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अध्ययन-कक्ष - सतीशराज पुष्करणा
लघुकथा : एक शास्त्रीय विवेचन _सतीशराज पुष्करणा
  ‘शास्त्र’ का शाब्दिक अर्थ आदेश,धर्म,दर्शन,विज्ञान,साहित्य,कल आदि सम्बन्धी ग्रंथ जिनके द्वारा मानव समाज तथा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की स्थिति और रक्षा की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शिक्षा मिलती है। शास्त्र से ही ‘शास्त्रीय’ शब्द बना जिसका स्पष्ट अर्थ शास्त्र–सम्बन्धी,शास्त्र सम्मत,शास्त्रानुमोदित इत्यादि है।
‘शास्त्र’ का स्पष्ट अर्थ यह निकलता है कि वैसा ग्रन्थ, जिसके द्वारा मानव–समाज तथा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की स्थिति और रक्षा की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शिक्षा मिलती है। यानी साहित्य, यों भी ‘शास्त्र’ का एक अर्थ ‘साहित्य’ भी है। साहित्य शब्द सहित़+यत् प्रत्यय से बना है। जिसका अर्थ ‘शब्द’ और अर्थ का यथावत् सहभाव यानी साथ होना। इस प्रकार सार्थक शब्द मात्र का नाम साहित्य है। साहित्य की यह परिभाषा अत्यन्त व्यापक है और इसमें मनुष्य की सारी बोधन और भावन चेष्टा समाविष्ट हो जाती है तथा समस्त ग्रंथ समूह ‘साहित्य’ के अन्तर्गत आ जाते है। ‘साहित्य’ मनुष्य के भावो और विचारों की समष्टि है।
‘साहित्य’ चूंकि अत्यन्त व्यापक है अत: इसे लेखकों की रुचि एवं अभिव्यक्ति के कौशल के अनुसार अनेक रूपों में विभक्त कर दिया गया है जिसे ‘साहित्य–रूप’ कहते है। यों वर्तमान में रूप शब्द विधा नाम से अत्यधिक प्रचलित है। अभिव्यक्ति का माध्यम बनी सभी विधाओं को मिला कर ही ‘साहित्य’ कहलाता है।
‘साहित्य’ की यों तो लगभग 60–65 विधाएँ है। किन्तु उपन्यास,कहानी,नाटक,व्यंग्य,कविता,गीत,गजल,संस्मरण,निबन्ध,समीक्षा,सम्पादकीय,साक्षात्कार,परिचर्चा,भूमिका,आत्मकथा,आलोचा,पत्र,डायरी,हाइकु, ताँका, सदोका, लघुकथा इत्यादि विधाएँ पत्र–पत्रिकाओं में बराबर प्रकाशित होने के कारण अपे़क्षाकृत अधिक चर्चित है ।
यहाँ हमारा अभीष्ट ‘लघुकथा’ जिसको हम शास्त्र के निकष पर कसकर यह स्पष्ट करने का प्रयास करेगें कि लघुकथा भी शास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण भाग है।
संस्कृत साहित्य के एक विद्वान साहित्यसेवी मम्मट ने बताया है कि शास्त्र सम्मत वह साहित्य होता है ,जिसकी रचनाओं में सत्य,शिव और सुन्दर हो और गर्व करने योग्य उसकी अपनी परम्परा भी हो। यह निकष आज भी पूर्व की भाँति मान्य है।
लघुकथा का जन्म मानव–जन्म के साथ ही हो गया था ;किन्तु तब यह कथा के रूप में जानी पहचानी जाती थी। इसमें कोई एक व्यक्ति मनगढ़ंत किस्सा कहता था, शेष लोग सुनते थे और आनंद लेते थे। तब आदमी इतना सभ्य नहीं था, सभ्य हो रहा था और जब उसे वेदों की जानकारी होने लगी और उसमें से छोटी–छोटी रोचक कथाएँ सामने आने लगी, तो आनंद के साथ–साथ उसकी जानकारी का दायरा भी बढ़ने लगा। वेदों से ‘यम–यमी’ की कथा बहुत प्रचलित है। अनेक विद्वान इसे पहली कथा मानते है। यहाँ से कथा का विकास अनेक प्रकार से होना प्रारम्भ होता है। भाषा के अभाव में दंत कथाओं के रूप में यह विधा विकास पाने लगी।
