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अध्ययन-कक्ष - जगदीश कुलरियाँ
लघुकथाओं में कल्पना तत्त्व
विक्रम सोनी
 

लघुकथाओं में कल्पना का उपयोग करना ही पड़ता है–ऐसा कतई नहीं है। लेकिन, किया जाता है–यह भी सत्य है।
विदेशी साहित्य–शास्त्रों का जायजा आपने कभी–न–कभी लिया होगा, तो निश्चय ही आप जानते भी होंगे, कि उनके साहित्य–शास्त्र में कल्पना का आशय होता है–‘‘करने की सामथ्र्य रखना।’’ करने का सामर्थ्य ही सृजन के लिए राह प्रशस्त करता है। तात्पर्य यह कि उनके साहित्य–शास्त्र में ‘‘कल्पना’’ का विशेष महत्त्व है, कल्पना गौरव है।
अब अपनी भूमि में तलाश करें, तो हमारे चारों तरफ ‘‘संस्कार’’ पहले मिलता है। जहाँ संस्कार है–वहाँ के व्यक्ति मन पर कल्पना का पूरा आधिपत्य होगा, होता ही है–‘‘यह नहीं हुआ तो? हो गया तो? खो गया तो? पा गया तो? जिया, न जिया तो?’’ और यही वैचारिकताएँ आपस में डटकर लड़ती–झगड़ती हैं। शरी के एक–एक अवयव में, रग–रग में रोशनी, आशा, अँधेरा, निराशा कल्पना फैलाती–सिकोड़ती है। अत: हमारी भूमि में कल्पना उपतजी है। हमारे ‘‘गौरव’’ साहित्य के चारों और न दिखने वाली यह एक ‘‘आभा’’ है।
संक्षिप्त में, कल्पना का तात्पर्य है–‘‘सृजन करना’’, ‘‘यथा पूर्वमकल्पयत्’’ को काव्य, कथा, उपन्यास आदि सभी साहित्यिक विधाओं ने प्रमुखता से माना है। और ग्रहण किया है।
लघुकथा की परिभाषा में मिलता है–‘‘यथार्थ और सार्थक शब्द मिलकर घटनात्मक तथ्य को चिन्तन के द्वार तक पहुँचने की प्रक्रिया जो कई विशेषताओं को समेटे होती है, लघुकथा है।’’ भारतीय दर्शन के अनुसार अंत: करण के चार अंग होते हैं–(1)मन (2) बुद्धि (3)चित और (4) अहंकार। इसी तरह लघुकथा में भी चार सोपान माने गए हैं (परिभाषा के अनुसार) (1) अनुभूत (2)यथार्थ (3) विवेचन (4)आविष्कार।
भारतीय दर्शन के अनुसार–(1) मन को संकल्प–विकल्प माना गया है। संकल्प का अर्थ होता है–‘‘अनुभूत या भोगा हुआ’’ और विकल्प प्रतियोगी धारण है। यही विकल्प, सकंल्प को (2)बुद्धि के समक्ष–न्याय के लिए लाता है। यहाँ सिर्फ़ न्याय होता है, अन्याय नहीं। इस तरह कल्पना को न्याय का आधार मिलता है। यह आधार (3) चित में तथ्य को डुबा देता है। सही न्याय के लिए यही विवेचन प्रारम्भ हो जाता है। प्रश्न उठते हैं–उारों में सहज ही चिंतन मिलता जाता है। एक लघुकथाकार को लघुकथा लिखते समय इसी प्रसूत–प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
अनुभूत+न्याय (विवेचन) आधार (सिद्ध) होता है। जो लघुकथाकार किसी ‘‘थीम’’ (बिन्दु) को देखकर खुद अनुभव करने लगता है, अपने तई वहीं सोचने लगता है, तो कल्पना के सहारे उस पात्र (संकल्प) की जगह स्वयं को न्यायीक पलड़े पर रखकर दूध का दूध, पानी का पानी होकर ‘चित’ में, जेहन में बैठता जाता है। खुद–ब–खुद विवेचित होकर, छन–छनकर समानधर्मी शब्द संचयन के माध्यम से ज्ञान या चिन्तन का साम्राज्य समेटे खुद ही सिमट कर एक ‘‘थीम’’ कलम से उतरकर लघुकथा बन जाती है। जो लघुकथाएँ इस प्रभाव प्रक्रियागत ‘‘समय’’ में नहीं जन्मी है, उन्हें अँधेरों में गुम जाने का भय निरंतर बना रहेगा। और यह बात लघुकथाकार जानता है।
