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कपों की कहानी
आज फिर ऐसा ही हुआ। वह चाय बनाने रसोई में गया तो उसे फिर वही बात याद आ गई। उसे फिर चुभन हुई कि उसने ऐसा क्यों किया?
दरअसल उसके घर की सीवरेज पाइप कुछ दिन से रुकी थी। आप जानते हैं कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति घर में सहज रूप में नहीं रह पाता। यह आप भी मानेंगे कि यदि जमादार न होते, तो हम सचमुच नरक में रह रहे होते। खैर! छोड़ो जमादार जब सीवरेज खोलने के लिए आ गए, तो उसकी साँस में साँस आई। वे दोनों पहले भी इसी काम के लिए आ चुके हैं। एक आदमी थक जाता, तो दूसरा बाँस लगाने लगता। कितना मुश्किल काम है? वह कुछ देर पास खड़ा रहा, फिर दुर्गन्ध के मारे भीतर चला गया। सोचने लगा कि इनके प्रति सवर्णों का व्यवहार आज भी कहीं–कहीं ही समानता भरा दिखता है। नही तो अधिकतर अमानवीय व्यवहार ही होता है। इतिहास तो जातिवादी व्यवस्था का गवाह है ही, आज भी हम सवर्ण इनके प्रति नफरत दिखाकर ही अपने में गर्व अनुभव करते हैं। यह संकीर्णता नही तो और क्या है? उसके मन में ऐसा बहुत कुछ उमड़ रहा था कि बाहर से आवाज आई–बाबूजी, आकर देख लो। वह उत्साह से बाहर गया। पाइप साफ हो चुकी थी।
‘बोलो–पानी या फिर चाय?’ उसने पूछा।
‘पहले साबुन से हाथ धुला दो,’ वे बोले। शायद वे उसकी उदारता को जानते थे। वह उनके प्रति अपनी उदारता को याद कर खुश होने लगा। हाथ धुलवाते हुए उसने जान–बूझकर दोनों के हाथों को स्पर्श किया ताकि उन पर उसकी उदारता का सिक्का जमने में कोई कसर न रह जाए। पैसे तो पूरे देगा ही, पर लगे–हाथ एक अवसर मिल गया। बोला–‘एक बार साबुन लगाने से हाथों की बदबू नहीं जाती। रसोई की नाली रुकी थी, तो मैंने कल हाथ से गंदा निकाला था। उसके बाद तीन बार हाथ धोए तब जाकर बदबू गई।’
‘बाबूजी, हमारा तो रोज का यही काम है। थोड़ी चाय पिला दो।’ वह यही सुनना चाहता था। यह तो मामूली बात है। इनके प्रति हमारे पूर्वजों द्वारा किए न्याय के प्रायश्चित के रूप में हमें बहुत कुछ करना चाहिए। लेकिन क्या? यह वह कभी नहीं सोच पाया। वह रसोई में बड़े उत्साह के साथ चाय बनाने में जुट गया। चाय का सामान डालकर उसने तीन कप निकाले। एक कप बड़ा लिया और दो छोटे। फिर सोचा, यह भेदभाव ठीक नहीं। उन्हें चाय की जरूरत मुझसे ज्यादा है। सोचकर उसने तीनों एक–से कप उठाए। ऐसे और कई कप रखे थे, लेकिन उसने एक कप साबुत लिया और दो ऐसे लिए, जिनमें क्रैक पड़े हुए थे। उधर चाय में उफान आया, तो उसने फौरन आँच धीमी कर दी।

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