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सुकेश साहनी
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रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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रिश्ते
वह आम बस थी और सरूप सिंह आम ड्राइवर था। सवारियों ने सोचा था कि भीड़–भाड़ से बाहर आकर बस तेज हो जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ। सरूपसिंह के हाथ आज सख्त ही नहीं, मुलायम भी थे। भारी ही नहीं, हल्के भी थे। उसका दिल आज बहुत पिघल रहा था। वह कभी बस को, कभी सवारियों को और कभी बाहर पेड़ों को देखने लगता, जैसे वहाँ कुछ खास बात हो। कंडक्टर इस राज को जानता था। लेकिन सवारियाँ बस की धीमी गति से परेशान हो उठीं।
‘ड्राइवर साहब, ज़रा तेज चलाओ, आगे भी जाना है।’ एक ने तीखेपन से कहा।
सरूप सिंह ने मिठास घोलते हुए कहा–‘आज तक मेरी बस का एक्सीडेंट नहीं हुआ।’
इस पर सवारियाँ और उत्तेजित हो गई। दो–चार ने आगे–पीछे कहा–‘इसका मतलब यह नहीं कि बीस–बीस पे ढीचम–ढीचम चलाओ।’
कोशिश करके भी सरूप सिंह बस तेज़ नहीं कर पा रहा था। उसने बढ़ते हुए शोर में बस रोक दी। अपना छलकता चेहरा घुमाकर बोला–‘बात यह है कि इस रास्ते से मेरा तीस सालों का रिश्ता है। आज मैं यह आखिरी बार बस चला रहा हूँ। बस के मुकाम पर पहुँचते ही मैं रिटायर हो जाऊँगा, इसलिए......’

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