आप कहेंगे-कल्पना और सत्य (यथार्थ या प्रत्यक्ष) एकजुट हो ही नहीं सकते। दोनों दो सिरे हैं। तो मैं एक उदाहरण रखना चाहूँगा–‘‘मैं उस ‘‘चीज’’ की कल्पना कर ही नहीं सकता, जिसे कभी देख ही नहीं है, जिससे प्रत्यक्ष नहीं हूँ ।’’ तात्पर्य यह कि कोई यथार्थ है, प्रत्यक्ष में है– जिसे देखकर ही उसकी या उसके ‘समान’ कल्पना की जा सकती है। फिर कल्पना और सत्य पूरक कैसे नहीं होंगे। होंगे–ही और अवश्य है। लघुकथाओं में अनुभूत होता है, यथार्थ का चित्र होता है, और सत्य (आविष्कार) अंत में होता है। घटनात्मक ‘‘बात’’ को सत्य तक कल्पना(संकल्प–विकल्प–विवेचन के जरिए) पहुँचाती है। देखिए–डॉ0 कमल चोपड़ा द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘‘हालात’’ से लिया गया एक उद्धरण, लघुकथा है–‘‘भीड में खोया आदमी’’ और लघुकथाकार है–डॉ0 सतीश दुबे, पृष्ठ–39, लघुकथा इस प्रकार है:–
राष्ट्रपति की कार नगर के व्यस्त मार्ग से गुजर रही थी, कि अचानक छोटी–छोटी मूँछे,पैजामा–कमीज पहने, घुँघराले बालों वाला एक युवक फूल–माला के साथ गाड़ी के सामने आकर खड़ा हो गया। वह नारे लगा रहा था, ‘‘राष्ट्रपति यहीं रहें। राष्ट्रपति यहीं रहें।’’
जनता के इस आत्मीय प्रेम से राष्ट्रपति अभिभूत हो उठे। उन्होंने गाड़ी रुकवाकर के माला पहन ली, तथा उस युवक की पीठ पर हाथ फेरा।
गाड़ी गुजर जाने के बाद लोगों ने उसे घेर लिया, ‘‘तुम राष्ट्रपति को यहीं रहने के नारे क्यों लगा रहे थे?’’
युवक ने कहा, ‘‘उनके दो दिन शहर में रहने से बिजली कटौती नहीं है और मुझे महीने भर बाद फिर से काम मिला है। उनके यहाँ रहने से कम–से–कम मजदूरी तो बराबर मिलेगी।’’
सत्य या प्रत्यक्ष या घटित या यथार्थ देखिए–‘उनके दो दिन शहर में रहने से बिजली में कटौती नहीं है और मुझे महीने भर बाद फिर से काम मिला है, उनके यहाँ रहने से कम–से–कम मजदूरी तो बराबर मिलेगी।’’
और उपर्युक्त प्रत्यक्ष दर्शन या घटित–यथार्थ तक पहुँचने के लिए एक संकल्प जो लघुकथाकार लेता है, उसे देखिए–‘‘ राष्ट्रपति की कार नगर के व्यस्त मार्ग से गुजर रही थी, कि अचानक छोटी–छोटी मूँछे,पजामा–कमीज पहने, घुँघराले बालों वाला एक युवक फूल–माला के साथ गाड़ी के सामने आकर खड़ा हो गया। वह नारे लगा रहा था, ‘‘ राष्ट्रपति यहीं रहे। राष्ट्रपति यही रहें।’’ एक सच को उकेरने के लिए राष्ट्रपति जैसी हस्ती को कल्पना के सहारे कहना ‘संकल्प कल्पना’ है। और उसके समानान्तर उसी तेजी से, उसी गति से सामने आने वाला (साहसी)युवक–जो अपने समय का प्रतिनिधि भी है–विकल्प के रूप में है। यही विकल्प अनुभूत करता है और न्याय के लिए व्यक्तिगत बुद्धि के सामने आ जाता है। यथा–‘‘जनता के इस आत्मीय प्रेम से राष्ट्रपति अभिभूत हो उठे। उन्होंने गाड़ी रुकवाकर माला पहन ली, तथा उस युवक की पीठ पर हाथ फेरा।’’
और यही पर तर्क–वितर्क, विवेचन होने लगता है, यानी ‘‘चित’’ का कार्य शुरू होता है। जो कल्पना को सत्य के बाजू में ले जाकर खड़ा कर देता है। देखिए–‘‘गाड़ी गुजर जाने के बाद लोगों ने उसे घेर लिया, तुम राष्ट्रपति को यहीं रहने के नारे क्याें लगा रहे थे?’’
