|
चन्द्रमोहन दिनेश
सरकारी कालोनी की तीसरी मंजिल पर स्थित मेरे फ्लैट की नाली का पाइप पिछले कई दिनों से खराब था। उसमें कचरा आदि फँस गया था। जिसके कारण नाली का सारा पानी एक तेज़ गड़गड़ाहट के साथ ऊपर वापस आ जाता था।
मैंने कालोनी की देख–रेख करने वाले विभाग से सम्पर्क किया। तीन चार दिन के बाद विभाग से दो कर्मचारी आए। उन्होंने दीवार के सहारे लगे उस लम्बे पाइप का निरीक्षण किया और कहा, ‘‘नीचे का पीस चोक है।’’ मैंने कहा, ‘‘आप चोक वाला पीस ज्वाइंट के पास से बदल दीजिए।’’ वे दोनों हँसे, ‘‘देखिए, नियमानुसार हम ‘पीस’ नहीं बदलते पूरा पाइप ही नया डालते हैं। जब पूरा पाइप टूट जाए, तब ख़बर कीजिएगा।’’
मैंने कहा, ‘‘जब एक चौथाई ‘पीस’ बदलने से काम चल सकता है, तब पूरा ‘पीस’ क्यों बदलना चाहते हैं? एक चौथाई ‘पीस’ से विभाग की तो बचत ही होगी?’’
वे बोले, ‘‘देखिए बचत–उचत तो हम जानते नहीं, यह सरकारी काम है, जो नियम है सो है। ‘पीस’ पूरा ही बदला जाएगा, आधा–पौना नहीं। हम कायदे–कानून से सूत भर भी इधर–उधर नहीं हो सकते। पूरा पाइप टूटा होता तो हम अभी बदल देते।’’
मैंने कहा, ‘तो आप इसे तभी बदलेगें जब टूटा हो?’’
‘‘बिल्कुल!’’, उसमें से एक, जो काइयाँ नज़र आ रहा था, बोला, और बुझ गई बीड़ी फेंक कर अपनी साइकिल की तरफ बढ़ गया।
‘‘अच्छा, रुको’’ मैंने उन्हें रुकने का इशारा किया और आँगन में पड़ा एक मोटा सरिया उठा कर पाइप पर कई जगह पूरी ताकत से दे मारा। एक भारी खड़खड़ाहट के साथ पूरा पाइप टूट कर जमीन पर आ गिरा।
वे दोनों वापस आ गए। जेब से कागज निकाला, पेंसिल से क्वार्टर नम्बर, ब्लाक नम्बर आदि नोट किया और साइकिल खड़खड़ाते चले गए। दो घंटे बाद ही नया पाइप ठेले पर लद कर आ गया।
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°° |
|