिचित हाता है। इस संग्रह में सम्मिलित रचनाएँ आहत राष्ट्र तथा हरियाली पढ़कर पाठक सहज ही यह जान लेता है कि रचनाकार सुरेन्द्र मंथन स्वदेशी व आत्मनिर्भरता के कितने प्रबल पक्षधर हैं। हरियाली में संकेतों के माध्यम से रचनाकार यह संदेश स्पष्टता से दे रहे हैं कि विदेशी वस्तुओं का प्रयोग हमारे देश की आर्थिकता की नींव को खोखली कर देगा। फिर हमारी स्थिति डांवाडोल होते देर नयहीं लगेगी। कमोबेश इसी स्थिति का प्रकटीकरण लघुकथा आहत राष्ट्र में हुआ है। उनके विचार में देश को अपने सहारे खड़ा होना चाहिए।
सुरेन्द्र मंथन ने अपनी कुछ रचनाओं में व्यक्ति के मन के बीच झांकने तथा उसकी मानसिकता का कलात्मक चित्रण करने का प्रयास किया है। चोट खाया आदमी में पत्नी की बेवफाई से परेशान, भीतर से खोखला हो चुका डाक्टर, नशों से शक्ति ग्रहण कर स्वयं को शक्तिशाली दर्शाने का प्रयास करता है। जिंदा मैं में प्रशासन अथवा समाज में शक्ति–प्राप्त व्यक्तियों द्वारा कमजोर अथवा शांत व्यक्ति को दबाने या झुकाने की प्रवृत्ति को उजागर किया गया है। शोषण होता रहेगा का स्पष्ट संदेश देती है यह रचना। इस संग्रह में शामिल रचनाएँ बनियान, प्रतीक्षा, फिर से कहना तथा चाल मनोविज्ञान के विषय से सम्बंधित वर्णन योग्य रचनाएँ हैं।
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