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समस्त चेतन जीवधारी अपनी शारीरिक एवं मानसिक प्रक्रिया से संवेदना,अनुभूति एवं संचयन को प्राप्त करता है। इन प्राप्त सामग्रियों को अभिव्यक्त करने की उत्कंठा स्वाभाविक होती है।; क्योंकि उसके बिना कोई जीवधारी रह नहीं सकता–यह भिन्न बात है कि संवेदनाओं, अनुभूतियों एवं संचित ज्ञान का अधिकांश या तो अभिव्यक्त होने के पूर्व ही विनष्ट हो जाता है या अवचेतन या अचेतन मानस में सूक्ष्म रूप ग्रहण कर सो जाता है। जो तीव्र संवेग–सम्पन्न संवदेनाएँ एवं गहरी अनुभूतियाँ विनष्ट होने की नियति से अपनी तीव्रता, सघनता, प्रभविष्णुता एवं समसायिक उपयोगिता के कारण बच जाती हैं, वे ही जीवधारियों को अपने को अभिव्यक्त करने के लिए विवश करती हैं। विश्व की सम्पूर्ण संस्कृति–अविष्कार, संरचना, साहित्य,कला, संगीत, आर्थिक–सामाजिक संबंध, प्रशासनिक एवं विधि–सम्मत व्यवस्था आदि–इसी अभिव्यक्ति के ऐतिहासिक परिणाम हैं। अभिव्यक्ति प्राथमिक स्तर पर व्यक्तिगत होती है और एक बड़े या छोटे समूह की विभिन्न इकाइयों की व्यक्तिगत अभिव्यक्तियों की उभयनिष्ठ;सामान्यत: प्रबल एवं स्वीकृत मान्यताएँ , किसी विधा–विशेष, काल–विशेष, समूह–विशेष या देश–विशेष की सामूहिक अभिव्यक्ति बन जाती है, जो माध्यमिक (सेकण्डरी) होती है। विभिन्न माध्यमिक अभिव्यक्ति बनती है। अभिव्यक्ति के विविध माध्यमों में, मानव के संदर्भ में, भाषिक अभिव्यक्ति का माध्यम सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। विश्व मानवता ने पिछले पाँच हजार वर्षों की लम्बी कालावधि में अपनी अभिव्यक्ति को संभव, एवं उपयोगी बनाने के लिए विविध भाषाओं का विकास, नियमित संस्कार और विस्तार कर क्षमतानुकूल समृद्ध किया है। आधुनिक विश्व की अति समुन्नत भाषाएँ–अंग्रेजी, रूसी, चीनी, आदि इसी अभिव्यक्ति–संघर्ष की परिणति हैं। आज हिन्दी भाषा में ऐसा सामर्थ्य है कि वह अपने बोलने–लिखने–समझनेवाले व्यक्तियों की अधिसंख्य संवेदनाओं, अनुभूतियों एवं प्रतिक्रियाओं को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त हो रही हैं। हिन्दी में वर्तमान काल–खण्ड में लघुकथा का सृजन एवं उसकी लोकप्रियता अन्य साहित्यिक विधाओं से अपेक्षाकृत अधिक है। इसलिए हिन्दी लघुकथा की भाषिक संरचना पर कुछ बातचीत गंभीरतापूर्वक होना आवश्यक है, जिसमें लघुकथा के रचनाकारों,पाठकों, समीक्षकों एवं भाषाशास्त्रियों की क्रियाशीलता की पारस्परिक सहभागिता आवश्यक है। यह प्रक्रिया पत्र–पत्रिकाओं,,संगोष्ठियों, कार्यशालाओं, सम्मेलनों आदि से निरंतर करनी होगी। इसी क्रम में और इसी उद्देश्य से कुछ बिन्दु प्रस्तावित है।
यद्यपि भाषा स्वयं में वाचिक ध्वनियों के परिकल्पित प्रतिनिधि वर्णों के समन्वय रूप शब्दों, शब्द के संगठित व्यवस्थित वाक्य–खण्डों एवं वाक्यों तथा पदच्छेदों की बाह्याकृति में दृष्टिगत होती है; किन्तु उनमें अर्थों का समन्वय,त्वरा की आकृति एवं अभिधादि शक्ति–त्रयों का समावेश उस भूभाग की भाषा–प्रयोक्ता समाज निरंतर करता, तोड़ता और बदलता रहता है। वास्तव में भाषा किसी क्षेत्र–विशेष के सामाजिक–आर्थिक संघर्षों की सांस्कृतिक उपलब्धि होती है। हर भाषा की अपनी भाषिक संस्कृति होती है, जो स्वरूप, विशेषताओं एवं प्रयोग से लक्षित होती है। