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लघुकथाएँ - संचयन - सुकेश साहनी
चश्मा

“क्या तुम्हारी नज़र कमज़ोर हो गई?” मैंने अनिल को चश्मा लगाए देखा तो पूछ लिया।
“अमाँ नहीं यार---” अनिल ने हँसते हुए कहा, “यह तो बस---यूँ ही ---शौकिया, कैसा लगता है मुझ पर?---लगता हूँ न बिल्कुल किसी डॉक्टर या प्रोफेसर जैसा ”
“वास्तव में चश्मे से बहुत स्मार्ट लगने लगे हो।” मैंने कहा, “कितने रुपए खर्च हो गए---”
“मुफ्त का ही समझो। तुम्हें तो पता ही है कि पिताजी स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी हैं। उनके लिए सरकारी खर्च से चश्मा दिए जाने के आदेश हैं। पिताजी को बहुत मुश्किल से राजी कर सका। उनको दो-तीन बार मुख्य चिकित्सा अधिकारी के पास ले जाना पड़ा। वहाँ से यह प्रमाणपत्र लेना है---सरकारी खजाने से पैसा निकलवाने के लिए इतने पापड़ तो बेलने ही पड़ते हैं,---” अनिल मुस्कराया, “आओ, बाहर धूप में बैठकर चाय पीते हैं।”
बाहर अनिल के पिताजी धूप में बैठे अखबार आँखों से सटाकर पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। मैंने आगे बढ़कर उनके पैर छुए। उन्होंने आँखें मिचमिचाकर मेरी ओर देखा। मुझे उनका झुर्रियों से भरा चेहरा गहरी उदासी में डूबा मालूम हुआ। आँखों पर काफी ज़ोर डालने के बावजूद वह मुझे पहचान नहीं पाए।
मुझे मालूम न था कि अनिल के पिताजी की आँखें इस कदर कमज़ोर हो गई हैं। मैंने हैरानी से अनिल की ओर देखा। धूप में उसके चश्मे के फोटो-क्रोमेटिक ग्लासेस का रंग बिल्कुल काला हो गया था और अब वह किसी खलनायक जैसा दिखाई देने लगा था।

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