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अध्ययन-कक्ष - डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
लेखकों को लघुकथा के साथ गम्भीरता से जुड़ना चाहिए– डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
 

डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति का नाम पंजाबी लघुकथा के उन अगुआ लेखकों में गिना जाता है, जिन्होंने इस विधा को सदृढ़ता प्रदान करने के लिए एक मिशन की तरह कार्य किया। हिन्दी लघुकथा साहित्य-जगत में भी डॉ. दीप्ति का नाम बहुत जाना-पहचाना है। उनसे श्री जगदीश राय कुलरियाँ ने मुलाकात कर कुछ प्रश्नों के उत्तर जानने चाहेः
-डॉ. साहब वर्तमान समय में लघुकथा के सामने मुख्य तौर पर क्या चुनौतियाँ हैं?
–लघुकथा साहित्य की एक विधा है; इस पक्ष से विचार करें तो लघुकथा के सामने दो तरह की चुनौतियाँ हैं, एक तो साहित्य से जुड़ीं, दूसरी विधा से जुड़ीं। साहित्य से जुड़ी चुनौतियां सभी विधाओं में साझी हैं, साहित्य समय को कैसे संबोधित हो, साहित्य के सार्थक सामाजिक सरोकार कैसे कायम रहें और साथ ही समाज में फैली अनिश्चितता के कोहरे को कैसे मिटाया जाए। लघुकथा के सामने विधा के तौर पर मुख्य चुनौती यह है कि इसके रूप वाले पक्ष को कैसे स्पष्ट किया जाए। इसके रूप को लेकर अभी भी धुँधलका है। लघु आकार की अन्य रचनाएँ, जिनमें प्रेरक-प्रसंग, टोटके, लघु व्यंग्य, चुटकुलेनुमा कहानियाँ/संवाद, उपदेशक-प्रवचन, टिप्पणियाँ लघुकथा के साहित्यिक-रूप को समझने में भ्रम पैदा करती हैं। इन अलग-अलग रूपों का प्रभाव भी कई बार मन को प्रभावित करता है, वह काफी तीक्ष्ण भी होता है, लेकिन एक विधा के रूप में पहचान बनाने के लिए, विधा की वैज्ञानिक समझ जरूरी है। कम से कम वे लेखक जो लघुकथा के साथ गंभीरता से जुड़ना चाहते हैं, उन्हें सचेत होकर ऐसे प्रयत्न करने चाहिए कि लघुकथा को अन्य लघु रूपों से कैसे अलग किया जाए।
-क्या कारण है कि अधिकतर लघुकथा लेखक रिवायती विषयों पर ही लघुकथाएँ लिख रहे हैं?
– रिवायती विषयों से आपका भाव है कि मनुष्य के दोगलेपन वाले व्यवहार, राजनीति, धर्म, पुलिस, प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार जैसे विषयों से है तो इसके दो पहलू हैं। नये लेखक प्रारंभ में इन्हीं विषयों पर लिखते हैं, दूसरा उनकी कुछ श्रेष्ठ न पढ़ने की प्रवृत्ति भी है। वैसे मैं समझता हूँ कि रिवायती विषय की भी स्वयं में कोई धारणा नहीं होती। सवाल है समाज की स्थिति कैसी है? समाज किस तरह की समस्याओं से दो-चार है? वही साहित्य का विषय बनती हैं। ऐसा भी नहीं है कि कुछ भी अच्छा नहीं लिखा जा रहा। प्रौढ़, गंभीर व निरंतर लिख रहे लेखक बहुत से नये विषयों का चुनाव कर रहे हैं। लेखकों को समाचार-पत्रों में प्रकाशित रचनाओं को ही अपने लेखन के लिए मानदंड नहीं बना लेना चाहिए। विधा में जो कुछ श्रेष्ठ लिखा गया है, उसका अध्ययन करना चाहिए। अच्छी रचना का मानदंड मिल बैठकर, विचार-चर्चा कर, गोष्ठियों द्वारा तलाशना चाहिए।
-क्या वैश्वीकरण, निजीकरण जैसे बड़ी कैनवस के विषयों को लघुकथा में समेटना कठिन है?