यही प्रश्न वह ‘‘चित’’ है जो सत्य, यथार्थ को घसीट लाने के प्रयत्न में लघुकथा को मजबूत–से–मजबूत चिंतन आधार देता हैै। और सत्य को (अंत में) प्रत्यक्ष लाने में सफल होता है। (जिसे सबसे पहले उद्घाटित किया जा चुका है।)
कल्पना का प्रथम उपयोग प्रत्यक्ष को सत्य बनाने में होता है। दूसरा प्रयोग अप्रस्तुत को विधानगत स्वरूप देने में किया जाता है। तीसरा प्रयोग संकुचित मनोभावों को उकेरने में किया जाता है और चौथे स्थान पर यह अविष्कार के अर्थ में प्रयोग होता है।
लघुकथा की प्रक्रिया विधान भी यही है। यानी प्रमुख विशेषता जो लघुकथाओं में होती हैं, वे हैं:–
(1) प्रत्यक्ष को सत्य (बनाकर)।
(2) परोक्ष या अप्रस्तुत को प्रस्तुत करना (और)।
(3) अप्रस्तुत की संकुचित मनोभावों को उकेरकर।
(4) (अंत में) एक आविष्कार करना (वह बात कहना जो सीधे चिंतन तंतुओं को झकझोर कर रख दे।) इन उदाहरणों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है, कि कल्पना प्रत्यक्ष से प्रस्तुत तक और फिर चिंतन (आविष्कार) तक के अंतर को जोड़ने वाला पुल है।
व्यक्ति में गुण है तो दोष भी है। गुण–दोष के बीच पुल का काम ‘‘व्यक्ति कर्म’’ करता है। लघुकथाएँ भी किसी जीवित पात्र को ही ग्रहण करती या स्वीकारती है। उसी जीवित पात्र का ‘‘कर्म’’ ही प्रत्यक्ष से चिंतन तक के अंतर को पाटकर आविष्कार बन जाती है।
अंग्रेज कवि एवं समालोचक श्री कॉकरीज बर्डस्बर्थ (काव्य के प्रसंग के लिए) लिखते हुए कल्पना के सम्बंध में कहते हैं, ‘‘समन्वय और जादुई शक्ति के लिए ही मैंने कल्पना का प्रयोग किया है। इसका धर्म है––विरोध या असम्बंध गुणों का एक दूसरे के साथ संतुलन अथवा समन्वय करना अर्थात एकरूपता के साथ, साधारण का विशेष के साथ, भाव का चित्र के साथ, व्यष्ठि का समष्टि के साथ, नवीन का प्राचीन के साथ, असाधारण भावावेश का असीम संचय केसाथ अथवा चिर जागृत विवेक एवम् स्वस्थ आत्म संयम का दुर्गम उत्साह तथा गम्भीर भावुकता के साथ समन्वय करना/कल्पना के बल पर ‘‘रचनाकार’’ (उन्होंने यहाँ कवि को रचनाकार कहा है) अनेकता में एकता ढूँढ़ निकालना है और विभिन्न विचारों, भावों को एक विशेष विचार अथवा भाव से अन्वित कर देता है।’’ क्या यही बात लघुकथा के लिए नहीं स्वीकारी जा सकती।
लघुकथाकार अपनी स्वस्थ लघुकथा में कल्पना को ‘हेल्दी इमेजिनेशन’ यानी सत्य कल्पना की कसौटी में कसता है तभी स्थायीत्व पाता है। तात्पर्य यह कि साहित्यिक रचना में कल्पना का होना जरूरी ही नहीं ,निहायत जरूरी है। और आज की सर्वाधिक चर्चित साहित्यिक विधागत रचना लघुकथा है।
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