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राजस्थान साहित्य एकादमी : लघुक
 
   
     
 
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सुकेश साहनी
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डॉ. रामकुमार घोटड़ द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन, ‘‘दलित समाज की लघुकथाएं’’ बहुआयामी है।
हाशिए पर रहे समाज के उत्पीड़न और शोषण को आमजन के समक्ष इस अपेक्षा के साथ रखा गया है कि दलित की भी अपनी आबरू है।
यहाँ आक्रोश है, लेकिन यह आक्रोश प्रत्याक्रमण या हिंसा में परिणित न होकर पाठक मन को दुष्प्रवृत्तियों के खिलाफ खड़ा करता है।
दलित जीवन का ज़ज्बा, जीवट, जीवतंता और जिजीविषा लघुकथाओं का ताना–बाना है।
देशकाल और सार्वभौमिकता से रू–ब–रू कराने वाली लघुकथाओं का जिस दृष्टि से चयन किया है, वह डॉ. घोटड़ के कुशल सम्पादन का द्योतक है। –रत्न कुमार सांभरिया

इन लघुकथाओं में अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध स्वर मुखरित है। आक्रोश की अनिवार्यता के कारण इनमें शिल्पगत बारीकियों और कलात्मक प्रतिमानों को ढूँढ़ना बेमानी हैं इतना जरूर है कि दलित–समाज संबंधी लेखन में बनी बनाई संवेदनाओं से आगे जाने की जरूरत है। जहाँ ऐसा हुआ है, वहाँ रचना अधिक असरदार बनी है। ऐसा करते हुए लघुकथा के बारे में बनी बनाई सोच व साँचे को तोड़कर नई सोच की दुनिया में प्रवेश करना संभव होगा, जिसतमें अभिव्यक्ति की संभावनाएँ अधिक होंगी।
फिर भी, काले हाशिए पर डाल दिए गए समाज की इन लघुकथाओं में जातिवाद की काली सुरंगें हैं, जिनमें यातना की काली परछाइयाँ हैं, पिंजरे हैं : यहाँ तिरस्कार ओर अभिशाप के अंगारे हैं, किल्लत और जिल्लत में जीने वाले संतप्त समाज की घुटन है, जो मुक्ति पथ की तलाश में है। जब चेतना के ये स्वर तीनों आयामों में विस्तार पाएँगे तो मुक्ति–पर्व का रास्ता भी मिल जाएगा। –अशोक भाटिया

 

 
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