जैसे–जैसे मनुष्य विकास पाता गया उसमें सोचने–समझने की शक्ति बढ़ने लगी। इस शक्ति के साथ–साथ उसमें बहस यानी विचार–विमर्श करने की समझ भी पाने लगी। हम जितनी बहस करते हैं ,हमारी विकासोन्मुख परिस्थितियाँ उतनी ही विस्तृत होती जाती है और विस्तृत परिस्थितियों में साहित्यिक मान्यताओं का आधार बहस ही देती है। हम यह भी कह सकते है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज उसका मूलाधार है। समाज से अलग हटकर मनुष्य कुछ भी सोच नहीं सकता। यदि इसे मानव इतिहास की एक सुखद घटना मान लिया जाए तो इसे आकार–प्रकार देने में साहित्य की अनिवार्य भूमिका रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि साहित्य की कल्पना आदिम सभ्यता से जुड़ी हुई है। तब यह सोचना उचित हो जाता है कि साहित्य का प्रारम्भ किन परिस्थितियों में किन–किन जिज्ञासाओं का फलित सकर्मक कारण रहा होगा। आदमी ने कब से और कैसे बोलना सीखा ,इसका अभी तक वैज्ञानिक निराकरण नहीं हो सका है । सब इतना ही जानते है कि आदमी बोलता है और उसका अर्थ आदमी ही जानता है। सही बोलने की प्रक्रिया भाषा को जन्म देकर साहित्य में रूपान्तरित हो गई और यही से साहित्य में आस्तित्व की खोज का पहला दौर शुरू हुआ। यही से ‘सत्यम्, शिवम्,सुन्दरम्’ साहित्य की कसौटी भी बना।
उपयु‍र्क्त कथन के साथ यह महत्त्वपूर्ण है कि दंत कथाओं में कहें गए विचार भाव को प्रतीकात्मक बनाने के लिए जिन–जिन माध्यमों की जरूरत पड़ी वह भी प्रकृति में विचरण करने वाले प्राणी,जो कथाओं के प्रथम पात्र थे। यही प्रेरणा ही आरम्भ में मनुष्य को एक सूत्र में पिरोने लगी थी ;इसलिए आचार–विचार और व्यवहार भी आवश्यक जान पड़ा। इन तीनों को प्रतिबिंबित करने के लिए मनुष्य के अंदर घटने वाली घटनाओं की शरण में जाना तब स्वाभाविक और अनिवार्य हो गया था। इन सारे संर्षों के बाद जो चीज स्थायी रूप से मानव को प्राप्त हुई वो था–‘कथा–सूत्र’ । कथाओं के माध्यम से पशु- पक्षियों के आचरण का सहारा लेकर कथा का प्रचलन आगे बढ़ा।
अब कथा प्राय: एक ही घटना को इंगित करती थी। इस प्रकार की घटना ओं को जिसने अभिव्यक्ति दी वह वर्तमान में लघुकथा के रूप में चर्चित हुई। यह सत्य है कि आरम्भिक अवस्था में इसे हम लघुकथा नहीं कहते थे। संस्कृत –वाङ्मय के आचार्यों ने ऐसी कथाओं को ‘आंख्यायिका’ के नाम से सम्बोधित किया। वैदिक–ग्रंथों से लेकर पौराणिक ग्रंथों तक में इस प्रकार की अनेक कथाएँ मिलती है। इन्हीं के अनुरूप पंचतंत्र,हितोपदेश आदि ग्रंथों में कथाओं की शृंखलाएँ भरी पड़ी है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के वर्तमान काल में इसी विकसित एवं परिष्कृत रूप को लघुकथा की संज्ञा से विभूषित किया गया। समय और परिवेश के अनुसार इसे अपने–अपने अलग–अलग ढंग एंव अंदाज में नये–नये रूप देने के मिले–जुले प्रयास किए गए।
साहित्य–शास्त्र में एक मान्यता है -मनोविज्ञान–साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग है। यह मान्यता नई नहीं, अल्बाा दूसरी व्याख्या नवीन अवश्य है। यों तो प्राय: साहित्य ही मनोविज्ञान पर आधारित है। चूँकि साहित्य का उद्भव कथाओं से होता है और कथाएँ मानवीय मनोवृत्तियों की सफल व्याख्याकार रही हैं। मनोवृत्तियाँ मानसिकता का प्रभावित पक्ष है, अत: साहित्य शास्त्र में कथा का आस्तित्व हर पक्ष से जुड़ा हुआ है। अब यह कहना कि कथा–साहित्य,साहित्य–शास्त्र भिन्न एवं स्वतंत्र साथ है, उचित नहीं ठहरता। यदि किसी प्रसंग में इसे उचित कहा भी जाए तो वह प्रसंग यही होगा कि वर्तमान साहित्य में कथाओं का स्वरूप एक साथ कई–कई घटना ओं को साथ लेकर चलता है और पूरे जीवन या जीवन के बड़े अंश को समेट कर अभिव्यक्त होता है, वर्तमान में उपन्यास कहलाता है। कथा जब दो तीन घटना ओं को लेकर चलती है आदि एक निष्कर्ष पर आकर समाप्त होती है तो वह कहानी कहलाती है। वही जब कोई क्षणिक घटना अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है तो लघुकथा कहलाती है। इससे आज लगभग सारा साहित्य जगत सहमत दिखाई देता है। स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा करती लघुकथा वर्तमान में ऐतिहासिक और क्रान्तिकारी उपलब्धि है।