इस संदर्भ में यह बात समझनी चाहिए कि विषय व घटना में अंतर है। कोई भी विषय किसी भी विधा का आधार बन सकता है। दहेज, सामाजिक संबंध, स्त्रियों की समस्याएँ, ये सब विषय हैं। ऐसे ही वैश्वीकरण की बात है। सवाल है घटना कौन-सी हो। फिर उस घटना के कौन-से पक्ष को प्रस्तुत करना है, उभारना है। उपन्यास के बारे में कहा जाता है कि पूँजीवाद में शहरीकरण, रिश्तों के दरकने और इस तरह पनप रहे नये माहौल को समझने के लिए उपन्यास जैसी बड़ी कैनवस की आवश्यकता थी। कहानी में उन अलग-अलग प्रभावों में से किसी एक को लेकर रचनाएँ लिखी गईं। इसी तरह बाज़ारवाद व संबंधित अन्य विषयों को लेकर कुछ लघुकथाएँ भी लिखी गई हैं। साथ ही मेरा मानना है कि प्रत्येक विषय या पहलू को, हर विधा की रचना प्रक्रिया से लाजमी तौर पर जोड़ कर नहीं देखना चाहिए। मेरे विचार में वैश्वीकरण, निजीकरण के संकल्प को अभी सैद्धांतिक तौर पर समझने की जरूरत है। अभी इस विचारधारा को आलेखों द्वारा सीधी-सादी भाषा में समझना-समझाना अधिक ठीक है। जब कोई विचारधारा सहजता से हमारी समझ का हिस्सा बन जाएगी, वह स्वयं विधा में ढलकर सामने अवश्य आएगी।
-अन्य साहित्यक विधाओं के मुकाबले आप लघुकथा को कहाँ पर खड़ा देखते हैं?
आपने कहा कि अन्य विधाओं के मुकाबले, भाव- कहानी, कविता, उपन्यास व नाटक। देखो, साहित्यिक विधा को अपनाना बहुत सी बातों पर निर्भर है। पहली बात तो यह कि इनमें आपसी मुकाबला करते ही क्यों हो? अगर मुकाबला करना ही है तो फिर अपनी ही विधा में अपनी ही रचना से करो कि अगली रचना इससे अच्छी लिखनी है। अन्य महान लेखकों से, समकालीन चर्चित लेखकों से मुकाबला करें। उनसे सीखें व अच्छा लिखने के लिए प्रेरणा लें। मैं समझता हूँ कि कोई काल्पनिक भावना है कि लघुकथा का नोटिस नहीं लिया जा रहा है, यह मान्यता प्राप्त नहीं है तथा देखें कि यह अन्यों के मुकाबिले कहाँ खड़ी है। क्या आपने कभी कवियों को कहानीकारों से मुकाबला करते देखा है? नहीं न। स्वयं द्वारा अपनाई विधा के प्रति विश्वास ज़रूरी है व नियमित कार्य भी। हाँ, अगर आपके मन में कोई घटना कविता का रूप लेकर आती है तो आने दो। उससे कोई मुकाबलेबाजी नहीं करनी।
-बतौर लेखक, आलोचक, संपादक, आप लघुकथा के बारे कैसा महसूस करते हैं?
पहली बात तो यह कि पहले मैं लघुकथा का पाठक हूँ, फिर लेखक। आलोचक मैं अपनी रची लघुकथा का हूँ। जहाँ तक संपादन की बात है, त्रैमासिक ‘मिन्नी’ का संपादन व फिर लघुकथा संकलनों का संपादन कार्य, विधा को समझने का कार्य है, विशेषकर उस वक्त जब विधा आरंभिक अवस्था में हो। मौलिक रचनाओं की पुस्तक से अधिक तरजीह अच्छी संपादित रचनाओं के संग्रह को देने से विधा अधिक स्पष्ट होती है। इस तरह विधा का विकास भी अधिक स्पष्ट दिखाई देता है। किसी आलोचक को वह संपादित पुस्तक दी जाए तो वह अधिक तसल्ली से बात कर सकता है। ये पड़ाव हैं, जिन द्वारा विधा को समझा जाना चाहिए। इस पहलू से लघुकथा विधा के विकास संबंधी अच्छे लक्षण नज़र आते हैं।
-लघुकथा की स्थापना के लिए आप किस चीज को मुख्य मानते हैं?
