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लघुकथाएँ - संचयन - सुकेश साहनी
घंटियाँ

“कुछ भी कहो, गलत तरीकों से इकट्ठा किया गया रुपया फलता नहीं हैं।” महेन्द्र ने अपना मग बियर से भरते हुए कहा।
“बेकार की बात है,” रतन ने कहा, “आज ऐसे लोग ही फल-फूल रहे हैं।”
“मैं साबित कर सकता हूँ। जिला अस्पताल वालें। डाक्टर चंद्रा को ही ले लो। उसने गरीब मरीजों के लिए अस्पताल में आई दवाएँ बाज़ार में बेच-बेचकर खूब रुपया बटोरा था और पागलखाने में एड़िया रगड़ रहा है।”
“यह संयोग भी हो सकता है।” रतन चिढ़कर बोला।
“नरेश के बिजनेस पार्टनर नागराजन को तो भूले नहीं होंगे। उसने जिस तरह नरेश को धोखा देकर अपनी प्रोपर्टी बनाई, वो किसी से छिपा नहीं है। आज अपने दोनों बेटों से हाथ धो बैठा है।”
महेन्र्द बोलता जा रहा था, पर रतन की आँखों के आगे भारत-पाकिस्तान बँटवारे का वह दिन घूमने लगा था,जब दंगों के कारण दुमेल से भागते हुए अपने पड़ोसी पंडित रामनाथ को उनके कमरे में बंद कर दिया और उनके मंदिर में लगी सोने की घंटियाँ चुराकर हिंदुस्तान भाग आया था। कमरा बंद होने के कारण रामनाथ भाग नहीं पाया था और दंगाइयों ने उसे मौत के घाट उतार दिया था। आज उसकी सुदृढ़ आर्थिक स्थिति के पीछे पंडित के मंदिर से चुराए गए सोने का बहुत योगदान था।
“मैंने तो गलत तरीकों से धन बटोरने वालों को तबाह होते ही देखा है।” महेन्द्र ने अपनी बात खत्म करते हुए कहा।
इतनी देर में रतन बियर के तीन मग और हलक से नीचे उतार चुका था। उसे लगा, आज महेन्द्र जानबूझकर उससे इस तरह की बातें कर रहा है।
“बकवास बंद करो।” एकाएक वह चिल्ला पड़ा।
महेन्द्र ने हैरानी से अपने दोस्त की ओर देखा।
“लगता है---ज्यादा हो गई , चलो भीतर चलकर खाना खाते हैं।” महेन्द्र कुर्सी से उठा तो उसके कोट की आस्तीनों पर लगे पीतल के बटन खनखनाए ।
रतन को लगा, महेन्द्र घंटी बजाकर उसे चिढ़ा रहा है।
“हरामजादे, घंटी बजाता है।” वह चीखा, उसने पूरी ताकत से एक घूँसा अपने दोस्त के जबड़े पर जड़ दिया। इसी झोंक में वह अपना संतुलन भी खो बैठा और मेज, उस पर रखे काँच के सामान समेत वहीं ढेर हो गया---पर घंटियाँ अभी उसके कानों में बज रहीं थीं।

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