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अध्ययन-कक्ष - जितेन्द्र ‘जीतू’s
समकालीन हिन्दी लघुकथाओं में नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा-
  समकालीन हिन्दी लघुकथाओं में नवीन मूल्यों को प्रतिष्ठा दिलाती लघुकथाओं के दर्शन बखूबी होते हैं। नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा तभी होगी जब पुराने मूल्य ध्वस्त होंगे। वर्ष 71 के पश्चात ऐसी अनेक लघुकथाएँ लिखी गईं और प्रकाशित हुईं। भूमंडलीकरण हुआ तो समाज का दुनिया को देखने का चश्मे का नम्बर भी बदला। सैटेलाइट चैनलों के माध्यम से शिक्षा का प्रचार – प्रसार हुआ तो नारी की तस्वीर भी बदली। वह चौखट से बाहर तो पहले ही निकल चुकी थी, अब नयी तस्वीर यह हुई कि ऐसे उदाहरण शहर के हर चौथे–पाँचवे घर में मिलने लगे। नारी के संदर्भ में यह नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा का एक उदाहरण हुआ।
नारी का घर से बाहर निकलकर नौकरी पर जाना पति की रज़ामंदी से संभव हुआ। पति ने अपने पुराने मूल्यों को त्याग दिया और स्वीकार किया कि पत्नी का घर से बाहर निकलना उतना बुरा नहीं है जितना बाप–दादा वर्णन किया करते थे। यह पति के संदर्भ में नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा का दूसरा उदाहरण हुआ।
समकालीन हिन्दी लघुकथाओं में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं ,जब न केवल माँ–बाप ने अपनी युवा पुत्री को घर से नौकरी पर भेजकर पुराने मूल्यों का त्याग किया और नये मूल्यों को अंगीकार किया वरन् सास और ससुर ने भी अपनी आर्थिक स्थिति से मुक्ति पाने अथवा समय के साथ चलने जैसा आधुनिक कदम उठाकर अपनी बहू का घर से बाहर निकलकर नौकरी पर जाना धैर्य के साथ स्वीकार किया।
समकालीन हिन्दी लघुकथाओं में नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा के और भी सशक्त उदाहरण हैं। धर्मान्धता से ग्रस्त इस देश में जब कोई नागरिक धर्मान्धता से ऊपर उठकर दूसरे धर्म को पर्याप्त सम्मान देता है तो वह वास्तव में नवीन मूल्यों की स्थापना का ही कार्य करता है जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘कट्टरपंथी’ में एक पंडित के घर पर धर्मान्ध भीड़ से बचता–बचाता एक युवक घुस आता है और आश्रय माँगता है। पंडित जी उसे बचाने के लिए भीड़ से बोलते हैं कि यह मेरा भतीजा है। भीड़ कहती है कि यदि भतीजा है तो इसके हाथ का पानी पीकर दिखाओ। उसे बचाने के लिए पंडित जी उसके हाथ का पानी पीकर उसे भीड़ से बचाते हैं।
अपनी देसी संस्कृति के साथ अपने अनुकूल पाश्चात्य संस्कृति का मिलन जब समकालीन लघुकथा में कहीं मिलता है तो वह निश्चित रूप से नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा का ही द्योतक होता है। गलाकाट राजनीति में भाईचारा को बढ़ावा देने वाली राजनीति कहीं दिखाई देती है तो यकीन मानिए वह नवीन मूल्यों को ही स्थापित करती है। समकालीन लघुकथाओं में इस प्रकार के उदाहरणों की बहुतायत है।
समकालीन लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर सुकेश साहनी की लघुकथा ‘ठंडी रजाई’ समकालीन हिन्दी लघुकथाओं में ‘नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा’ का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करती है:
‘‘कौन था ?’’ उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा।
‘‘वही, सामने वालों के यहां से, ’’पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी ‘‘बहन रजाई दे दो, इनके दोस्त आये हैं।’’ फिर रजाई ओढ़ते हुए बड़बड़ाई, ‘‘इन्हें रोज़–रोज़ रजाई जैसी चीज माँगते शर्म नहीं आती! मैंने तो साफ मना कर दिया, कह दिया, आज हमारे यहाँ भी कोई आने वाला है।’’
‘‘ठीक किया।’’ वह भी रज़ाई मे दुबकते हुए बोला। ‘‘इन लोगों का यही इलाज है।’’
‘‘बहुत ठंड है!’’ वह बड़बड़ाया
‘‘मेरे हाथ–पैर सुन्न हुए जा रहे हैं। पत्नी ने अपनी चारपाई को दहकती अंगीठी के और नजदीक घसीटते हुए कहा।
‘‘रज़ाई तो बिल्कुल बर्फ़ हो रही है, नींद आये भी तो कैसे!’’ वह करवट बदलता हुआ बोला।
‘‘नींद का तो जैसे पता ही नहीं है!’’ पत्नी ने कहा, इस ठण्ड से मरी रज़ाई भी बेअसर सी हो गई है।’’
‘‘एक बात कहूँ, बुरा तो नही मानोगी?’’
