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लघुकथाएँ - देश - अमरजीत कौर
पर्दा

सारा दिन उछलती कूदती, भाइयों के साथ गली में फुटबाल खेलती, तितली सी थिरकती, धिरकती लड़की को जब पर्दे में बैठाने की बात हुई तो वह भड़क उठी–क्यों?–मैं नकाब हरगिज़ नहीं पहनूँगी।’
‘समझो बेटी, बड़ी हो रही हो। राह बाट पर लोग बुरी नज़र से देखते हैं। इसलिए....’
‘तो उन बुरी नजर वालों की आँखों पर ही पट्टी बँधवाइए न!’
‘तौबा,तौबा....’

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