किसी भी रचना की रचना-प्रक्रिया के विषय में लिखना आसान काम नहीं होता। जैसे कुम्भकार के हाथों चाक पर घूमता हुआ मिट्टी का लोंदा किस क्षण विशेष में खास बर्तन का आकार ग्रहण कर लेता है और उसकी उँगलियों के कलात्मक स्पर्श से एक सुंदर कला-कृति का स्वरूप ग्रहण कर लेता है स्वयं कुंभकार को भी पता नहीं चलता। ठीक वैसे ही जब कोई घटना लेखक को आंदोलित करती है, उसके अंतःकरण को संवेदित करती है, तब रचना उसके भीतर पकने लगती है। उस प्रक्रिया के आरंभ होने वाले क्षण विशेष को पकड़ना और हू-ब-हू उसका वर्णन करना बहुत कठिन कार्य होता है। रचना-प्रक्रिया को समझने के लिए आत्मनिरीक्षण बहुत जरूरी हो जाता है।
मेरी समझ के मुताबिक जब कोई रचना अनुभूति और संवेदना के स्तर पर किसी घटना या विचार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से साक्षात्कार करती है, संवेदित होती है तब उसके अंतश्चेतना में एक हलचल शुरू होती है। वह हलचल और विचार-मंथन उसके भीतर तब तक चलता रहता है जब तक वह किसी रचना-विधा का आकार ग्रहण करने की स्थिति में नहीं आ जाता। रचनाकार के लिए वह क्षण विशेष एक सुखद अनुभूति देता है, जब रचना अपने स्वरूप को ग्रहण करने की ओर अग्रसर होती है। रचनाकार इस सुखद अनुभूति का अनुभव तो करता है किन्तु उसके रंग-रूप और भाव को ठीक-ठीक व्यक्त नहीं कर पाता है। फिर भी मैं अपनी समझ से हिन्दी-लघुकथा की रचना-प्रक्रिया से पाठकों का साक्षात्कार हो सके इसकी एक कोशिश कर रहा हूँ।
रचना-प्रक्रिया पर लिखने के पहले कुछ बातें मैं रचना-प्रक्रिया के पूर्व की करना चाहता हूँ , जो लेखक को रचना करने की प्रेरणा देता है। सबसे पहली चीज होती है लेखक का अपना परिवेश जहाँ से वह अपनी रचनाओं के लिए कच्चे माल यानि प्लाट का चुनाव करता है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका सामाजिक-पारिवारिक परिवेश और सामाजिक संरचना जिसके बीच वह पलता-बढ़ता है, की होती है। मेरे लिए लेखन कभी भी शौकिया लेखन नहीं रहा। मेरी आँखों के सामने जब-जब ऐसी घटनाएँ घटती हैं जिससे मानवीयता का क्षरण होता है, समाज में अत्याचार-अनाचार का बोलबाला बढ़ जाता है और आम आदमी की पीड़ा असह्य हो जाती है तो मेरे भीतर एक हलचल शुरू होती है और वह तभी शांत होती है जब अनुभूति जन्य संवेदनात्मक आवेग की अभिव्यक्ति के रूप में लघुकथा लिख ली जाती है।
लघुकथा लेखन के लिए पहली जरूरत है कथानक का चुनाव। लघुकथा के लिए कथानक और प्लाट या विषय वस्तु का चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण और अहम है। हर लेखक अपनी क्षमता, अपनी लेखकीय दृष्टि और वैचारिक पक्षधरता के अनुसार कथानक का चुनाव करता है। वैसे हमारे इर्द-गिर्द सामाजिक-राजनैतिक हलकों में कदम-कदम पर लघुकथा के प्लाट छितराए पड़े रहते हैं। जरूरत होती है उसे अपनी क्षमता के अनुसार पाठकों के सामने प्रस्तुत करने की। किसी भी रचना की दमदार प्रस्तुति लेखकीय क्षमता पर निर्भर करता है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संवेदना रचना के लिए एक जरूरी शर्त है। क्योंकि बिना संवेदना के कोई भी रचना पाठक को बाँध नहीं पाती। वहीं दूसरी ओर वैचारिक प्रतिबद्धता और लेखकीय दृष्टिकोण का भी उतना ही महत्व है। क्योंकि विचारशून्य रचना का कोई अर्थ नहीं होता। बिना इन तथ्यों के रचना दमदार नहीं होती । इसलिए लघुकथा लेखन में कथानक का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होता है।
