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प्रौढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बाल्टी उठा जब सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो मैंने उसे सचेत किया, "घ्यान से चढ़ना। सीढ़ियों में कई जगह से ईटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।"
"चिंता न करो, जी! मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।"
और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बाल्टियाँ पानी ढोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला।
दो रूपए का नोट और चाय का कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा, "तू रोज आकर पानी भर दिया कर।"
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए संतू ने खुश होकर सोचा-"रोज बीस रुपए बन जाते हैं पानी के। कहते हैं अभी नहर में महीना और पानी नहीं आनेवाला। मौज हो गई अपनी तो !"
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगले दिन सीढ़ियाँ चढ़कर जब संतू ने बाल्टी माँगी तो पत्नी ने कहा, "अब तो जरूरत नहीं। रात को ऊपर की टूँटी में भी पानी आ गया था।"
"नहर में पानी आ गया! " संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियों पर कदम घसीटते लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों में गिरने की आवाज हुई। मैंने दौड़कर देखा, संतू आँगन में औधे मुँह पड़ा था। मैंने उसे उठाया। उसके माथे पर चोट लगी थी।
अपना माथा पकड़ते हुए संतू बोला, "कल बाल्टी उठाए तो गिरा नहीं, आज खाली हाथ गिर पड़ा।"
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