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स्त्री का दर्द
वे दोनों शहर से मजदूरी करके और कुछ जरूरत का सामान खरीद लौट रहे थे। स्त्री की गोद में बच्चा था। दोनों की उम्र यही 20–25 वर्ष की रही होगी। ऊबड़–खाबड़ और कंकड़ों–भरी सड़क पर चलते हुए अपने पति के बिवाई–भरे नंगे पैरों को देखकर स्त्री को असुविधा हो रही थी। वह बोली, ‘‘ए, हो दीनू के बाबू! तुम अपनी पनही जरूर खरीद लेना।’’
‘‘हाँ।’’ पुरुष ने कहा।
वे दोनों सोच रहे थे कि पनही खरीदना क्या आसान बात है? इतने दिनों से पैसा जोड़कर माह–भर पहले जो जूता उधार लेकर खरीदा था, उस पर किसी चोर की निगाह पड़ गई। उधार सिर पर था। अब उधार लेकर खरीदने की भी हैसियत नहीं थी।
फिर जहाँ रोज खाने को रूखा–सूखा जुटाना मुश्किल हो, वहाँ जूता बहुत ऊँची चीज थी, मगर औरत को अपने पांव में चप्पल और मर्द को नंगे पाँव ऊबड़–खाबड़ पथरीले रास्ते पर चलते देखकर असुविधा होती थी। वह कई दिन इसी ऊहापोह में रही, कुछ पैसे चोरी से बचाने की कोशिश की, मगर वे बचे नहीं। उस दिन भी औरत ने कहा, ‘‘न हो तो दीनू के बाबू, यह चप्पल पहन लो।।’’
मर्द हँसा, ‘‘जनाना चप्पल पहनें। इससे तो नंगे पैर अच्छे।’’
ठीक ही कहा, ‘‘नंगे पैर अच्छे!’’
बगल से गंगा नदी बहती थी। कगार से चलते हुए औरत मन ही मन कुछ बुदबुदाई, ‘‘हे गंगा मैया, अगर जुटा सको तो दोनों को जुटाना, नही तो इसे भी रख लो।’’
औरत ने अपनी चप्पल छपाक से पानी में फेंक दी। अब औरत को मर्द के नंगे पांवों से असुविधा नहीं हो रही थी।


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