गैस भरे गुब्बारे लिए फुटपाथ पर खरीददरों की प्रतीक्षा से ऊब कर ऊंघने लगना उसकी आदत बन चुकी थी। अर्धचेतनावस्था में वह रंग–बिरंगे सपनों को गुब्बारों की शक्ल में उड़ते देखता उन्हें पकड़ने की कोशिश वह हमेशा करता। कभी–कभी सपनों के किसी गुब्बारे के नीचे लटकती डोर उसके हाथों के पास से गुजरती महसूस होती। पर जैसे ही वह उन्हें पकड़ने को होता, गुब्बारे ऊपर, और ऊपर उठ जाते। फिर किसी खरीददार की आवाज से उसकी चेतना यथार्थ में लौट आती। सपने सिमट जाते, सिर्फ़ गुब्बारे बचते।
चालीस सालों में वह एक भी गुब्बारा नहीं पकड़ पाया। उसका जवान बेटा फैक्ट्री के शोर में सपनों की धुन बनाता है और उसके धुएं में सपनों के चेहरे तलाशता है।
उसे याद आता है, बेटे ने कभी गुब्बारे के लिए जिद नहीं की थी।