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लघुकथाएँ - देश - हरीश कुमार ‘अमित’
परिवर्तन

उसे लग रहा था कि तनाव से उसका सिर ही फट जाएगा। वह बहुत पछता रहा था कि उसने बीवी–बच्चों को प्रगति मैदान में लगा व्यापार मेला दिखाने का कार्यक्रम बनाया ही क्यों। पहले तो भीड़भरी बस में प्रगति मैदान तक आते–आते हालत खराब हो गई थी। और फिर जितनी उसे आशा थी, उससे कहीं बहुत ज्यादा खर्च हो गया था। यहां तक कि आड़े वक्त के लिए बचाकर रखे गए दो सौ रूपए में से भी सौ से ज्यादा रूपए उड़ गए थे। मगर इसके बावजूद उसकी बीवी और दोनों बच्चों के मुंह फूले हुए थे। मेले में तरह–तरह की चीजें देखकर उन्हें खरीदने की इच्छा उन सबकी हो आई थी। अपने दिमाग की चेतावनियों को नजरअन्दाज करके बीवी–बच्चों को कुछ छोटी–मोटी उसने ले दी थीं, पर फिर भी उनकी अनेक मनचाही चीजें खरीदने से रह गई थीं। न–न करते भी खाने–पीने पर काफी खर्च हो गया था। चीजों के रेट ही आसमान को छू गए थे।
प्रगति मैदान से बाहर आनेवाले गेट के पास वे पहुंचने ही वाले थे कि उसके छोटे बच्चे की नजर खिलौने बेचने वाले पर पड़ी और वह प्लास्टिक की एक छोटी बन्दूक दिलाने की जिद करने लगा। बन्दूक दस–पन्द्रह रूपए में ही आ जाती, पर अपनी खस्ता आर्थिक हालत के कारण उसे यह खर्च बिल्कुल फिजूलखर्ची लगा। उसने बच्चे को बुरी तरह झिड़क दिया और अपनी चाल तेज कर दी।
तभी उसने देखा गेट के पास उसके दफ्तर का साथी, खन्ना अपने परिवार के साथ खड़ा था। उन सबके हाथ खरीदी गई चीजों के पैकटों से लदे–फदे थे और एक आदमी उन लोगों के हाथों से कुछ पैकेट लेकर उनका बोझ हल्का करने की कोशिश कर रहा था। उसके दिमाग में आया कि हो न हो खन्ना ने दफ्तर में अपने पास आने वाली किसी पार्टी से मुफ्त में कार का जुगाड़ किया है और यह उसीकार का ड्राइवर है। खन्ना जैसे चालू आदमी के लिए ऐसे जुगाड़ करना बाएं हाथ का खेल था और खुद उसके लिए महापाप। आदर्शवाद का भूत जो सवार था उस पर।
तनाव से भरा उसका दिमाग अब जैसे तनाव के समुद्र में गोते खाने लगा था अपनी स्थिति उसे और भी दयनीय लगने लगी थी। खन्ना के सामने वह किसी भी हालत में पड़ना नहीं चाहता था।
वह एकदम से रूक गया और खिलौने वाले को पास बुलाकर प्लास्टिक की बन्दूक खरीदने लगा।

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