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इक्कीसवीं सदी का सपना
मेरे किशोर होते हुए पुत्र ने एक सपना देखा। उसने देखा कि एक मोटरसाइकिल पर वह कहीं जा रहा था। रास्ते में घने जंगल, छोटी–बड़ी नदियाँ, छोटे–बड़े नगर, इन सबको पीछे छोड़ता हुआ वह एक भव्य महानगर में जा पहुँचा। महानगर के बीच में बने एक आलीशान नगर–द्वार के पास जब वह पहुँचा तो वहाँ उसे एक ब्रह्यचारी खड़े नजर आए। उन्होंने रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे। उनके गले में रुद्राक्ष की माला थी। पेरों में मत्स्याकार खड़ाऊँ थी। रोशनी का फव्वारा उनके पूरे शरीर पर पड़ रहा था। ब्रह्यचारी ने हाथ के इशारे से रोका। पुत्र रुक गया।
ब्रह्यचारी ने कहा, ‘‘वत्स, तुम न जाने कितने नद–नदी,वन–उपवन, नगर–उपनगर पार करते हुए यहाँ तक आए हो। तुम्हारी यात्रा पूरी हुई। तुम्हें अब कहीं जाने की जरूरत नहीं। यह महानगरी राजधानी ही सबकी मंजिल है।’’
‘मगर मुझे तो कहीं और जाना है।’’
‘‘यही सबकी मंजिल है, तुम्हारी भी।’’
‘‘जो आज्ञा!’’
‘‘तुमसे मैं प्रसन्न हूँ। एक तोहफा देना चाहता हूँ। जरा अपनी बाई ओर देखो।’’ पुत्र ने बाई ओर देखा। एक तरफ स्वर्णाभूषण और मुद्राओं का ढेर था तो दूसरी तरफ एक स्वाचालित स्टेनगन रखी थी। दोनों ही प्रकाश में चमक रही थे। ब्रह्यचारी ने कहा, ‘‘इन दोनों में से जो चाहो, तुम उठा लो।’’
पुत्र ने एक नजर दोनों पर डाली। फिर लपककर स्टेनगन उठा ली। बोला, ब्रह्यचारीजी, यह स्टेनगन मेरे पास रहेगी तो मुझे किसी चीज की कमी नहीं होगी, ऐसे न जाने कितने स्वर्णाभूषण और धन की ढेरियाँ मेरे कदमों में होंगी। बस, आशीर्वाद दीजिए, यह मोटरसाइकिल और स्टेनगन सलामत रहे।’’
‘‘एवमस्तु!’’ ब्रह्यचारी ने कहा। अपने सपने की बात सुनकर बेटा हँसने लगा, पर उस दिन से मेरी आँखों की नींद गायब है।


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