घर में एक हार की चोरी हो गई। कोना–कोना छान मारा गया। संदेह घर की युवा नौकरानी पर गया। उससे पूछताछ की गई। उसने इन्कार कर दिया। उसी अटपटी बातचीत से संदेह और पक्का हो गया। उसके घर की तलाशी ली गई। हार बरामद हो गया। जब चुराने का कारण पूछा गया तो उसने टालमटोल किया। जब कसकर डांट पड़ी तो उसने बड़े नखरे से घर के अधेड़ मालिक की ओर उंगली उठाकर कहा, ‘‘बाबू साहब से पूछिए, उन्होंने मुझे दिया था।’’
उनकी मुहल्ले में बड़ी इज्जत थी। सरेआम लोगों के सामने तोहमत लगाए जाते देखकर उनको काटो तो खून नहीं। गुस्से से थरथर कांपते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘चुड़ैल, झूठ बोलती है! बोल, मैंने कब दिया तुझे?’’
जवान नौकरानी जरा भी नहीं डरी। आँखों में आँखें डालकर नैन मटकाते हुए बोली,‘‘यह बात भला सबके सामने पूछने की है, मुझे तो शर्म आ रही है।’’ इतना कहकर उसने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया।
मकान मालकिन के तन–बदन में आग लग गई। वह मुड़कर अपने पति से बोली, ‘‘क्यों जी, तुम्हें तो ऐसा नहीं समझती थी। कब से यह गुल खिला रहे हो?’’
‘‘मगर मैंने तो....यह बिलकुल झूठ कह रही है।’’ कहते हुए उनकी घिग्घी बंध गई। वहाँ खड़े सभी लोग कानाफूसी करने लगे। तुम मुझे बदनाम करोगे। क्या यह हार खुद तुमने मुझे नहीं पहनाया था? मेरी इज्जत से क्यों खेल रहे हो? कबूल कर लो न।’’ बाबू साहब गुस्से से उफनते हुए वहाँ से हट गए। युवा नौकरानी मन ही मन मुस्करा रही थी। कौन किसकी इज्जत से खेल रहा था?