– कुलरियाँ जी, सच कहूँ तो ‘स्थापना’ शब्द से सभी लेखकों को एलर्जी होनी चाहिए। इससे परहेज करना चाहिए। लघुकथा विधा को स्थापना से भी आगे विस्तृत परिपेक्ष्य में समझने की जरूरत है। हम किसी भी विधा में लिखें, मुख्य प्रश्न है कि हम लिखते क्यों हैं? लघुकथा को लेकर जब हम स्थापना की बात करते हैं तो हमारे मन में होता है कि लघुकथा कब शिखर पर पहुँचेगी? कब नामीगिरामी बड़े आलोचक लघुकथा की चर्चा करेंगे? दूसरा पहलू होता है कि उसे कब मान-सम्मान मिलेगा? लेखक कब स्थापित होगा? उसे कब सरकारी पुरस्कार मिलेंगे? क्या साहित्य का एक ही मकसद या मंजिल ‘स्थापित होना’ ही है, बस। शायद नहीं। इससे सृजनात्मक संतुष्टि की जगह भटकाव मिलता है। मैने तो पहले ही कहा था कि ‘स्थापना’ शब्द से एलर्जी होनी चाहिए।
- समाचार-पत्र व पत्रिकाएँ पहले खाली स्थान भरने के लिए लघुकथा को एक ‘फिल्लर’ के तौर पर उपयोग करते रहे हैं। क्या अब इस विधा के प्रति उनके रुख में कोई तबदीली आई है?
– कुलरियाँ जी, इस प्रवृति के बारे में आप स्वयं भी जानते हैं। अखबार का जीवन एक दिन का होता है। मुख्य पन्ने की ख़बर दूसरे दिन अंदर के पन्नों में कहीं खो जाती है। वर्तमान में अखबार संजीदा कम सनसनीख़ेज़ अधिक हैं। उनकी चौकाने की प्रवृत्ति है। विशेषांक शुरू करना, उनकी बिक्री से जुड़ा मामला है। साहित्य वाले पन्ने को ध्यान से देखें, कहानी, कविता, लघुकथा, तस्वीरें और कितना ही कुछ; अधिक से अधिक रचनाओँ को जगह देना, सब कुछ हल्क-फुल्का। लघुकथा संबंधी बात करें तो यह ठीक है कि अब यह ‘फिल्लर’ नहीं रही। लेकिन लघुकथा विधा के स्तर का पक्ष अभी भी जानना शेष है। लघुकथा कॉलम के तहत जो रचनाएँ छपती है, उनमें से अधिकतर लघुकथाएँ न होकर लघु रचनाएँ ही होती हैं। गंभीर लेखकों या इस विधा से जुड़े निरंतर लिख रहे लेखकों को इस प्रति सचेत होना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि जो कुछ अखबारों में छप रहा है वह स्तरीय व मॉडल नहीं हैं। जहाँ तक पत्रिकाओं का प्रश्न है, वे बिना देखे-पढ़े ही यह निर्णय किए बैठीं हैं कि लघुकथाएँ प्रकाशित करनी ही नहीं हैं। कुछेक की लघुकथा प्रति समझ बहुत मामूली है। पत्रिका वाले अगर लघुकथा प्रकाशित करना भी चाहते हैं ,तो उन्हें इस विधा से संबंधित किसी लेखक को यह जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए।
- ‘मिन्नी’ नाम की त्रैमासिक पत्रिका प्रकाशित करने का विचार कैसे आया?