लघुकथा मात्र भारतीय धर्म ग्रंथों की देन नहीं, अपितु विश्व के प्राय सभी धर्म ग्रंथों‍ में इसके दर्शन होते है। वेद,पुराण,बाइबल आदि को लेकर मिस्त के पिरामिड में अंकित कथाओं और वृत्तान्तों को एक जगह एकत्र कर दे तो सहज ही में कथाओं की सार्वभौमिकता सामने आ जाएगी। ईसप की कथाओं को लेकर कन्फ़्यूशस तक जितनी भी कथाओं की शृंखलाएँ प्राप्त होती है और उसी तरह पुराण काल से लेकर बौद्ध काल तक की कथाओं की जो क्रमिक परम्परा रही है उसके पीछे मानवीय आस्तित्व और इसकी स्वतंत्रता विद्यमान है। अत यह रचना यह कहना कि लघुकथा वर्तमान संदर्भ की उत्पत्ति है ,गलत होगा। लघुकथा न तो वर्तमान की देन है और न ही साहित्य से अलग कोई स्वतंत्र साथ। लघुकथा साहित्य का एक रूप यानी विधा है जिसमें जीवन के सत्य की अभिव्यक्ति की जाती है और ऐसी अभिव्यक्ति जिससे कोई न कोई सकारात्मक मानवोत्थानिक संदेश संप्रेषित होता है।
इस प्रकार यह कहने में किसी को कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि लघुकथा साहित्य का उपन्यास, कहानी आदि की तरह से एक अटूट एवं अभिनय अंग है। लघुकथा साहित्य की शर्तों को पूरी निष्ठा से पूरा करती है।
सभ्यता के निर्माण में धर्म का स्थान सर्वोपरि था, पर ज्यों–ज्यों सभ्यता का विकास होता गया त्यो–त्यों धर्म में समाज शास्त्र की चर्चा शुरू हो गई। समाज शास्त्र की चर्चा के साथ ही अर्थशास्त्र की चर्चा स्वाभाविक रूप से आ गई। जिसमें न्याय, नीति, विज्ञान, कला, आदि प्रमुख सहजता से स्थान प्राप्त करने लगे; क्योंकि यह सारे विषय ही समाज के ही भाग है । इन शास्त्रों को आकार–प्रकार और वाणी देने के उद्देश्य से सर्वप्रथम साहित्य शास्त्रीयों ने अथवा अन्य सामाजिक प्राणियों ने लघुकथा परम्परा को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
अपने इन्हीं गुणों के कारण लघुकथा ने हजारों लेखकों को अपनी अभिव्यक्ति बनने का माध्यम बनने हेतु आकर्षित किया। आज हजारों एकल लघुकथा–संग्रह तथा सम्पादित संकलन भी इतनी ही संख्या में प्रकाशित हो चुके है। सभी प्रयास भले ही सराहनीय न रहे हो किन्तु कुछ ऐसे प्रयास महत्त्वपूर्ण अवश्य हैं ;जिनपर लघुकथा गर्व कर सकती है।
आलोचना के क्षेत्र में लघुकथा अवश्य अभी पीछे है किंतु स्थिति निराशाजनक नहीं है। इस दिशा में भी कार्य हो रहे हैं लघुकथा को दिशा देते सम्मेलन एवं गोष्ठियाँ भी अनेक भागों में हो रही है जिनसे लघुकथा नित्य प्रति विकास की ओर बढ़ रही है। देश के अनेक राज्यों में अनेक विश्वविद्यालयों से लघुकथा पर केन्द्रित दर्जनों शोध कार्य हो चुके है और हो भी रहे है। हिन्दी लघुकथाएँ भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनूदित होकर विश्व की साहित्य प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करने में सफल हो रही है।
लघुकथा डॉट कॉम जैसी पत्रिकाएँ भी विश्व के पाठकों को अपनी गुणवत्ता के कारण लुभा रही है। संरचना एवं हिन्दी चेतना जैसी पत्रिकाएँ इस विधा को निश्चित रूप से एक स्तर प्रदान करने में सार्थक भूमिका का निर्वाह कर रही है। सृजन–संवाद, सरस्वती–सुमन,हरिगंधा के लघुकथांक भी आज लघुकथा के महत्त्व को प्रत्यक्ष करने के सार्थक कार्य है।
विगत पाँच दशकों में अनिगिनत महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं एवं समाचार–पत्रों ने विशेषांक एवं लघुकथा परिशिष्ट प्रकाशित करके एक इतिहास बनाया है ,जिस,पर लघुकथा गर्व कर सकती है।
अत: यह कहने पर किसी को कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आज लघुकथा अन्य विधाओं की तरह साहित्य यानी शास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग है ।
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