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‘‘भारतवर्ष में ‘कथा’ का इतिहास सहस्रों वर्ष प्राचीन है। इसका प्रारम्भ उपनिषदों की रूपक–कथाओं, महाभारत के उपाख्यानों तथा बौद्ध साहित्य की जातक–कथाओं से होता है’’।
डॉ सतीशराज पुष्करणा
परन्तु यहाँ यह जान लेना भी अनिवार्य प्रतीतहोता है कि वस्तुत: ‘कथा’ क्या है? साहित्य में इसे किस रूप में लिया जाता है? वस्तुत: ‘‘यह ‘कथ्’ धातु से व्युत्पन्न ‘कथा’ शब्द का साधारण अर्थ है‘वह जो कहा जाये’। कहने में कहने वाले के अतिरिक्त सुनने वाले की स्थिति अन्तभुर्क्त है, क्योंकि सुनने वाले के बिना एक क्षण को हम ‘बोलने’ की कल्पना तो कर सकते हैं, ‘कहने’ की नहीं। परन्तु वह सभी कुछ, जो कहा जाय, ‘कथा’ नहीं कहलाता। कथा का विशिष्ट अर्थ हो गया है किसी ऐसी कथित घटना का कहना, वर्णन करना, जिसका निश्चित परिणाम हो। घटना के वर्णन में भी कालानुक्रम अवश्य है, जैसे सोमवार के बाद मंगल, यौवन के बाद वृद्धावस्था,
प्राणान्त के बाद क्षय आदि। घटना किसी से भी सम्बन्धित हो सकती है....,जिनका अनुभव किया जा चुका है या जो कल्पित किये जा सकते हैं। जिस किसी से सम्बन्धित घटना हो, उसकी किसी विशेष परिस्थिति या परिस्थितियों का निश्चित आदि और अन्तयुक्त वर्णन ही ‘कथा’ कहलाता है।’’
मुख्य रूप से कथाएँ दो प्रकार की होती हैं, एक तो वे जो इतिहास–पुराण इत्यादि से लिए गए कथानकों को केन्द्र में रखकर लिखी जाती हैं तथा दूसरे प्रकार की कथाओं में उन कथाओं का शुमार किया जाता है जो कल्पना अथवा दैनिक जीवन में घट रही घटनाओं को केन्द्र में रखकर समाज के यथार्थ को प्रत्यक्ष करती हैं।साहित्य में दोनों प्रकार प्रचलित हैं और दोनों का अपना–अपना महत्त्व है;किन्तु दूसरा प्रकार अपेक्षाकृत साहित्य में अधिक प्रचलित है। यही कारण है-अधिकतर कथाकारों ने अपने समय को प्रत्यक्ष करने के विचार से उसी प्रकार को अपनी कथात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का अधिकांश कथा–साहित्य इसी प्रकार में अभिव्यक्त है।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री यों तो साहित्य के इतिहास में छायावाद एवं उत्तर–छायावाद के संधिकाल के पांक्तेय कवि माने–जाने जाते हैं, किन्तु उन्होंने काव्य की सभी विधाओं के साथ–साथ गद्य की भी प्राय: सभी विधाओं को
अपनी सुविधानुसार अपनी अभिव्यक्ति का मायम बनाया है। विशेष रूप से कथा–साहित्य को उन्होंने पर्याप्त प्रश्रय दिया है। उन्होंने जहाँ अनेक उपन्यास लिखे, वहीं उनके अनेक कहानी–संग्रह भी प्रकाश में आये। उन्होंने लघुकथाएँ भी लिखीं। उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया, ‘‘मैंने 1935 से 1935 के मध्य लगभग सत्तर–अस्सी लघुकथाएँ लिखीं।’’