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम पच्चीस वर्षों की वैज्ञानिक–तकनीकी क्रांति, सूचनातंत्र के विस्फोट एवं भूमण्डलीकरण की चेतना ने न्यूनाधिक रूप से विश्व की अधिसंख्य प्रमुख भाषाओं को परस्पर निकट लाकर उनके आदान–प्रदान एवं प्रभाव ग्रहणत्व की गति को तीव्र कर दिया है और एक विश्वभाषा की परिकल्पना की वास्तविकता भी सौ–दो सौ वर्षों में विकसित होने की संभावना दृष्टिगत हो रही है। हिन्दी भाषा भी इन्हीं सरणियों से विकसित हुई है और विकासशील भी है।
हिन्दी भाषा में विभिन्न विधाओं में प्रभूत रचनाएँ हो रही हैं और उन विधाओं में प्रयुक्त भाषा की सामान्य एवं विशिष्ट विशेषताएँ उभर कर आ रही ळै और यह अवसर आ गया है, जब प्रत्येक रचनात्मक विधा की भाषा की उन सामान्य एवं विशिष्ट विशेषताओं, समस्याओं एवं सावधानियों का विवेचन–विश्लेषण हो। इसी क्रम में अपेक्षाकृत बिलम्ब से विकसित विधा–लघुकथा–की भाषा विवेच्य है।
लघुकथा आकार में ‘लघु’ कथात्मक प्रस्तुति है। लघुकथाकार को यथासाध्य इसी आकार–विस्तार में एक पूरी कथा को प्रभावी, सार्थक एवं सोद्दश्यतापूर्ण ढंग से प्रस्तुत कर देना अभीप्सित होता है। इसीलिए वह जो लघु वस्तु (कथा/कथ्य/कहानी) का चयन करता है, उसमें परिवेश एवं परिस्थितियों का विवरण, पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का परिचय, घटना–परिघटना का अंकन, पात्रों के बीच संवादों का गठन तथा अपनी टिप्पणी देने में एक मितव्ययी बुद्धिमान की तरह भाषा का प्रयोग करता हैं इस प्रसंग में उसे यह सोचना–विचारना आवश्यक होता है कि वह किस तरह कम–से–कम शब्दों,वाक्यांशों एवं वाक्यों का प्रयोग के लोभ से बचना होता है ताकि लघुकथा–विशेष के मूल स्वरूप, प्रभाव एवं उद्देश्य को क्षति पहुँचाए बिना काम चल जाए। सौभाग्य से हिन्दी भाषा में अनेक शब्दों के लिए एक शब्द, मुहावरों, शब्द–शक्ति (विशेषत:लक्षणा एवं व्यंजना) , शब्द–ध्वनियाँ एवं त्वरा, विराम–चिह्नों तथा शब्द–भंगिमाओं का विकास इस स्तर का हो चुका है कि लघुकथा का भाषा–सौष्ठव बढ़ाया जा सकता है। किसी अतिरंजना, विवरणात्मक विस्तार, दोहराव या दुविधा उत्पन्न करनेवाले शब्द–समूह के प्रयोग से लघुकथाकार परहेज करता है। हिन्दी–उर्दू ,हिन्दी–अग्रेजी, हिन्दी–संस्कृत,हिन्दी–लोकभाषा के शाब्दों का घालमेल तबतक नहीं किया जाता, जबतक ऐसा करना लघुकथा के पात्र,संवाद या प्रभावोत्पादकता के लिए एक अनिवार्यता न बन जाए। ऐसा कर हिन्दी का लघुकथाकार न केवल अपनी लघुकथा के पात्र, संवाद या प्रभावोत्पादकता के लिए एक अनिवार्यता न बन जाए। ऐसा कर हिन्दी का लघुकथाकार न केवल अपनी लघुकथा की गुणवत्ता बढ़ा सकता है; बल्कि पाठकों का मन जीत सकता और अपनी हिन्दी भाषा की समृद्धि का दिग्दर्शन सफलतापूर्वक करा सकता है। तकनीकी वैज्ञानिक, पौराणिक एवं अन्य ऐसे शब्द को छोड़कर सभी स्थितियों में लघुकथाकार सरल, सहज एवं आम आदमी के बोलचाल के बोधगम्य शब्दों का प्रयोग श्रेयस्कर समझता है, जो पाठक को कभी शब्द–कोश की शरण