लघुकथा लेखन में कथानक के चुनाव से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात है उसकी प्रस्तुति; क्योंकि विषय-वस्तु कभी भी नया नहीं होता। आप विश्व-साहित्य वाङ्मय को खंगाल कर देखेंगे तो पता चलेगा कि वह विषय पहले से मौजूद है। चाहे वह हिंसा की बात हो या प्रेम की, अमीरी-गरीबी की हो या शोषक-शोषित की, भ्रष्टाचार की हो या चारित्रिक स्खलन का, युद्ध का हो या शांति की इन विषयों पर रचनाएँ पहले से मौजूद मिलेंगी। तब सवाल उठता है कि नया क्या होता है? मेरे ख्याल से विषय-वस्तु की संपूर्णता में प्रस्तुति ही वह चीज है जो रचना को नया और विशिष्ट बनाता है। लेखकीय दृष्टिकोण और वैचारिक प्रतिबद्धता रचनाशीलता की नयी जमीन तलाशती है और उसकी प्रस्तुति में नयापन ला देती है। यही वह बिंदु है जहाँ रचना विशिष्ट बन जाती है। लघुकथा लिखने के समय मुझे महसूस हुआ है की लेखक की स्थिति उस कुम्भकार की तरह होती है जो चाक पर रखी हुई मिट्टी से हाथ की उँगलियों के इशारे पर कलात्मक वस्तुओं का निर्माण कर देता है। रचनाकार भी इसी तरह जीवन से किसी अनगढ़ घटना को उठाता है, उसमें अपनी दृष्टि, अपने अनुभव तथा अपनी कल्पनाशीलता के सहारे उसे तराशते हुए एक सुन्दर रचना के रूप में प्रस्तुत करता है। इस प्रक्रिया में लेखक रचना के लिए उठाए गए विषय-वस्तु को भीतर-भीतर पकने देता है। रचना का पूर्ण रूप जब उसके भीतर पक कर तैयार हो जाता है तब वह रचना करने के लिए बैठता है। इस दौरान मुझे महसूस हुआ है कि सृजन-प्रक्रिया की परिपक्वता रचना में विश्वसनीयता, संवेदनशीलता और आक्रोश पैदा करती है जो पाठक को सीधे प्रभावित करता है।
लघुकथा की रचना-प्रक्रिया के दूसरे पहलुओं पर विचार करने पर ऐसा लगता है कि मुख्य रूप से जिन तत्त्वों की आवश्यकता रचना को उत्तमता प्रदान करने में होती है वो है रचना की भाषा, शिल्प और उसकी शैली। वैसे रचना में शीर्षक भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
लघुकथा की रचना-प्रक्रिया में भाषा का बहुत बड़ा महत्व है। इसलिए सृजन के दौरान भाषा पर ध्यान देना आवश्यक है। रचना की भाषा जितनी फोर्सफुल होगी रचना का उतना ही ज्यादा प्रभाव पाठक पर पड़ता है। शब्दों का चयन और उनका प्रयोग जितना सटीक होगा लघुकथा की मारक क्षमता उतनी ही तीव्र होगी। सृजन के दौरान लेखक को पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग करना चाहिए। भाषा कमजोर होने से रचना का प्रभाव पाठक पर कम पड़ता है। भाषा किसी भी रचना की जान होती है। इसलिए भाषा सहज, सरल, बोधगम्य और सीधे संप्रेषित होनी चाहिए तभी वह अपने पाठकों पर मनोनुकूल प्रभाव छोड़ने में समर्थ होती है। हर समर्थ लेखक अपनी रचनाओं में अपनी भाषा के द्वारा पहचाना जाता है।
किसी रचना को सशक्त बनाने में जितना महत्व भाषा का है उससे कम महत्त्व शैली का नहीं है। संप्रेषण के लिए अगर भाषा का सशक्त होना जरूरी है तो पाठकों को बाँधने के लिए शैली का भी उतना ही महत्व है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि कोइ रचना सिर्फ शैलीगत प्रयोग के लिए यादगार बन जाती है। हर लेखक की अपनी अपनी लेखन शैली होती है। शैली की व्याख्या करते हुए विभिन्न विद्वानों ने अपने मतानुसार उसे परिभाषित करने की चेष्टा की है। किसी ने शैली को उस साधन का नाम दिया जो रमणीय आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक रूप से वाक शक्ति के समस्त सरस तत्वों की अभिव्यक्ति में अभिनव उक्ति व्यक्ति का संचार करता है। किसी ने विचारों का आभरण और सादा पहनावा बतलाया। शैली मूल रुप से व्यक्तिगत गुण होती है जिसमें पाठकों को अभिभूत करने की शक्ति होती है। पाठक अभिभूत तभी होते हैं जब उचित शब्दों का प्रयोग उचित स्थल पर प्रभावपूर्ण तरीके से किया गया हो। कुल मिलाकर देखें तो प्रत्येक लेखक की अपनी शैली होती है। यानि शैली को हम व्यक्तिगत गुण मान सकते हैं। पाश्चात्य साहित्यकारों एवं दर्शन-शास्त्रियों ने शैली की व्याख्या करते हुए उसे रचना के लिए आवश्यक तत्व माना है जो निश्चय ही लेखक का व्यक्तिगत गुण होता है जिसे वह अपनी प्रतिभा के बल पर विकसित करता है।
