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लघुकथाएँ - देशान्तर - चीनी लघुकथाएँ
रूढि़वाद

टिक.....टिक...टिक..टिक.उस दुकान की सारी घडि़याँ इस टिक–टिक की आवाज की अभ्यस्त थीं। अगर कोई घड़ी चुप हो जाती है तो तुरंत अनुमान बिठाया जाता कि वह भूखी है उसे चाबी की जरूरत है, या फिर वह बीमार है, किसी पु‍र्ज़े में कोई गड़बड़ी है। परंतु आज उस दुकान में एक अजनबी शख्सियत ने प्रवेश करके अपने बारे में घोषणा की ‘‘नवीनतम घड़ी।’’
यह बेहद शांत थी टिक...टिक....टिक....तो क्या, कैसी भी आवाज नहीं कर रही थी। इसके पास सुइयाँ भी नहीं थीं। कहा जाता था कि वह बदलते हुए अंकों से ही समय बता देती है। यह भी कि उसे चाबी की जरूरत नहीं पड़ती और वह बटन जितनी छोटी बैटरी से पूरे साल तक चलती रह सकती है। एक सैकेंड भी फर्क नहीं आता।
‘‘सारी घडि़यों ने एक दूसरे को देखकर गर्दन हिलायी’’ परन्तु दिल ने इस बात पर भरोसा नहीं किया।
दीवाल घड़ी ने अपने लटकते हुए घंटे की जुबान से कहा, ‘‘ऐसी भी कोई घड़ी हो सकती है जो टिक..टिक नहीं करे? वह घड़ी नहीं है’’
एक अलार्म घड़ी घनघनायी, ‘‘वह भी क्या घड़ी जिसे चाबी की ही जरूरत न हो? ऐसी भी कोई घड़ी हो सकती है जिसमें सालभर में भी एक सैकिंड का फर्क न आये? वह तो झूठी गप्प हाँक रही है। वह कोई घड़ी–बड़ी नहीं है, उसे तो दुकान से निकाल कर बाहर करो।’’
उसी समय एक युवक दुकान में आया, और दुकानदार से बोला, ‘‘मुझे नयी से नयी घड़ी चाहिए, अंको वाली।’’
दुकानदार ने उसे अजनबी युवक के हाथ में पकड़ा दिया। संतुष्ट होकर युवक ने उसे खरीद लिया।
अजनबी के बाहर जाते ही दुकान में फिर जोर–शोर से टिक–टिक होने लगी। वह घड़ी नहीं थी, ‘‘दीवाल घड़ी अब भी बड़बड़ा रही थी। वह घड़ी नहीं थी। ‘‘कलाई घड़ी अभी भी गुस्से में थी। ‘‘वह घड़ी नहीं थी।’’ अलार्म घड़ी जोर–जोर से चिल्ला रही थी।

अनुवाद:सुकेश साहनी

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