में जाने को बाध्य न करे। संप्रेषणीयता के लिए यह ध्यातव्य है कि प्रत्येक शब्द का एक सार्थक पारंपरिक संस्कारित अर्थवत्ता का जीवन होता है और वे सभी धारणाएँ, प्रतिच्छाया, त्वरा, भंगिमा उसके प्रयोग होते ही उनके पाठकों–श्रोताओं के मन–बुद्धि के अर्जित संस्कारों से टकरा–टकरा कर उसकी सार्थकता तलाशने लगते हैं। अत: शब्द–प्रयोग पर उसी प्रकार ध्यान देना चाहिए, जिस प्रकार शरीर की स्वास्थ्य–रक्षा एवं निरन्तर सक्रियता के लिए अस्थि–संस्थान एवं नस–नाडि़यों का। कोश से प्राप्त किए जाने अर्थ के क्लिष्ट, दूरार्थक,अप्रचलित,सकीर्ण क्षेत्रीय भाषा के शब्दों एवं स्लैंग का प्रयोग प्रवाह को बाधित करता है। यदि लघुकथा का वस्तु–संदर्भ एवं परिवेश–संदर्भ इसकी माँग करे, तो जोखिम उठाकर भी इस चुनौती को सावधानीपूर्वक स्वीकार किया जा सकता है; क्योंकि इनमें आंाचलिक लघुकथा के सृजन की संभावनाएँ गर्भस्थ हो सकती हैं।
लघुकथा के लघु आकार में वाक्यांशों एवं वाक्य–संरचना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामान्यत: सरल वाक्य उत्तम है; किंतु यदि आवश्यकता आ पड़े, चाहे कथ्य के सम्प्रेषण के लिए या आकार–संक्षेप के लिए, तो मिश्र (compound,complex or mixed) वाक्यों को भी स्थान देना पड़ सकता। सवाल सिर्फ़ सतत् सम्प्रेषणीयता काहै। वाक्यों के द्वारा लघुकथा में काव्यात्मकता, अलंकारिकता आदि गुणों का संश्लेषण जोखिम भरा एवं सिद्धहस्तता का विषय हैं एक लघुकथा में प्रथम पंक्ति से लेकर अन्तिम पंक्ति तक वाक्यों का भाषिक स्तर एक रहना सुष्ठु है। वाक्यों को विकासात्मक क्रम में परिणामी होना चाहिए– न कि भरती के वैसे वाक्य,जिनके बिना भी वह लघुकथा जीवंत, संप्रेष्य एवं रोचक बनी रहे। कथा–सम्राट प्रेमचन्द की कहानियाँ एवं उनके उपन्यास मोटे तौर पर इसके श्रेय बन सकते हैं। लघुकथा के वाक्यों की व्याकरणिक शुद्धता और उनमें विराम–चिह्नों के सही उपयोग से संप्रेषणीयता तो बढ़ती है; साथ–साथ उसमें नाटकीय गौरव भी आता है।
लघुकथा की संवाद–योजना लघुकथा के कथ्य के आन्तरिक विकास का आवश्यक तत्त्व है। पात्रों की भीड़–भाड़ लघुकथा में नहीं होती और न उनके लम्बे संवादों की गुंजाइश। छोटे–छोटे, कटे–छँटे, संक्षिप्त, सम्मित (suggestive) सांकेतिक, उपयोगी संवादों से लघुकथा का स्तर उठता है। संवाद भी चरित्र–निर्माण की पात्र–श्रेणी की अवधारणा के संकेतक हो सकते हैं, जैसे–तुनुक मिजाज, लोभी, निर्भय,शोषक, धूर्त,गम्भीर, ईमानदार पात्र आदि। अत: संवादों के लिए चयनित पूर्ण या अपूर्ण वाक्यों के प्रति लघुकथाकार को कुछ अधिक ही सावधान होना पड़ता है। दो संवादों के पारस्परिक संबंध–अनिवार्यता को दृष्टिगत रखना होता है। व्यर्थ के, संदर्भहीन, अनाकांक्षित, वाग्विलास को बढ़ानेवाले संवादों से अभ्यासपूर्वक एवं बलपूर्वक बचना लघुकथा की सफलता की नियति है। संवाद–योजना के कारण ही लघुकथा में नाटकीय संस्पर्श का सृजन होता है, इसलिए संवाद–शब्दावली में शब्दों में उनकी लक्षणा–व्यजंना व्यापार, त्वरा, स्वभाव आदि का विशिष्ठ महत्त्व है। साधना एवं निरन्तर सजग चेतना से ही यह साध्य है।