शास्त्रीजी ऐसे लेखकों में थे जो सदैव समय के साथ–साथ चले। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा भी है‘‘सभी साहित्यकारों को सबसे पहले अप–टू–डेट होना चाहिए। आज विश्व स्तर पर कितनी उथल–पुथल मची हुई है। उस स्तर पर देखना चाहिए कि वहाँ के साहित्यकार कितने जागरूक या उत्तेजक, आग उगलते या बर्फ़ीले शब्दों में वाणी दे रहे हैं या उन बातों को लोगों के सामने प्रकट कर रहे हैं; यह देखना–पढ़ना चाहिए।.... मैं इतना ही कहूँगा कि वे लोग यदि विश्व का समसामयिक साहित्य पढ़ लें तो उनके भीतर एक नयी ज्योति अवश्य ही पैदा होगीतो वे अपने भीतर की कमज़ोरी को अवश्य ही महसूस करेंगे। जब तक उनके देश, उनके समाज की आग उनकी रचना में प्रकट नहीं होगी तो रचना स्थायी कभी नहीं हो सकती। अब वह चाहे लघुकथा हो या साहित्य की कोई अन्य विधा क्यों न हो।’’
शास्त्रीजी एक जागरूक साहित्यकार थे। वे अपने समय के साथ–साथ अपने समकालीनों के साथ–साथ पूर्ववर्ती लेखकों के लेखन को भी गंभीरता से देखते–पढ़ते थे। शास्त्रीजी से पहले हसन अली मुंशी (1874), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1875) के बाद किशोरी लाल गोस्वामी 91900) की लघुकथाएँ जब प्रकाश में आने लगीं तो जयशंकर ‘प्रसाद’, प्रेमचन्द, माखन लाल चतुर्वेदी,पन्नालाल पुन्नालाल ‘बक्शी’, माधवराव सप्रे, शिवपूजन सहाय, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’,कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र के साथ–साथ जानकीवल्लभ शास्त्री भी इस विधा में अपनी सार्थक अभिव्यक्ति दे रहे थे।
अपने साक्षात्कार में उन्होंने बताया, ‘उनके समकालीनों में विनोद शंकर व्यास, वाचस्पति पाठक, तेजनारायण काक, राधाकृष्ण, आनंद मोहन दीक्षित इत्यादि भी लघुकथाएँ लिख रहे थे। शास्त्रीजी को विशेष रूप से खलील जिब्रान,रवीन्द्र नाथ टैगोर, मोपासाँ, वनफूल, नन्द किशोर तिवारी, मोहनलाल महतो वियोगी इत्यादि की लघुकथाएँ बहुत पसंद रही हैं किन्तु इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि इन्होंने इनसे कोई प्रभाव ग्रहण किया था। शास्त्रीजी की लघुकथाएँ किसी से प्रभावित नहीं हैं। उनकी लघुकथाओं में तत्कालीन समाज का सच यानी उनके समय के समाज का कटु यथार्थ व्यंग्य की महीन धार लिये परोक्ष रूप से ऐसा प्रहार करता है कि पाठक बिना तिलमिलाए नहीं रह पाता। शास्त्री जी ने यों शताधिक लघुकथाएँ लिखी हैं। उन्होंने अपने साक्षात्कार में बताया, मेरा लघुकथा–संग्रह अभी तक प्रकाशित तो नहीं हुआ है। परन्तु ‘चलन्तिका’ नाम से मेरा एक लघुकथा–संग्रह प्रकाशन हेतु तैयार है, जिसमें एक सौ एक लघुकथाएँ संगृहीत हैं।’’
शास्त्रीजी की लघुकथाएँ उन्हीं के एक साक्षात्कार के अनुसार, ‘‘ 1935 ई से 1955 ई के बीच लिखी गयीं तथा उनकी पहली लघुकथा रूपनारायण पाण्डेय द्वारा सम्पादित ‘माधुरी’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद भी मेरी कई लघुकथाएँ ‘माधुरी’ में छपीं। इसके अतिरिक्त डॉ दिवाकर प्रसाद ‘विद्यार्थी’ द्वारा सम्पादित ‘हुंकार’, प्रफुल्लचन्द्र ओझा ‘मुक्त’ (पटना) द्वारा सम्पादित ‘बिजली’ में तो दो–तीन दर्जन लघुकथाएँ छपीं। हंस कुमार तिवारी द्वारा सम्पादित ‘उषा’ (गया) में भी कई लघुकथाएँ छपीं। परन्तु इसमें प्रकाशित ‘चिमटा’ लघुकथा को निराला ने पढ़कर मुझे पत्र भी लिखा था; जो ‘निराला के पत्र’ ग्रन्थ में संकलित है।’’
