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लघुकथाएँ - देश - बलराम
गंदी बात

बाल–विकास पर आयोजित उस सेमिनार में बड़े–बड़े लोग आए थे–शिक्षाशास्त्री, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, चिंतक, लेखक तथा पत्रकार। निर्मल और वीणा ने भी वहाँ अपने–अपने पर्चे पढ़े तो बहस दो धाराओं में बँट गई।
एक धारा के अनुसार बच्चे को प्रारंभ से ही नियंत्रण में रखकर पढ़ाना–लिखाना चाहिए। इस धारा का प्रतिनिधित्व कर रही थीं श्रीमती वीणा आचार्य। दूसरी धारा के अनुसार बच्चे को पूर्णत : मुक्त रखकर खुद सीखने देना चाहिए। माता–पिता तो उन्हें सिर्फ़ साधन और सुविधा मुहैया करा दें। इस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे आचार्य निर्मल- श्रीमती वीणा के पति और उस चार वर्षीय बच्चे के पिता, जो जिद करके ‘उन दोनों’ के साथ सेमिनार में आ गया था।
सेमिनार खत्म होने पर वे बस से लौट रहे थे। उन लोगों ने आगेवाली सीट पर बैठा एक लड़का लिफाफे में भरे आलूबुखारे खा रहा था। भूखा न होने के बावजूद आलूबुखारे देखकर दंपती के बच्चे के मुँह में पानी भर आया और आलूबुखारा खाते लड़के को वह टकटकी लगाकर देखने लगा।
बच्चे की मासूम नजरों ने लड़कों को विचलित करदिया। उसने एक आलूबुखारा निकालकर बच्चे की ओर बढ़ाया तो बच्चे का हाथ भी अनायास आगे बढ़ गया और आलूबुखारा उसके हाथ में आ गया। उसे मुँह में ले जाने से पहले उसने माँ की ओर देखा। मां के चेहरे पर सहजता नहीं थी। माँ ने आँखें तरेरीं तो बच्चा पिता से मुखातिब हुआ। पिता मुस्करा दिए तो आलूबुखारा उसके मुँह की ओर उचका; लेकिन फिर न जाने क्या याद आ गया कि उसने पुन : मां की ओर देखा। माँ के चेहरे पर गुस्से की तेज गश्त देखकर वह सहम गया, ‘‘गंदी बात, किसी से ऐसे चीजें लेते हैं?’’ सुनकर बच्चे की नन्ही–नन्हीं अंगुलियों में अटका आलूबुखारा टपक गया, जैसे पेड़ से आम टपकता है, टप्प।
पति ने पत्नी की ओर सवालिया निगाहों से देखा तो उन्होंने तुनककर रुख बदल लिया और बच्चा मुँह लटकाकर पिता की गोद में चला गया।
बस आगे बढ़ती रही कि अगले स्टॉप पर गिरीवाला आ गया। बच्चे को खुश करने की गरज से माँ ने गिरी खरीदी और एक टुकड़ा उसकी ओर बढ़ा दिया। एकबारगी तो बच्चे ने गिरी का टुकड़ा माँ के हाथ से ले लिया, लेकिन दूसरी ही क्षण कुछ सोचकर उसे बस की खिड़की से नीचे फेंक दिया और पिता की ओर देखते हुए बोला, ‘‘छि :, रास्ते में खाना गंदी बात है।’’
बच्चे का प्रतिवाद सुनकर निर्मल आचार्य मुस्करा दिए।

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