लघुकथा की भाषिक संरचना में मुहावरों, लोकोक्तियों, स्लैग्डों का उपयोग कर उसको अधिक मुखर तथा समृद्ध किया जा सकता है; किन्तु, न तो इनका जान–बूझ प्रयोग के लिए प्रयोग हो, न कि भाषिक अलंकरणमात्र के लिए हो; जो लघुकथा के विस्तार को संक्षिप्त, प्रभावी एवं उपयोगी बना सकें। कभी–कभी इनसे बचना सादगी का सौन्दर्यशास्त्र भी रचता है।हिन्दी ध्वन्यात्मिका भाषा है और ध्वनियों के सुसंयोजन से त्वरा (टेम्पर) का सृजन किया जा सकता है। देवनागरी लिप्यक्षर ध्वन्याश्रित उत्पन्न कर सकते हैं।
इसी से संबंधित भाषिक प्रयोग द्वारा रस–निष्पत्ति के प्रयास की समस्या है। भारतीय भाषाशास्त्रियों एवं काव्यशास्त्रियों ने नव रसों को रसान्वित करनेवाली ध्वनियों एवं रूपायित करनेवाले अक्षरों (वर्णों) का निर्धारण किया है तथा उसके परिपाक के विरोधी ध्वनियों एवं वर्णों का भी संकेत किया है। यदि इनका ध्यान लघुकथा की भाषा–संरचना में रखी जाए, तो अद्भुत प्रभाव पड़ सकता है।
प्रत्येक लघुकथा का कुछ निश्चित उद्देश्य की पूर्ति करता है और कभी अनायास वह हो जाता है। इस उद्देश्य–साधना के संदर्भ में भाषा–प्रयोग की अपनी विशिष्ट भंगिमा होती है। लघुकथाकार को यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह उद्देश्योन्मुखी भाषा की संरचना के प्रति सचेत रहे।
वास्तव में पहले लघुकथा लिख ली जाए। फिर, अन्य बातों के अतिरिक्त उसकी भाषा का सावधानीपूर्वक संस्कार किया जाए। संभव है कुछ निर्मम होना पड़े या पूरी लघुकथा को दोबारा लिखना पड़े। श्रेष्ठ लघुकथा बनाने के लिए भाषा के बिन्दु पर विशेष सावधानी रखनी चाहिए।
हिन्दी लघुकथा अपेक्षाकृत नई विधा है। विधा के रूप में अपने संघर्ष के क्रम में मनीषी लघुकारों एवं लघुकथा–समीक्षकों ने न केवल उत्तम कोटि की लघुकथाओं का सृजन किया; वरन् लघुकथा का नया समीक्षाशास्त्र विकसित करने का प्रयास किया। इस सिलसिले में सर्वश्री (डॉ0) सतीशराज पुष्करणा, (डॉ0) सुकेश साहनी, (डॉ0) कमल चोपड़ा, राकेश जी, कृष्णानन्द ‘कृष्ण’, श्री बलराम, (डॉ0) सतीश दूबे, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, भगीरथ, श्यामसुन्दर दीप्ति एवं (डॉ0) स्वर्णकिरण आदि की लघुकथाओं ने हिन्दी लघुकथा के मानक खड़े किए। साथ–ही–साथ अपनी लघुकथा के संकलनों में, विविध लघुकथाकारों के संग्रह–ग्रंथों में, लघु एवं अन्यान्य पत्रिकाओं में लघुकथा की पहचान,उसके विविध गुण–दोषों पर विस्तृत विचार प्रकट किए। इस अवधि में कुछ महत्त्वपूर्ण लघुकथा–संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें (डॉ0) सतीशराज पुष्करणा द्वारा संपादित ‘कथा–देश एवं ‘दिशाएँ’; श्री बलराम द्वारा संपादित ‘भारतीय लघुकथा कोश’ एवं ‘विश्व लघुकथा कोश’; (डॉ0) सुकेश साहनी लिखित ‘ठंडी रंजाई’ और श्री कृष्णानन्द कृष्ण द्वारा संपादित ‘शताब्दी शिखर की हिन्दी लघुकथाएँ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। हिन्दी की विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में बराबर लघुकथाओं का प्रकाशन भी हो रहा है और कई व्यक्तिगत संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इनके अतिरिक्त अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच के विविध वार्षिक अधिवेशनों के अवसर पर लघुकथाओं का पाठ एवं उनकी सद्य–समीक्षाएँ तथा विचार–गोष्ठियों में विद्वत्तापूर्ण आलेखों से हिन्दी लघुकथा का समीक्षाशास्त्र भी स्वरूप ले रहा है। इन सभी संरचना पर जो तथ्य एकत्र किए गए हैं, उनका यथासाध्य समायोजन करने का प्रयास किया गया। इन बिन्दुओं पर अब गंभीरतापूर्वक विचार करने का अवसर आ गया है।
