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लघुकथाएँ - देश - आनंद
धरोहर

चकित–सा मैं राजघराने के विशाल संग्रहालय को देख रहा था। राजघराने का गौरवशाली अतीत अपने सम्पूर्ण वैभव और पराक्रम के साथ मौजूद था वहाँ, जबकि देश के ज्यादातर लोगों का वर्तमान भी बिगड़ा जा रहा था। वहाँ, अपनी चमक–दमक से आँखें चुँधिया देने वाले बहुत–से मुकुट थे, जिनके बारे में प्रसिद्ध था कि हरेक उनके आगे झुकता,मगर वे किसी के आगे नहीं झुकते थे। थोड़ा आगे वे तलवारें, भाले और धनुष–बाण थे, जिनसे दुश्मन की छाती छेदकर मान मर्दन किया गया था। वे शेर, चीते और दूसरे खूँखार जंगली जानवर थे, जिनका किसी–न–किसी राजा ने शिकार किया था। यह राजा का प्रताप होता था कि कोई उनके हाथों अगर मारा भी जाता था, दर्शनीय और इतिहास की धरोहर बन जाता। अलग–अलग आकार और डिजाइन की मदिरा की सुराहियाँ और प्याले थे, हालाँकि खाली थे। उगालदान था, जिसमें किसी राजा ने थूका था। पहली बार लगा कि महान लोगों का किसी में थूक देना भी उसे महत्वपूर्ण बना देना है।
रानियों–महरानियों के रत्न जडि़त लिबास रखे थे, वे दर्पण थे, जिनमें सज–सँवर कर हरेक रानी खुद को निहारती होगी और सोचती होगी कि राजा उसे निहारेगा तो कैसा लगेगा? कलात्मक ढंग से बने कई सिंगार दान थे। किसी सिंगारदान की अहमियत इस लिए नहीं थी कि कारीगर ने उसे कितने कलात्मक ढंग से बनाया था, बल्कि इसलिए थी कि अमुक रानी इसका प्रयोग करती थी। सोने और चाँदी के काम वाले छोटे–छोटे नोकदार जूते थे। ठीक उन दिनों,जिन दिनों छोटे–छोटे राजकुमारों के नन्हें–नन्हें पाँव इन सुन्दर–सुन्दर जूतों से सजे होंगे, देश का ज्यादातर बचपन गर्मियों में गर्म रेत पर नंगे पैरों जल रहा होगा, जबकि सर्दियों में ठंडी रेत पर ठिठुर रहा होगा।
वे महाकाव्य थे, जिन में कवियों ने राजाओं की वीरता के गुण गान किए थे। दूसरे राजाओं को लिखे पत्र रखे थे। वे हुक्मनामे थे, जिन्हें खास–खास मौकों पर जारी किया गया था। हरेक हुक्मनामे के नीचे उसे जारी करने वाले राजा के हस्ताक्षर थे।
राजघराने के अतीत के रू–ब–रू होते हुए यह विचार एकाएक आया कि मेरे पास अपने पूर्वजों से जुड़ी एक भी चीज नहीं है, हालाँकि होनी चाहिए थी। बेशक कोई बहुमूल्य चीज नहीं, मगर पूर्वजों का प्रयोग किया हुआ कुछ भी । पिता की पगड़ी या धोती का फटा–पुराना कोई हिस्सा। माँ का पहना कोई कपड़ा या चूड़ी का कोई टुकड़ा,या...नहीं,जेवर मिलने की कोई सम्भावना नहीं थी। माँ के पास कोई जेवर नहीं था। अपने बचपन का मिट्टी का कोई टूटा–फूटा खिलौना भी मिल सकता था।
जल्दी से घर पहुँचा और अतीत की कोई धरोहर खोजने लगा, मगर निराश हुआ, क्योंकि मिला कुछ भी नहीं। अलबत्ता तो गरीबी और अभाव कुछ भी बचा रखने की मोहलत नहीं देते, फिर यह भी याद आया कि पिता का बनाया झोंपड़ा तो पिछले दिनों आई बाढ़ बहा ले गई थी। इस नए झोंपड़े में पुराना कुछ मिले भी तो कैसे?
सब कुछ गँवा चुके व्यक्ति–सा दुख में डूबा था कि गाँव का साहूकार बगल में बही दबाए, आया।
‘‘शायद तुम्हें मालूम नहीं, तुम्हारे पिता की तरफ कुछ कर्ज बकाया है।’’ बही के पन्ने पलटते हुए उसने कहा, ‘‘लो, खुद देख लो। एक–एक पाई का हिसाब लिखा है। तुम्हारे पिता का अँगूठा लगा है।’’
मैं रोमांचित हो उठता हूँ। मेरे किसी पूर्वज का कुछ तो मिला। और कुछ नहीं तो पिता के अँगूठे का निशान ही सही। उतावला–सा अँगूठे का निशान देखता हूँ। जैसे हुक्मनामे के नीचे राजा के हस्ताक्षर थे, वैसे ही कर्ज के नीचे पिता का अँगूठा था। तो ऐसा था उनका अँगूठा! मुँह माँगी मुराद पाए इन्सान की तरह, खुशी से पागल–सा मैं, देर तक अँगूठे के निशान को देखता रहता हूँ। फिर थोड़े से मूलधन और बहुत से ब्याज के जोड़ को देखता हूँ। पैरों के नीचे की जमीन खिसकती–सी लगती है। साहूकार के ऋण से छुटकारा पाने के लिए पैसा था नहीं। मूलधन और ब्याज का जोड़ इतना था कि अपना झोंपड़ा बेचकर भी चुकाया जा नहीं सकता था।
अपने अतीत की किसी धरोहर को पाने के लिए कुछ ही देर पहले तड़प रहा था मैं। लेकिन अब छटपटा रहा था कि साहूकार के पास गिरवी रखे अपने पिता के अँगूठे के निशान से छुटकारा मिले तो कैसे?

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