अपने साक्षात्कार में उन्होंने आगे बताया‘‘लीला–कमल’ नामक मेरी पुस्तक में कहानियों के साथ–साथ कुछ लघुकथाएँ भी संगृहीत हैं। ‘चिमटा’ शीर्षक की लघुकथा भी उसी में संगृहीत है।’’ इसी साक्षात्कार के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया-‘‘रामेश्वरनाथ तिवारी ने अपने लघुकथा–संग्रह ‘रेल की पटरियाँ’ की भूमिका में लघुकथाकार की हैसियत से मेरा नाम तो दिया ही है और मेरी लघुकथाओं तथा उनके शिल्प की काफी प्रशंसा भी की है।’’
शास्त्रीजी की दो लघुकथाएँ ‘पंडितजी’ एवं ‘यदि’ ‘विश्व लघुकथा कोश’ में भी प्रकाशित हुई हैं। इनकी ‘पंडितजी’ लघुकथा तो इनके कहानी–संग्रह ‘बाँसों का झुरमुट’ में प्रकाशित है; जिसमें ढोंगी ब्राह्मण के काइयाँपन पर चोट की गयी है। इसमें मुख्य पात्र पंडित बुद्धि दीन है जिसकी तम्बाकू खत्म हो जाती है।शाम का वक़्त है। नदी में आयी बाढ़ अपने पूर्ण यौवन पर है। उनकी समस्या यह है कि अब तम्बाकू कैसे आये? तभी जगमोहना पर उनकी दृष्टि पड़ जाती
है जो तुरंत ही उस पार से नदी पार करके लौटा है और ठंढ से ठिठुर रहा है।पंडितजी तम्बाकू लाने को कहते हैं। जगमोहना कल सुबह लाने को कहता है, अभी उसे डर लग रहा है। पंडितजी कहते हैं मेरे आशीर्वाद पर भी डर! ब्राह्मण का कार्य है बेटा ! इसमें आनाकानी उचित नहीं।’’ इतना सुनते ही जगमोहना नदी में कूद जाता है। कुछ देर में तपेश्वर सूचना देता है जगमोहना डूब गया। यह सुनकर पंडितजी कहते हैं‘‘साला डूबा तो अपनी करनी से, नटखट को आज नहीं तो कल डूबना ही था ! उफ , दो पैसे भी मेरे ले डूबा...।’’
‘‘यह लीजिए अपने दो पैसे !’’.... लेकिन खबरदार, अगर उस बेचारे के लिए ‘स्साला’ कहा।यही बाभन हैं... जिसके लिए बेचारे ने अपनी जान दे दी वही उसे साला कहता है।’’ लेकिन तभी कुछ देर में दरवाज़े पर खड़ा जगमोहन पंडितजी को पुकारता दिखाई पड़ता है। बुद्धि दीन जल्दी–जल्दी बाहर आते हैं। तम्बाकू लेकर उसकी पीठ ठोंकते हैं और बुद्धिदीन हँसते हुए कहते हैं‘‘सोई कहूँ, ब्राह्मण पंडित का आशीर्वाद ! यह आज्ञाकारी बालक कभी डूब भी सकता है!’’ इस प्रकार पंडितजी की चित्त भी मेरी, पट भी मेरी वाली कहावत चरितार्थ करते हुए घर का दरवाज़ा बंद कर लेते हैं। तात्पर्य शास्त्रीजी की यह लघुकथा आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व लिखी गई थी। यह कथा लघुकथा जानकर ही लिखी गयी थी। इसका तेवर आज की लघुकथाओं से किसी भी दिशा से कम नहीं है। यानी आज के लघुकथा–लेखक आज जहाँ पहुँचे हैं शास्त्रीजी वहाँ साठ वर्ष पहले ही पहुँच चुके थे। शास्त्रीजी की यह लघुकथा अनेक लघुकथा–संग्रहों एवं अनेक पत्रिकाओं के लघुकथांकों की शोभा बढ़ा चुकी है। ‘विश्व लघुकथा कोश’ में ही उनकी दूसरी लघुकथा ‘यदि’ प्रकाशित है। इसका प्रथम प्रकाशन डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादकत्व में लघुकथा को पूर्णत: समर्पित पत्रिका ‘काशें’ के प्रथम अंक में, उसके पश्चात् नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’ के सम्पादकत्व में प्रकाशित लघुकथा संकलन ‘चीखते स्वर’ में, उसके पश्चात् डॉ बालेन्दु शेखर तिवारी के सम्पादकत्व में प्रकाशित लघुकथा–संकलन लघुव्यंग्य’ में प्रकाशित हुई। इसके पश्चात् न जाने यह लघुकथा किस–किस संकलन की शोभा बनी।
है?’’