सामान्यत : सर्जक को अपनी सृष्टि के प्रति स्नेह एवं मोह हो जाता है। वह तटस्थ, न्यायप्रिय, ईमानदार एवं संघर्षशील समीक्षक के रूप में उसके गुण–दोष का स्वयं विवेचन नहीं करना चाहता। यह बात हिन्दी लघुकथाकारों में अधिसंख्यक के साथ भी सत्य लगता है। कुछ सिद्धहस्त, निरंतर लेखन–रत एवं मूर्धन्य लघुकथाकारों को छोड़कर कई लघुकथाकारों की अच्छी लघुकथाएँ भी अपनी भाषिक संरचनात्मक पूर्व–विवेचन के अभाव में श्रेष्ठ लघुकथाएँ बनने से वंचित रह जाती हैं। इसी पीड़ा से हिन्दी लघुकथाकारों, खासकर नवोदित एवं उदीयमान लघुकथाकारों, के लिए भाषिक विवेचना के लिए एक प्रश्नावली का ढाँचा तैयार किया जा रहा है। प्रत्येक लघुकथा की रचना हो जाने के बाद लघुकथाकार को इन प्रश्नों को स्वयं करना चाहिए और यदि आवश्यक दीखे, तो संशोधन–परिवर्धन करना चाहिए; क्योंकि सर्जक अपनी कृति का सबसे पहला विवेचक होता है और निरंतर अभ्यास से कुछ दिनों के बाद वह इस स्थिति से शनै:शनै: उबर सकता है और उसकी रचित लघुकथाएँ श्रेष्ठ लघुकथा की श्रेणी में शुमार होने लगेंगी।
1.क्या विवेच्य लघुकथा में कोई ऐसा शब्द, वाक्यांश, वाक्य या विरामचिह्न ऐसा है, जिसको हटाया या बदला जा सकता हैं?
2.क्या वातावरण सृजन के विवरणात्मक अंश, घटना–परिघटना के विवरण के अंश में कुछ शब्दों, खासकर विशेषणों एवं क्रियाविशेषणों के बिना भी प्रभविष्णुता को कायम रखा जा सकता है?
3. क्या पात्रों के बीच दिए संवादों में भाषिक चुस्ती, त्वरा, भंगिमा एवं अभीप्सित प्रभाव बनाए रखा जा सकता है या बढ़ाए जाने के लिए कुछ और शब्दों को जोड़ना है या शब्दों का क्रम बदलना है या ध्वन्यात्मकता के लिए और काव्यात्मक गुण का समावेश करना है?
4.आपके संवादों के शब्द–चयन एवं वाक्य–संरचना में पात्रानुकूल, परिस्थिति–अनुकूल एवं रसानुकूल शब्दों का चयन एवं वाक्यों की संरचना, विराम–चिह्नों सहित, की गई है?
5. लघुकथाकार ने जो कथावस्तु अपनी लघुकथा में ली है और इस लघुकथा से जिस सोद्देश्यता का प्रतिपादन करना वे चाहते हैं एवं अपने पाठकों को संदेश, संदर्भ या कथा–रस का स्वाद देना चाहते हैं, क्या उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा के द्वारा वह साध्य हो सकी है? यदि कहीं कोई शब्द या वाक्य इसमें बाधक है, तो हटाया जा सकता है?
भाषा रचनाकार का व्यक्तित्व होता है, जो एक–दूसरे को अलग व्यक्तित्व प्रदान करता है। यदि किसी लघुकथाकार की कुछ लघुकथाओं को पढ़ा–सुना जाए और अनुमान लगा लिया जाए कि यह अमुक लघुकथाकार की लघुकथाएँ हो सकती हैं, तो वे लघुकथाएँ अपनी पहचान बना लेती है और भाषिक दृष्टि से सफल हैं। यह कार्य निरंतर सचेष्ट साधना से ही संभव है।
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