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लघुकथाएँ - संचयन - भगीरथ
तानाशाह और चिडि़याँ

एक शहंशाह अपने विशाल महल में सुख की नींद सो रहा था।
भोर हुआ चाहती थी। चिडि़याँ उसके खूबसूरत बगीचे में चहचहाने लगीं, फुदकने लगीं–एक डाल से दूसरी डाल, चोंच में चोंच डालकर बच्चों पर अपना प्यार उँडेलने लगीं। शहंशाह की नींद में खलल पड़ा–‘‘ये क्या चें–चें मचा रखी है! खत्म कर डालो इन्हें!’’
हुक्मरान का हुक्म, नौकरों की बिसात क्या! तोप–तंमचे लेकर तैयार।
शहंशाह तोप–तमंचे देखकर विचलित हुए; हम अत्याचारी शासक के रूप में इतिहास में नहीं याद किए जाने चाहिएं।’’
‘‘तो फिर इन्हें देश–निकाला दे दें?’’ वजीर ने पूछा।
‘‘नहीं! निर्वाचित होने पर निर्वासित सरकार बनाकर हमारे लिए सिरदर्द बन जाएँगे।’’
‘‘इन्हें जेल में बंद कर थर्ड ग्रेड यातनाएँ दी जानी चाहिए,ताकि इन्हे सबक मिले कि एक शहंशाह की नींद में खलल डालने का क्या अंजाम होता है।’’ वजीर बोले।
‘‘सरकार ! जैसे हम कानून बनाकर हड़ताल को गैरकानूनी कर देते हैं, किसी को गिरफ्तार करना हो तो ‘रक्षा कानून’ और इसतरह सैकड़ों कानूनों से हम आम लोगों की गतिविधियों को रोक सकते हैं, वैसे ही...’’
‘‘हाँ–हाँ बोलिए।’’ शहंशाह इस प्रस्ताव की जल्दी सुनना चाहते थे।
‘‘तो हजूर, राजद्रोह कानून में संशोधन कर चें–चें को राजद्रोह में सम्मिलित कर बाकायदा न्यायालय–कानून की उचित प्रक्रिया अपनाकर हम इन्हें खुलेआम फाँसी दे सकते हैं।
‘‘ठीक है।’’ शहंशाह को अब भी पूरी तसल्ली नहीं हुई।
‘‘हुजूर! बचाव–पक्ष को पूरा मौका मिलेगा कि वो इन्हें बचा ले। लेकिन सरकार, आप तो जानते हैं, न्यायालय हमारी ही सरकार के अंग हैं।’’
‘‘बेहतर ! बहुत बेहतर !’’ बादशाह अब पूर्णत: आश्वस्त थे।
तभी चिडि़यों का झुंड पेड़ों से उड़ा और चहचाहता हुआ चारों दिशाओं में उड़ चला।


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