रचना में शिल्प का महत्व शैली से तनिक भी कम नहीं है। शिल्प की अवधारणा को लेकर काफी मत वैभिन्य है। अभी तक शिल्प की कोई निश्चित परिभाषा नहीं गढ़ी गयी है। अपनी स्वतंत्र सत्ता न रहते हुए भी साहित्य कला के रूप में शिल्प की स्वतंत्र इयत्ता है। किसी भी रचना के आलोक में हम शिल्प को उसके संपूर्ण रचनात्मक, संगठनात्मक ढाँचा, बाह्य संरचना, उसके गुण और दोष के आधार पर समझ सकते हैं। शिल्प रचना की संपूर्ण इयत्ता को प्रकट करता है। यानि शिल्प वस्तु के संपूर्ण ढाँचे के साथ प्रकट होता है। किसी भी रचना के संपूर्ण स्थापत्य कला को शिल्प के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के मतानुसार रचना के फार्म के रूप मे वह पहचानी गयी तो कभी संपूर्ण संगठनात्मक ढाँचे के रूप में। किसी ने रचना के बाह्य रूप-रेखा के रूप स्थापित किया तो किसी ने संपूर्ण रचना की प्रस्तुति के रूप में व्याख्यायित किया। प्लेटो के मतानुसार शिल्प ’’Total of structure,meaning and character of the work as a whole’’ यानि वस्तु के संपूर्ण बनावट, उसके अर्थ और गुण की संपूर्णता में एक साथ उपस्थिति को शिल्प के रूप में स्वीकार किया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि शिल्प-शैली विषय-वस्तु, अभिव्यक्ति और रचना के संपूर्ण स्ट्रक्चर का एक रूप है। सूक्ष्म अवलोकन से पता चलता है कि न विषय-वस्तु अलग से शिल्प है न उसकी अभिव्यक्ति न उसकी शैली बल्कि इन सभी के समानुपातिक मेल से तैयार संपूर्ण रूप ही शिल्प के रूप में उभरकर हमारे सामने आता है। यानि किसी भी रचना के संपूर्ण क्राफ्टमैनशिप को हम शिल्प के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।
लघुकथा की रचना-प्रक्रिया में उपर्युक्त तत्वों के अलावा और भी कई बातें है , जिनका स्मरण रखना चाहिए। इनमें दो बातें बहुत महत्व की हैं। पहला है शीर्षक एवं दूसरा उसका वैचारिक पक्ष। इन दोनों का लघुकथा को श्रेष्ठता प्रदान करने में बहुत बड़ा योगदान होता है। कभी- कभी तो शीर्षक ही लघुकथा को खड़ा कर देता है। रचना में उसके वैचारिक पक्ष का भी महत्व कम नहीं होता । और यह विचार लेखक के अपने शैक्षणिक, पारिवारिक और सामाजिक परिवेश के आधार पर विकसित होता है। मैं मध्यवर्गीय परिवार से आया हूँ। राजनीति में मेरी कोई सक्रिय भागीदारी तो नहीं रही किन्तु राजनीति को नजदीक से देखने का मौका मिला तो लगा कि तमाम लोग दोहरे चरित्र वाले हैं। राजनीति में सक्रिय लोगों के हाथ से साहित्य की डोर छूट गयी और वे राजनीति की कठपुतली बन कर रह गये । उनकी चिंता आम आदमी की बेहतरी की बजाय दलीय राजनीति हो गयी। यह नहीं होना चाहिए था। वैचारिक पक्षधरता का उपयोग जीवन और समाज की बेहतरी के लिए होना चाहिए । जिंदगी की कोख से तप कर निकली हुयी रचना पाठक को बाँधती है। मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि सृजन-प्रक्रिया के दौरान रचनाकार के निजी विचार, उसकी जीवन दृष्टि, उसकी रचना-प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। और उसकी दिशा भी तय करते हैं। विचारहीन रचना का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि विचारहीन रचना आदमी को दिशाहीनता प्रदान करती है।
उपर्युक्त तथ्यों के अलावे आजकल दो शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। पहला डायग्नोस और दूसरा ट्रीटमेंट । कुछ लोग लिखते हैं- लघुकथा में सिर्फ डायग्नोस होता है ट्रीटमेंट नहीं। मेरी समझ से किसी भी रचना में डायग्नोस (निदान) की नहीं बल्कि विषय वस्तु के अनुसार उसके प्रतिपादन, विवेचन और निरूपण यानी ट्रीटमेंट की आवश्यकता होती है। उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में हम देखते हैं कि किसी भी रचना के सृजन में कथानक, विषय-वस्तु, भाषा, शिल्प-शैली के साथ-साथ वैचारिक पक्षधरता, संपूर्ण रूप से रचना का प्रतिपादन और प्रस्तुति का ढंग शामिल होता है जो रचना को उसके उच्चतम विन्दु की तरफ ले जाता है और उसे श्रेष्ठता प्रदान करने में सहायक होता है।
|