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लघुकथाएँ - देश - बलराम अग्रवाल
सुंदर

लड़की ने काफी कोशिश की लड़के की नज़रों को नज़रअंदाज़ करने की। कभी वह दाएँ देखने लगती, कभी बाएँ। लेकिन जैसे ही उसकी नज़र सामने पड़ती, लड़के को अपनी ओर घूरता पाती। उसे गुस्सा आने लगा। पार्क में और भी स्टूडैंट्स थे। कुछ ग्रुप में तो कुछ अकेले। सब के सब आपस की बातों में मशगूल या पढ़ाई में। एक वहीं था जो खाली बैठा उसको तके जा रहा था।
गुस्सा जब हद से ऊपर चढ़ आया तो लड़की उठी और लड़के के सामने जा खड़ी हुई।
‘‘ए मिस्टर!’’ वह चीखी।
वह चुप रहा और पूर्ववत् ताकता रहा।
‘‘जिंदगी में इससे पहले कभी लड़की नहीं देखी है क्या?’’ उसके ढीठपन पर वह पुन: चिल्लाई।
इस बार लड़के का ध्यान टूटा। उसे पता चला कि लड़की उसी पर नाराज हो रही है।
‘‘घर में माँ–बहन है कि नहीं।’’ लड़की फिर भभकी।
‘‘सब हैं, लेकिन आप ग़लत समझ रही हैं।’’ इस बार वह अचकाचाकर बोला, ‘‘मैं दरअसल आपको नहीं देख रहा था।’’
‘‘अच्छा!’’ लड़की व्यंग्यपूर्वक बोली।
‘‘आप समझ नहीं पाएँगी मेरी बात।’’ वह आगे बोला।
‘‘यानी कि मैं मूर्ख हूं।’’
‘‘मैं खूबसूरती को देख रहा था।’’ उसके सवाल पर वह साफ–साफ बोला, ‘‘मैंने वहाँ बैठी निर्मल खूबसूरती को देखा–जो अब वहाँ नहीं है।’’
‘‘अब वो यहाँ है।’’ उसकी धृष्टता पर लड़की जोरों से फुंकारी, ‘‘बहुत शौक है खूबसूरती देखने का तो अम्मा से कहकर ब्याह क्यों नहीं करा लेते हो।’’
‘‘मैं शादी शुदा हूँ, और एक बच्चे का बाप भी।’’ वह बोला, ‘‘लेकिन खूबसूरती किसी रिश्ते का नाम नहीं है। नहीं वह किसी एक चीज़ या एक मनुष्य तक सीमित है। अब आप ही देखिए, कुछ समय पहले तक आप निर्मल खूबसूरती का सजीव झरना थी–अब नहीं है।’’
उसके इस बयान से लड़की झटका खा गई।
‘‘नहीं हूं तो न सही। तुमसे क्या?’’ वह बोली।
लड़का चुप रहा और दूसरी ओर कहीं देखने लगा। लड़की कुछ सुनने का इंतज़ार में वहीं खड़ी रही। लड़के का ध्यान अब उसकी ओर था ही नहीं। लड़की ने खुद को घोर उपेक्षित और अपमानित महसूस किया और ‘बदतमीज कहीं का’ कहकर पैर पटकती हुई वहाँ से चली गई।

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