– यह काम अचानक ही हो गया। सन् 1984 में पटियाला रहते हुए एम.डी. करने को दौरान दोस्तों के साथ मिलकर दो पत्रिकाएँ, हिन्दी में ‘अस्तित्व’ व पंजाबी में ‘हौंद’ निकालता था। तीन वर्ष बाद मैं अमृतसर आ गया। ‘अस्तित्व’ का लघुकथा विशेषांक प्रकाशित किया। तभी श्याम सुन्दर अग्रवाल से पत्राचार हुआ। मेरा लघुकथा लेखन 1985 में शुरू हुआ। ‘अस्तित्व’ के विशेषांक ने उत्साह प्रदान किया। लघुकथाएँ लिखने के कारण पंजाबी के अन्य लघुकथा लेखकों से संपर्क बन गया। सभी एकत्र हुए व ‘लघुकथा लेखक मंच’ की स्थापना की बात चली। बुज़ुर्ग लेखक रोशन फूलवी, निरंजन बोहा, डॉ. जोगिंद्र सिंह निराला आदि लेखकों का योगदान रहा। ‘मंच’ के एक समागम के अवसर पर रोशन फूलवी द्वारा संपादित पत्रिका ‘सतिसागर’ का लघुकथा विशेषांक प्रकाशित करने का निर्णय हुआ। रचनाएँ एकत्र करने की जिम्मेदारी श्याम सुन्दर अग्रवाल को दी गई। मगर सभी स्वीकृत रचनाओं को पत्रिका में स्थान नहीं मिल पाया। अग्रवाल जी ने लेखकों से रचनाएँ छापने का वायदा किया हुआ था। ।उन्होंने मुझसे बात की और कोई समाधान निकालने को कहा। समाधान तो एक ही था, रचनाएँ प्रकाशित करना। मैं ‘मिन्नी’ का मात्र 16 पेज का प्रथम अंक प्रकाशित कर ले गया। लेखकों/पाठकों ने इसे पसंद किया और सफ़र शुरू हो गया।
- अधिकतर साहित्यक पत्रिकाएँ एक-दो अंकों के बाद ही बंद हो जाती हैं, ‘मिन्नी’ के निरंतर प्रकाशन का क्या राज है?
– पत्रिका शुरू करवाने वाले अग्रवाल जी हैं, फिर बिक्रमजीत नूर जुड़ गए, फिर डॉ. अनूप सिंह, फिर और तथा और, फिर आप भी तो इस का हिस्सा हो गए। आप सब का सहयोग है। हम बात करते हैं निरंतरता की तो एक बात लाज़मी है कि पैसा मुख्य है, लेकिन पाठकों का सहयोग भी जरूरी है, लेखकों का जुड़ना भी जरूरी है। वर्ष 1988 में पहला अंक आया। मैंने और अग्रवाल जी ने फैसला किया कि प्रत्येक माह सौ रुपये डालेंगे, तीन माह बाद छह सौ रुपये का खर्चा तय हुआ था पत्रिका का। उस वक्त पत्रिका के लिए दस रुपये वार्षिक सहयोग राशि तय की गई थी। वार्षिक सदस्य बनते रहे, स्वयं का सौ रुपये मासिक का सहयोग पक्का। पत्रिका के अंक समय से निकलते रहे। लेखकों-पाठकों में निरंतरता के प्रति विश्वास बनाना लाज़मी है। पत्रिका का आजीवन-सदस्य भी कोई तभी बनेगा, जब उसे लगेगा कि पत्रिका जारी रहेगी। अगर हम साहित्य के प्रति समर्पित हैं तथा साहित्य को सामाजिक तबदीली का औजार मानते हैं और चाहते हैं कि सामाजिक तबदीली हो, समाज में सुधार हो तो कुछ पैसे इस ओर लगाये जा सकते हैं। एक बात और, अगर कोई सहृदयता व गंभीरता से काम करे तथा निरंतरता बनाए रखे तो पैसे देने वाले भी मिल जाते है।
-क्या कभी आपको लघुकथा कारण हीन भावना का शिकार होना पड़ा?
