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उपकार |
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रात का समय था और वह अकेला था। उसने दूर एक भव्य नगरी का प्राचीर देखा और उसकी ओर बढ़ा। जब वह पास पहुँचा तो उसने नगरी के अन्तराल से हास-परिहास के शब्द सुने।
उसने मुख्य द्वार खटखटाया। द्वारपालों ने उसके लिए द्वार खोल दिए।
उसने देखा-भवन मणि का बना है और उसके सामने मणि के अति सुन्दर स्तम्भ खड़े हैं। स्तम्भों पर फूलों के बन्दनवार लटक रहे थे। भवन के भीतर-बाहर चन्दन की मशालें जल रही थीं। उसने भवन के अन्दर प्रवेश किया।
रत्नजटित आसन पर उसने एक व्यक्ति को लेटे पाया ; जिसके बालों में गुलाब के लाल फूल लगे थे। उसने उसके पास जाकर उसके कन्धे पर हाथ रखा और कहा-तुम्हारा यह जीने का ढंग कैसा है?
वह युवक उसकी ओर मुड़ा। उसने उसे पहचान लिया, बोला-लेकिन मैं तो पहले कोढ़ी था और तुमने मुझे स्वास्थ्य प्रदान किया। फिर किस तरह जीवन व्यतीत करूँ मैं ?
वह तुरन्त उस भवन से बाहर आया। राजमार्ग पर आकर उसने एक स्त्री को देखा जिसका मुखड़ा और परिधान रंगीन थे। उसके नूपुरों में मोती जड़े थे। उसका पीछा एक युवक शिकारी की तरह कर रहा था। स्त्री परम सुन्दरी थी ओर युवक की आँखों में वासना की चमक थी।
उसने तेजी से उसका पीछा किया और नवयुवक का हाथ पकड़कर पूछा-तुम इस स्त्री की ओर क्यों देख रहे थे और इसे तरह क्यों घूर...
वह नवयुवक मुड़ा और उसने पहचान कर कहा-मैं तो अन्धा था। तुमने मुझे दृष्टि प्रदान की। फिर मैं और किसे निहारूँ?
उसने बढ़कर स्त्री का रंगीन आवरण छुआ और कहा-क्या पाप के अलावा कोई और मार्ग नहीं है?
औरत ने पलटकर उसे देखा। पहचान का हँसी और बोली -लेकिन तुमने तो मेरे पाप क्षमा कर दिए थे और फिर यह मार्ग सुखमय भी है ।
वह नगर छोड़कर तत्काल बाहर चला आया।
जब वह नगर के बाहर हो गया तो उसने राजमार्ग के किनारे एक युवक को रोते देखा।
वह उसकी ओर बढ़ा और युवक से बोला -तुम रोते क्यों हो?
युवक ने सिर उठाया और उसे पहचान कर कहा -मैं मर चुका था और तुमने मुझे फिर से जीवन दिया। मैं रोऊँ नहीं तो भला और क्या करूँ?
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