इस लघुकथा को आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है। इसका विषय अभिमानी व्यक्तियों पर व्यंग्यात्मक प्रहारथा। कुछ लोगों की ऐसी सामंती प्रवृत्ति होती है कि वह अपने समक्ष किसी को कुछ भी नहीं समझते, चाहे समाने वाला व्यक्ति कितना ही विद्वान एवं महान क्यों न हो। वह उसकी महानता एवं विद्वत्ता को समझते हैं किन्तु उनके भीतर बैठा सामंत उनके अहंकार को खड़ाकर देता है। इस लघुकथा का अंत देखने के बात अधिक स्पष्ट होगी‘‘मैं चाहता हूँ कि आपको हृदय से लगाकर रखूँ, परन्तु सब कुछ होता है, लेकिन मेरा सिर कभी
नहीं झुकता। मैं आपके सामने कभी सिर नहीं झुका पाता हूँ। इसका क्या कारण है?’’
मैने तपाक् से उत्तर दिया, ‘‘यदि सिर होता, जब तो!’’
इस लघुकथा में यह वाक्य अपना विशेष महत्त्व रखता है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि आपको दिमाग़ हो तब तो यानी आपको अक्ल हो तब
न। यानी बेअक्ल व्यक्ति अपने अहंकार में मस्त होकर अपने को समाप्त कर लेता है।
यों तो शास्त्रीजी की सभी लघुकथाएँ ऐसी हैं जिनपर विस्तार से चर्चा संभव है किन्तु यहाँ इस लेख में उन लघुकथाओं की चर्चा अपेक्षाकृत अधिक प्रासंगिक होगी ,जिनकी चर्चा के बिना यह लेख अधूरा माना जाएगा। ऐसी लघुकथाओं में ‘सौदा’, ‘करमजली’ और ‘हानि’ महत्त्वपूर्ण हैं।
लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘अमिता’ में एक साक्षात्कार के क्रम में रमेश बत्तरा ने शास्त्री जी की लघुकथा ‘सौदा’ की चर्चा करते हुए कहा था,
‘‘ऐसी लघुकथाओं के प्रकाशन से लघुकथा सम्मानित होती है। जैसा कथानक वैसा ही शिल्प। जब तक कथानक के अनुरूप शिल्प नहीं होगा, तब तक किसी
भी विधा की रचना हो, श्रेष्ठ हो ही नहीं सकती।इसका कथानक समसामयिक है। दहेज लोभियों को सबक सिखाते हुए लड़कियों में आत्मविश्वास जगाता है।
वस्तुत: किसी भी रचना का यही दायित्व भी होना चाहिए कि वह बहुत ही करीने से अपने सकारात्मक संदेश को पाठकों के हृदय में सहजता से पैठा सके।
शास्त्रीजी की ‘सौदा’ यही कार्य करने में सफल हुई है।’’ इस लघुकथा में एक दहेज लोभी लड़का और उसके माता–पिता जब लड़की के घर उसे देखने आते
हैं तो लड़के का पिता अपने बेटे से कहता है, ‘‘बेटा ! लड़की को ठीक से देख लो, पसंद आए तो लेन–देन की बात करें।’’ यह बात लड़की के स्वाभिमान को
आहत कर जाती है और वह सोफ़े से उठ खड़ी होती है और लड़के के बाप से कहती है, ‘‘मि शर्मा! मैं कोई प्रदर्शनी में रखी कोई बिकाऊ वस्तु नहीं हूँ,
जिसे आपका बेटा पसंद या नपसंद करेगा। पसंद या नपसंद मैं करूँगी, यह नहीं। इसके साथ मेरी कुछ शर्तें हैं जिन्हें मान लेने पर ही आगे बात होगी।
लड़के का पिता पूछता है, ‘‘वो क्या हैं?’’ ‘‘यदि मेरी शादी आपके बेटे से हो जाती है तो यह हमारे यहाँ घर–जमाई बनकर रहेगा। सारी कमाई मेरे माता–पिता के हाथ में देगा, मेरे माता–पिता जो कहेंगे इसे करना होगा। दहेज लेना–देना दोनों कानूनी जुर्म है। उसका तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि मेरी शर्तें मंजूर हैं तो ठीक, वरना जिस दरवाज़े से आप लोग आए हैं, जा सकते हैं।’’
शास्त्रीजी के लेखन की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जिस विधा में भी लिखा उसे समयानुकूल तेवर देकर कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया। ‘सौदा’