– कुलरियाँ जी, मैंने स्थापना की बात थी, उसी संदर्भ में आपका यह सवाल है। मैं समझता हूँ कि हीन भावना वहाँ होती है ,जहाँ व्यक्ति कुछ प्राप्त करने की आस रखे और वह आस पूरी न हो। तब व्यक्ति निराश हो जाता है। लघुकथा से स्थापना की बात जोड़ेंगे तो निश्चित रूप से ऐसी भावना पनपेगी कि भाषा विभाग लघुकथा पर पुरस्कार देना शुरू करे, विश्वविद्यालय शोधकार्य करवाए, लघुकथा सिलेबस में हो। मेरे विचार में साहित्य का मुख्य काम तो मनुष्य को हीनभावना से निकालने का है। साहित्य से उदासीनता दूर हो सकती है। जब व्यक्ति साहित्य पढ़ता है ,तो वहाँ उसे अपने जैसे पात्र मिलते हैं। इससे उसका साहस बढ़ता है कि उस जैसे और लोग भी हैं, जो जीवन में जूझ रहे हैं। उसमें से एकाकीपन का अहसास दूर होता है। मैं फिर दोहराता हूँ कि लघुकथा से हीन भावना को जोड़ने का अर्थ है कि हमें विधा में विश्वास नहीं, हमें अपनी स्थापना होती नहीं लगती।
- एक तरफ आप आलोचना, स्वास्थ्य संबंधी लेख व कविता लिख रहे हैं, दूसरी तरफ लघुकथा। यह कैसे संभव होता है?
– कुलरियाँ जी, आप तो खुद साहित्य से जुड़े हो। मेरा आपसे सवाल है कि यह सब आपको स्वयं-विरोधी क्यों लग रहा है? साहित्य सृजन और आलोचना अथवा आम जानकारी के आलेख आपको एक-दूसरे के विपरीत लगते हैं। केंद्र-बिंदु तो मनुष्य ही है। मनुष्य की बेहतर जिंदगी की आस ही साहित्य की प्रस्तुति का मकसद है। किसी का लहजा कविता है, किसी का कथा। अगर आप गौर करें तो लगभग सभी बड़े लेखकों ने कविता, कहानी, आलेख, संस्मरण आदि लिखे हैं। यह बात अलग है कि लेखक की किसी एक विधा में पहचान बन जाती है। साहित्य-सृजन व आलोचना भी अलग नहीं हैं। प्रत्येक लेखक के अंदर या कहें कि एक सचेत लेखक के भीतर, एक आलोचक होता है। किसी भी रचना की सृजना के बाद लेखक को पता होता है उसकी रचना किस स्तर की है।
- लघुकथा के विषयों के लिए क्या आपको विशेष रूप से तलाश करनी पड़ती है?
– वास्तव में विषय से आपका मतलब घटना के चुनाव या तलाश से है। विषय तो दिमाग में ही होते हैं, जो कुछ भी समाज में देखते हैं, सुनते हैं। जैसे कन्याभ्रूण-हत्या, बुज़ुर्गों की दशा, माँ का महत्त्व, ग्लोबलाइजेशन की बात आपने भी की। घटना वाले स्थान पर मौजूद होना या समाज में घूमना, लोगों से मिलना, उनके आसपास होना लेखक के जीवन के जरूरी अंग हैं। आप देखो, बहुत-से लेखक अपने कार्यक्षेत्र से जुड़ी रचनाएँ ही लिखते हैं, जैसे अध्यापक-वर्ग स्कूल, बच्चों, नकल पर ही अधिक लिखता हैं। उनका दायरा विशाल नहीं होता। मैं यह भी कहता हूँ कि घटना मात्र को देखना ही पर्याप्त नहीं है, घटना को देखने का नज़रिया भी बहुत मायने रखता है। और नज़रिया बनता है अध्ययन से। लेखक को मनुष्य की मानसिकता संबंधी पता हो, पता हो कि समाज और मनुष्य का क्या रिश्ता है तथा वे कैसे कार्यशील होते हैं। आर्थिक चिन्तन मनुष्य के स्वभाव को कैसे प्रभावित करता है। यानी आपका ज्ञान आपके देखने के नज़रिये को प्रभावित करता है तथा घटनाओँ के विश्लेषण में मददगार होता है।
-हिंदी लघकथा के सामने पंजाबी लघुकथा की क्या स्थिति है?
