गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
अपना ही दुश्मन

पता नहीं उस राज्य का रिवाज ही कुछ विचित्र था। वहां दुश्मन रात करते थे। जो दुश्मन नहीं हैं किसी न किसी का, वह राज्य कार्य के लिए सर्वथा अयोग्य समझा जाता। वहां अक्ल के दुश्मन राज करते थे। जो कानून का दुश्मन होता, वह कानून की हिफाजत का काम देखता। गरीबों का दुश्मन गरीबी हटाने के काम देखता था। इस तरह वहां रहने के नियम ही कुछ अलग किस्म के थे। आपको यह जाहिर करना जरूरी है कि आप किसके दुश्मन हैं। कुछ धर्म के दुश्मन,वे बड़े धार्मिक माने जाते। समाज के दुश्मन समाज–सुधारक।
देश के दुश्मन,देश–भक्त कहलाते। याने कि हर फील्ड दुश्मनों से अटा पड़ा था। आप अगर किसी के दुश्मन नहीं हैं तो आप चुपचाप बैठिए। ताज्जुब यह कि जिस बात का जितना बड़ा दुश्मन होता उसे उसी क्षेत्र का अग्रणी माना जाता। इस तरह वहां सारे दुश्मन मिल कर देश और समाज चला रहे थे। वे सारे दुश्मन चाह रहे थे कि हरेक को कहीं–न–कहीं दुश्मनी में संलग्न रहना जरूरी है। जो किसी का दुश्मन नहीं, उसकी कोई गारंटी नहीं। कई बेगुनाह लोग इसी वजह से मारे जाते वहां। वहां नागरिकों का सवे‍र् होता था,हमेशा और पसंदीदा दुश्मनी बतानी पड़ती। वे सदियों से दुश्मनों की ही तलाश करते आ रहे थे। एक दिन राज्य के करिंदे मेरे पास आउ, पूछने लगे कि ‘‘मैं किसका दुश्मन हूं।’’
मैंने कहा,‘‘मैं तो किसी का दुश्मन नहीं हूं।’’ उन्होंने मुझे चेतावनी दी कि एक हफ्ते के भीतर मैं यह बता दूं या तय कर लूं कि मैं किसका दुश्मन हूं। उनका कहना था कि इस देश में इतनी वेरायटीज हैं कि उनमें से किसी एक का दुश्मन हो जाना मुश्किल नहीं है। मैंने कहा, ‘‘ठीक है विचार करूंगा।’’
एक हफ्ते बाद मुझे राजा के दरबार में पेश किया गया ताकि मैं अभी भी बता दूं कि मैं किसका दुश्मन हूं। यह आखिरी मौका था। सब चुप बैठे थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर कैसे बचा लूं अपना जीवन। किसका नाम लूं। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। राजा ने कहा, ‘‘इतनी देर। इतनी देर में तो हम दुनिया को दुश्मन बना लें। कैसे डफर नागरिक हो तुम? इतना बड़ा देश, इतनी विभिन्नताएं लिए, इतने ढेर आप्शंस तो विदेशों में भी नहीं हैं। कहां से पकड़ लाए इसे तुम। जल्दी बताओ। सड़ी–सी बात के लिए इतना समय जाया कर रहे हो। आखिरकार मैंने चुप्पी तोड़ी मैंने भरे गले से कहा, ‘‘सरकार! मैं अपना ही दुश्मन हूं।’’
हो...हो...हो!! क्या बात है! लाजवाब! पूरे दरबार में ठहाकों पर ठहाके लग गए। जिसने सुना वो हंस पड़ा।
(वागर्थ,मई 2001)

°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above