लघुकथा इस तथ्य से उत्कृष्ट उदाहरण है।शास्त्रीजी की एक अन्य लघुकथा ‘करमजली’ है जो ‘हुँकार’ में छपी थी। इसका कथानक भी दहेज त्रासदी पर ही प्रकाश डालता है। एक पिता को पाँच लड़कियाँ हैं जो जात–पात पर रूढि़वादी विचार रखता है। वह कल्पना करता है कि अपनी जाति के किसी बड़े घर में बेटी की शादी करेगा। यही सोचते–सोचते बड़ी लड़की अपना पैंतीसवाँ साल पूरा कर लेती है। माँ बहुत दुखी रहती है।एक दिन वह सुनती है कि मुहल्ले के एक ग़रीब की बेटी अन्य जाति के किसी बड़े घर के लड़के से मंदिर में शादी करके ससुराल चली गयी है। यह सुनकर पिता कहता है, ‘‘करमजली थी वह लड़की, जो किसी गै़र जात के लड़के से शादी करके चली गयी। मैं देखना क्या शान से अपनी बेटी की शादी करूँगा!’’यह सुनकर लड़की की माँ कहती है, ‘‘करमजली वह नहीं, यह है। यह भी किसी को पसंद कर–कराकर शादी कर लेती तो बाकी चार का रास्ता भी खुल जाता। तुम सपने देखते रहे। दिन में खुली आँखों देखे सपने भी कभी पूरे होते हैं ! अपनी औक़ात भी देखनी चाहिए।’’ इस लघुकथा का विषय तब भी सटीक था और आज भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं हुई है। शास्त्रीजी संस्कृत के मर्मज्ञ थे किन्तु लघुकथाओं में उनकी भाषा कथानकानुसार चलते हुए विषय को जीवन्त बना देती है। शास्त्रीजी की भाषा–शैली के स्तर पर एक अन्य बड़ी विशेषता यह है कि उसमें बहुत ही महीन व्यंग्य होता है कि पता न चलने दे और लक्ष्य पर प्रहार भी ठिकाने से कर दे।
लघुकथा आज जिस सम्मानजनक स्थिति में आ पहुँची है निश्चित रूप में उसकी नींव में जानकीवल्लभ शास्त्री का योगदान भी उल्लेखनीय है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता। लघुकथा के वर्तमान स्वरूप–निर्धरण में भी उनकी लघुकथाएँ अह्म भूमिका का निर्वाह करती हैं। इनकी लघुकथाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये छद्म–विद्रूपताओं को सहज ही उजागर कर देती हैं और इनकी लघुकथाओं में विषय–वैविध्य भी पर्याप्त मात्रा में देखा जा सकता है,यही कारण है इनकी लघुकथाओं में एकरसता और एकरूपता कहीं दिखाई नहीं पड़ती। इतना ही नहीं, इनकी लघुकथाओं में अनुभूति की सहजता और अभिव्यक्ति की प्रामाणिकता को भी सहज ही महसूस किया जा सकता है। इस संदर्भ में इनकी एक अन्य लघुकथा प्रफुल्ल चन्द्र ओझा ‘मुक्त’ (पटना) के सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘बिजली’ पत्रिका में छपी ‘हानि’ को अवलोकित किया जा सकता है।
‘हानि’ लघुकथा का विषय अनोखा एवं अपने ढंग का है। छेदी लाल को एक मात्र लड़की थी। जब वह पैदा हुई थी तो छेदी दुखी हुआ था कि एक ही संतान वह भी बुढ़ापे में हुई, लड़का हो जाता तो कुल तर जाता। किन्तु जब लड़की सयानी होकर बैंक में अध्किारी बन जाती है तो वह अपनी पत्नी से कहता है, ‘‘अब इसकी शादी करनी पड़ेगी। शादी के बाद यह अपनी ससुराल
चली जाएगी। आज जो कमाई हमें देती है, कल ससुराल में देगी तो हमारा क्या होगा? यही अगर बेटा होती तो शादी के बाद भी लड़के की कमाई इसी घर में रहती। यह हमारी कितनी बड़ी हानि हुई है।’’ माता–पिता का संवाद बेटी के कानों में पड़ जाता है। वह अपने पिता को आश्वस्त करती है कि मैं शादी उसी व्यक्ति से करूँगी जो मुझे आपकी देख–भाल करने से रोकेगा नहीं, आप निश्चिन्त रहें। मुझे पता है कि आपने किस कठिनाई से मुझे पाला–पोसा है!’’
