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‘हंस’ में सबसे अधिक संख्या में मिलनेवाली रचनाएँ हैं- ग़जलें और लघुकथाएँ। जिन्हें न भाषा की समझ है, न मुहावरे का ज्ञान ।वे उर्दू के भयानक शब्दों को लेकर ग़जलें झाड़े चले जाते हैं। पढ़कर कोफ़्त होती है, सिर धुनने को मन करता है। हाय,ग़जल तेरी यह दुर्दशा! गुलाम अली से लेकर पंकज उदास तक लोकप्रिय गायकों ने ग़ज़लों का ही सहारा लिया है। मलिका पुखराज और बेगम अख्तर को कौन भूल सकता है? ग़ज़ल की इस झनझना देनेवाली लोकप्रियता ने हर श्रोता को ग़ज़लकार बना दिया है।
इधर लघुकथाओं की बाढ़ आई है राजनैतिक विडम्बनाओं से। हर मंचीय कवि इनका इस्तेमाल करता है। शायद यह कहना सही होगा कि लघुकथाओं के नाम पर 99 प्रतिशत ये चुटकुले ही होते हैं। नेताओं के भ्रष्टाचार, आडंबर, ढोंग, हृदयहीनता ही अनिवार्यत: इन चुटकुलों के कथ्य हैं। इससे लेखकों के सामाजिक सरोकार तो पता लगते हैं, मगर प्राय: दो विरोधी स्थितियों को रखकर ही यहाँ चमत्कार पैदा कर दिया जाता है–धार्मिक अनुष्ठानी नेता चकलाघर चलाते हैं और त्याग और अपरिग्रह की बात करनेवाले स्मगलिंग करते हैं। कभी–कभी तो फूहड़पने की यह स्थिति है कि नामों को लेकर ‘लघुकथा’ गढ़ दी जाती है, जैसे दयाराम नाम के साहब मूलत: कितने क्रूर हैं। अक्सर हृदयहीनता भी इनके विषय होते हैं–भूखे मरते आदमी के लिए खाना नहीं है, कुत्तों और गायों को भोज कराया जाता है। मैं नहीं कहता कि हमारा समाज इन भयावह स्थितियों से नहीं गुजर रहा, मगर अखबार की कतरनें लघुकथाएँ नहीं होतीं। इन लघुकथाओं का दूसरा प्रिय विषय है पशु–पक्षियों के माध्यम से राजनैतिक टिप्पणी। हालत यह है कि लघुकथाओं की दुनिया राजनैतिक भेड़ियों, सियारों, शेर–भालुओं और बंदरों और कुत्तों से भरी पड़ी है। लगता है सारी लघुकथा, मदारियों, सर्कस–मालिकों या जू–व्यवस्थापकों के हाथों में चली गई है। वस्तुत: ‘लघुकथा’ आज गिने–चुने फामूर्लों का विस्तार होकर रह गई है।
मुझे लगता है जैसे गीत किसी लंबी कविता या खंडकाव्य का अर्क नहीं है, वैसे ही लघुकथा न बड़ी कहानी का सार–संक्षेप है, न उसकी रूपरेखा। एक छोटा चित्र अगर बड़ा कर दिया जाए, तो भी रहेगा वह वही चित्र। लघुकथा ग़ज़ल या दोहे की तरह एक स्वतंत्र विधा है, यह दूसरी बात है कि बहुत–सी लघुकथाएँ संभावनाओं के अनुसंधान में बाकायदा कहानी का रूप ले सकती हैं। पंचतंत्र,हितोदेश और जातक कथाओं, थेरी गाथाओं, अनंत लोककथाओं से लेकर ईसप, खलील ज़िब्रान ख्वाजा नसीरुदीन, कन्फ्यूशियस और अब आचार्य रजनीश तक लघुकथाओं की दुनिया का विस्तार रहा है। आदि–स्रोत तो पुराण, हदीस और बाइबिल हैं ही। थीम उन सबकी मूलत: दो–तीन ही हैं : व्यावहारिक समझदारी, सामाजिक विवेक और धार्मिक उपदेश- कथाएँ। वे प्राय: अपने सिद्धांतों और विश्वासों के प्रतिपादन या खुलासे के लिए दृष्टांत कथाओं के रूप में कही जाती हैं। कहीं–कहीं अपने धर्म–गुरुओं के गुणगान या उनकी सिद्धियों के चमत्कार दिखानेवाली कथाएँ भी हैं। आज भी वे अपनी संक्षिप्ति और प्रतिपादित ‘सत्य’ के कारण तत्काल प्रभाव डालती हैं, सोचने–विचारने के चमत्कारी सूत्र भी हमें वहाँ मिलते हैं, मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे पढ़ने के लिए नहीं, सुनाए जाने के लिए कही जाती थीं, इसलिए मोटे–मोटे सामान्यीकरणों या काले–सफेद में बँटी थीं। द्वंद्व दुष्ट और भले के बीच ही होता था। शायद इसी कारण वे ‘लोक’ में सबसे अधिक स्वीकृत हुई या ‘स्वीकृति’ के दौरान लोक ने उन्हें अपने अनुकूल ढाल लिया।