‘‘कैसी बात करते हो?’’
‘‘आज जबरदस्त ठंड है। सामने वालों के मेहमान आए हुए है। ऐसे में रज़ाई के बगैर काफी परेशानी हो रही होगी।’’
‘‘हो, तो?’’उसने आशा भरी नजरों से पति को देखा।
‘‘मै सोच रहा था.........मेरा मतलब यह था कि........हमारे यहाँ एक रज़ाई फालतू ही तो पड़ी है।’’
‘‘तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रज़ाई घिस थोड़े ही जायेगी।’ वह उछलकर खड़ी हो गयी। ‘मै अभी सुशीला को रज़ाई देकर आती हूँ।’
वह सुशीला को रज़ाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा। वह उसी ठण्डी रज़ाई में घोड़े बेचकर सो रहा था। वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रज़ाई काफी गर्म थी।
‘नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा’ का एक और अच्छा उदाहरण है, सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘पुरुष’, जिसमें लघुकथाकार ने पुरुषवादी सोच के साथ लघुकथा का आरम्भ किया है तथा जिसका अंत एक अनकहे, अनसहेजे रिश्ते के साथ होता है। एक बस में एक यात्री यात्रा कर रहा है। उसके पीछे वाली सीट पर युवतियाँ बैठी हैं जिनके स्वर उस यात्री के कानों में शहद से घोल रहे हैं। यात्री घूम कर पीछे देखना चाहता है ताकि वह उन युवतियों का दर्शन कर सके। लेकिन उसकी उम्र और उसकी प्रतिष्ठा आडे़ आ रही है।अंत में जब एक युवती उससे कहती है कि अंकल, प्लीज़, खिड़की बंद कर दीजिए न! तो यात्री तत्काल अपनी पुरुषवादी मानसिकता से बाहर निकल आता है और उसके मुँह से बेसाख्ता निकल जाता है–अच्छा बेटा।
सतीशराज पुष्करणा की ही एक अन्य लघुकथा है – सहानुभूति–। जिसमें एक कर्मचारी अपने अधिकारी से डाँट खाने के बाद भी बाहर आकर अपने अधिकारी की इसलिए प्रशंसा करता है कि उसे मुझसे भी ज्यादा मेरे बच्चों की चिन्ता है। चूँकि अधिकारी ने उससे कहा था कि मैं लिखित में कार्यवाही करके तुम्हारी बीवी–बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा।
रमेश बतरा की ‘चलोगे’ और ‘सिर्फ़ हिन्दुस्तान में’ नये मूल्यों की प्रतिष्ठा के अन्य प्रबल उदाहरण हैं।
सदंर्भ:
1.असभ्य नगर/रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’/अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली/प्रथम संस्करण–1998/पृ. 48
2.समकालीन भारतीय लघुकथाएँ/सुकेश साहनी/मेधा बुक्स,शाहदरा, दिल्ली/ प्र. सं.–2001/पृ. 163,168,165,114
लेखक सम्पर्क: jitendra.jeetu1@gmail.com

 
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