शास्त्रीजी की ऐसी अन्य अनेक–अनेक लघुकथाएँ हैं जिनपर चर्चा की जा सकती। शास्त्रीजी ने जहाँ परम्परागत विषयों को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाया वहीं समसामयिक विषयों को भी गंभीरता से लिया है। विषय परम्परागत हो अथवा आधुनिक, उन्होंने शिल्प के स्तर पर सदैव उसके साथ न्याय किया है। इतना ही नहीं, शास्त्रीजी की लघुकथाओं में मनोविज्ञान के भी दर्शन जगह–जगह होते हैं, यही कारण है कि वह आवश्यकतानुसार पात्रों का मनोविश्लेषण करते हैं जिससे उनकी लघुकथाएँ स्वाभाविक रूप से सजीव हो उठती हैं और वे सहजता से ही पाठकों के हृदय में अपना स्थान बना लेती हैं। स्त्रीजी को जहाँ–जहाँ अवसर मिला है उन्होंने संकेतिकता से भी पर्याप्त काम लिया है।
लघुकथा के पहली एवं अनिवार्य शर्त हैं कि उसमें कथापन होना अनिवार्य है, तो इस निकष पर इनकी लघुकथाएँ शत–प्रतिशत खरी उतरती हैं। शास्त्रीजी ने अपने समय के समाज और व्यवस्था की विडम्बनाओं को केन्द्र में रखकर लघुकथाएँ लिखीं। लघुकथा एक ऐसी विधा है जिसमें घटना का मूलाधार कोई भी विडम्बना–युत्तफ स्थिति हो सकती है। बशर्ते वह समाज और व्यवस्था का आँखों देखा सच हो न हो, परन्तु जो विश्वसनीय तो हो ही।
शास्त्रीजी की लघुकथा सहित प्राय: विधाओं में लिखित लगभग अस्सी कृतियाँ हैं; जिनमें पचास से अधिक पुस्तकें तो प्रकाश में आ चुकी हैं, शेष का आना अभी शेष है। अपने अंतिम समय में वह ‘चाणक्य’ उपन्यास लिख रहे थे जो पूरा नहीं हो सका। शास्त्री जी के सम्पाकदत्व में ‘राका’ एवं ‘बेला’पत्रिकाएँ प्रकाशित होती रहीं। ‘बेला’ के माध्यम से अनेक लघुकथाएँ प्रकाश में आयीं। इनकी लघुकथाएँ पढ़ने पर एक बात स्पष्ट हो जाती है वे एक यथार्थवादी रचनाकार हैं और उनमें सौंदर्य–चेतना भरपूर है। इसके अतिरिक्त शास्त्रीजी की लघुकथाओं में समकालीन परिदृश्य के विभिन्न रंगों और रूपों को सटीक अभिव्यक्ति देने का सार्थक प्रयास स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार यह कहने में किसी को हिचक नहीं होनी चाहिए कि हिन्दी–लघुकथा में शास्त्रीजी की भूमिका उल्लेखनीय एवं अविस्मरणीयहै।
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