मुद्रण–सुविधाओं और पढ़ने की परंपरा ने साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथाओं में भी गुणात्मक परिवर्तन किए। कहानियाँ ज्यादा बारीक और अर्थगर्भी हुईं। मुझे ऐसा भी लगता है कि लघुकथाओं के इस रूप का प्रारंभ मुख्यत: गद्यगीतकारों के हाथों हुआ है ओर छायावादी युग में कवियों ने अपनी रहस्यानुभूतियों की कौंध (फ्लैश) को ही शब्दबद्ध करने की कोशिशें की हैं। शायद यह भी है कि लघुकथाओं में आज जो विषय की जटिलता और गहराई या रूप का गठन और विधा की स्वायत्तता आई है उसका श्रेय कथाकारों से अधिक कवियों, संतों और गद्यगीतकारों को अधिक जाता है। मुझे शक यह भी होता है कि क्या गद्यगीत ही लघुकथाओं की मूल भावस्थितियाँ नहीं थे? डेढ़ सौ साल पहले लिखी तुर्गनेव की ‘पोइम्स इन प्रोज़ के रूप में लिखी लघुकथाओं से ऐसी धारणा को बल मिला। अपने यहाँ भी इस दिशा में अनायास ही जो नाम उभरकर आते हैं उनमें रवींद्रनाथ ठाकुर तो हैं ही, हिंदी में महादेवी वर्मा, दिनेशनंदिनी, चौरडि़या, जैनेन्द्र कुमार, भँवरमल सिंधी, ब्रजलाल ब्रयाणी की रचनाएँ लघुकथाओं और गीतों की सरहदों में दुतरफा संक्रमण करती हैं। वैसे मैं आज भी तोल्स्तोय की कुछ लघुकथाएँ भूल नहीं पाता।
बहरहाल, इस क्षेत्र में बंगला के बनफूल और हिंदी के रावी का योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता। दोनों ने ही इसका गंभीर रचना के रूप में प्रारंभ किया, मगर लगता आज भी नहीं कि लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित हो पाई है–हालाँकि इधर बलराम द्वारा पाँच बड़ी जिल्दों में कोश बनाने की दुस्साहसी योजना मेरे सामने है (चार खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं–सं0) और छोटी पत्रिकाओं के लघुकथा अंक भी दो–चार देखे हैं। सम्मेलनों और गोष्ठियों की रिपोर्ट भी गाहे–बगाहे आ जाती हैं। शायद इसके दो कारण हैं। एक तो अभी तक इस क्षेत्र में इधर कोई ऐसी प्रथम श्रेणी की प्रतिभा नहीं आई है जिसने गहरी अंतर्दृष्टि दिखाई हो या विधा में प्रयोग किए हों, यानी जो अपनी आग से सबका ध्यान आकर्षित कर ले; दूसरे, इसके सिद्धांतपक्ष पर गंभीरता से कोई काम नहीं हुआ। अधिकतर कथाकारों ने पंद्रह–बीस लघकथाएँ जरूर लिखी हैं और निश्चय ही बहुत अच्छी हैं, मगर वह उनका मुख्य लेखन नहीं है। आज मुझे प्रथम श्रेणी का कोई लेखक,लघुकथाकार के रूप् में याद नहीं आ रहा। वे सब बाई द वे या पार्ट–टाइम प्रयासों की तरह हैं। किसी भी साहित्य में जब तक एक विधा के पाँच–सात पूर्णकालिक लेखक न हों, तब तक वह स्वतंत्र रूप में कैसे स्थापित हो सकती है? संस्कृत–पालि की बात छोड़ दें तो मुझे हिंदी में एक भी ऐसा कथाकार याद नहीं आ रहा है जो ख़लील ज़िब्रान की तरह अपने–आप में लघुकथा–लेखक के रूप में ही जाना जाता हो–यूँ रवीन्द्र वर्मा, उदय प्रकाश, रघुनंदन त्रिवेदी, प्रेमकुमार मणि, युगल, अवधेश कुमार, सुकेश साहनी या उर्दू में इंतजार हुसैन, जोगिन्दर पाल ने अद्भुत लघुकथाएँ लिखी हैं। इससे ज्यादा दयनीय स्थिति क्या होगी कि साहित्य की हर विधा को उपकृत करनेवाले ‘आचार्य’ गिरिराज किशोर तक से यह विधा अभी तक अबलात्कृत रही है।
हिंदी में आज की लघुकथाओं में सामाजिक–राजनैतिक सरोकार और बेचैनी तो बहुत है, मगर प्राय: समकालीन जीवन–स्थितियों के अनुभूति–स्पंदित क्षणों से बचने की प्रवृत्ति है। हममें से अधिकांश रूपक, प्रतीक, दृष्टांत जैसी ‘तरकीबों’ का सहारा लेना ज्यादा पसंद करते हैं।
कभी–कभी तो एक सूक्ति या वाक्य ही आधार बन जाता है। चूँकि यहाँ बहुत संक्षेप में बात का निचोड़ देना पड़ता है, इसलिए बड़ी कहानियों का सार–संक्षेप देने या शाश्वत सत्य उद्घाटित करने की मानसिकता आज की लघुकथाओं की प्रेरणा लगती है। बड़े चित्र को छोटा कर देना ही मिनियेचर–पेंटिंग नहीं होती–दोनों के लिए दो अलग एप्रोच की जरूरत है। उस अलग एप्रोच की अभी तक अलग से पड़ताल मेरे देखने में नहीं आई है। ग़ज़ल या दोहे की तरह जब तक इस विधा में बारीक–खयाली और ‘देखन में छोटे लगें’ वाली भाषा पर गंभीरता से काम नहीं होता, तब तक यह हाशियों पर बना दिए गए फूल–पत्तों की हैसियत से ऊपर नहीं उठ पाएगी।
वस्तुत: फोटोग्राफी की भाषा में लघुकथा एक ऐसा ‘स्नैपशाट’ है जिसे समय के प्रवाह में स्थिर कर दिया गया है। वह समग्र का हिस्सा भी है और स्वतंत्र भी। ‘कहानी’ उसके संदर्भों के साथ ही अर्थ संकेतित करती है।
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(हंस के सम्पादकीय से साभार)
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