– पंजाबी में बड़ी संख्या में स्तरीय लघुकथाएँ हैं। इसका आधार यह है कि पंजाबी लघुकथा लेखन में निरंतरता बनी हुई है। लेखक निरंतर लिख रहे हैं व नए लेखक भी जुड़ रहे हैं। इस के साथ ही हिंदी के जो लेखक पंजाबी-हिंदी के लघुकथा सम्मेलनों में भाग लेते हैं, उनका मानना है कि लघुकथा विधा से जुड़ी पंजाबी पत्रिका ‘मिन्नी’ के जितने अंक (अब तक 97 अंक) प्रकाशित हुए, उतने अंक इस विधा से जुड़ी हिंदी की किसी भी पत्रिका के नही आए। जिस तरह हम मन लगाकर पंजाबी लघुकथा की कार्यशाला ‘जुगनुआँ दे अंगसंग’ का आयोजन निरंतर कर रहे हैं, वैसा हिंदी में नहीं हो रहा। हिंदी लघुकथा की उम्र लगभग सौ वर्ष बताते हैं, पंजाबी लघुकथा तो चालीस वर्ष की ही है, संयुक्त प्रयास से हम पंजाबी लघुकथा का रूप सँवारने में काफी हद तक सफल रहे हैं।
- लघुकथा से एक ‘मिशन’ की तरह जुड़ने का क्या कारण है?
– ‘मिशन’ को आप किसी भी अर्थ में लो, वास्तव में मिशन एक स्वाभाव होता है। किसी भी कार्य को अपनी संतुष्टि के लिए करना। मैं डॉक्टर हूँ, अपनी ड्यूटी नहीं करता तो कोताही है। बहुतों के मन में कोई सामाजिक सरोकार होता है, वे अपना कार्य चुपचाप करते रहते हैं। आप ऐसे बहुत से लोगों को जानते होंगे, जो न तो समाचारों में रहने की चिंता करते हैं, न फोटो खिंचवाते हैं और न ही मान-सम्मान की आशा करते हैं। वे चाहे सुबह उठ कर कीड़ों को दाना डालें, अस्पताल जाकर मरीजों की सेवा करें, पानी पिलाएँ, पेड़-पौधे लगाएँ। ये सब मिशन ही हैं। साहित्य से मेरा लगाव बचपन से है, दस-ग्यारह वर्ष की उम्र से। फिर मेरा विश्वास बना कि साहित्य समाज को संवेदनशील बनाने का बढ़िया माध्यम है। और न सही, कम से कम लेखक को तो बनाता ही है कि जो वह लिख रहा है, उसकी पहली उदाहरण उसे खुद होना चाहिए। लिखने के बाद कोई पत्र आ जाए, कोई फोन पर बात कर ले तो और भी अच्छा लगता है। इसलिए यह मेरी जरूरत है। यह काम मैं लघुकथा व ‘मिन्नी’ त्रैमासिक के माध्यम से कर रहा हूँ। वैसे मैं अन्य विधाओं में भी काम कर रहा हूँ। मेरा उद्देश्य सामाजिक सरोकार है, मनुष्य उस का केंद्रबिंदु है। रचना चाहे किसी भी विधा में हो।
? अपनी प्रकाशित पुस्तकों के बारे में भी बताएँ?
– लघुकथा के पंजाबी में तीन संग्रह ‘बेड़ियाँ’, ‘इक्को ही सवाल’ तथा ‘गैरहाज़िर रिश्ता’ प्रकाशित हुए हैं। इस के अतिरिक्त 28 लघुकथा संकलन पंजाबी में तथा तीन संकलन हिंदी में संपादित किए हैं। अन्य विधाओँ से संबंधित 40 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं।
? आपको मिले मान-सम्मान?
– मान-सम्मान तो लेखक के लिए पाठक होते हैं। वैसे मैं इस से भी आगे इन्हें अपनी संतुष्टि व बढ़िया जीवन-ढंग बनाने में सहायक होने को मानता हूँ। शेष सामाजिक संस्थाएँ अपनी समझ के अनुसार कुछ लोगों को विशेष पहचान देती हैं। लघुकथा के क्षेत्र में मुझे पंजाब में ‘माता शरबती देवी स्मृति सम्मान’ (कोटकपूरा), ‘माता प्रकाश कौर सोढ़ी समृति सम्मान’ (मोगा), ‘डॉ. शिंदर समृति सम्मान’(लोक रंगमंच, अबोहर), ‘माता मान कौर समृति सम्मान’ (पटियाला) से सम्मानित किया गया। ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच, पटना की ओर से भी सम्मान मिला।
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