गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
लघुकथाएँ - देश - चित्रा मुद्गल
नसीहत

एक बच्चे की गिड़गिड़ाहट ने तन्मयता भंग की, ‘‘सुबू से भुक्का है मेम साब। एक दस पैसा पेट के वास्ते.......आपका बाल–बच्चा सुखी रहेगा........’’ पत्रिका से दृष्टि हटाकर उस बच्चे को देखा। खासा हा–का चंट बच्चा लगा वह मुझे। आदतन नसीहत टिका दी, ‘‘जाओ, जाकर कहीं काम–धाम करो। इतने बड़े होकर भीख मांगते शर्म नहीं आती?’’ कहकर मैंने एक बार बस की प्रतीक्षारत लंबी क्यू को देखा, फिर पत्रिका में उलझ गई। भीख देना मेरे उसूल के खिलाफ है। तभी यह एहसास हुआ कि बच्चा सचमुच भूखा है तो बजाय उसे पैसे देने के खाने के लिए कुछ खरीद देती।
‘‘आती तो है मेमसाहब! पन कौन काम देता है हम सड़क–छाप को?’’ उसने मेरी उपेक्षा की परवाह न कर ढिठाई से कहा। ‘‘क्यों नहीं देंगे?’’ मैंने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘ईमानदारी और मेहनत से काम करने का वादा करो तो....कौन नहीं रखेगा? घरेलू नौकरों की कमी तो हर घर में है...मगर,सच तो यह है कि काम तुम लोग करना चाहो तब न! फोकट का खाने को मिलता है तो मेहनत क्यों करोगे भला? जाओ, तंग मत करो।’’
लड़का तेज भी था, अडि़यल भी, टला नहीं, बोला, ‘‘आपको नौकर की जरूरत है?’’
‘‘हाँ, है तो....’’
‘‘तो फिर....अपुन को काम पर रख लो न!……शपथ ! चोरी–चपाड़ी का अपने को आदत नईं....जो बोलेगा, सब करेगा। घर का एक कोने में पड़ा रहेगा.....मंजूर?’’ मैं उसके जवाब से पसोपेश में पड़ गई। पूरे वक्त के लिए एक नौकर की मुझे सख्त जरूरत थी। दफ्तर और घर साथ–साथ चल नहीं पा रहे थे। कितनी बार कहा इन्होंने कि एक नौकर क्यों नहीं रख लेतीं, पर मुश्किल तो यह थी कि खा–पीकर भी नौकर सौ रुपए से कम पगार नहीं मांगता था। और इतनी तनख्वाह देना मेरे बस का नहीं था। सोचा, यह तो छोटा है, ताबे में भी रहेगा और काम भी ढंग का सीख जाएगा। पगार भी ज्यादा नहीं देनी पड़ेगी। पूछा, ‘‘तुम्हारे मां–बाप किधर रहते हैं?’’
‘‘मां अपना बचपन में मर गया। बाप है, पन बाप ने तीसरी शादी बनाया, वो उधर ‘भारत नगर’ का झोंपडपट्टी है न, उधरीच रेता।’’
‘‘ठीक है। मैं तुम्हें रख लूंगी। अपने घर ले चलो। तुम्हारे मां–बाप से तय कर लेती हूँ कि आज से तुम हमारे घर रहोगे....’’
‘‘मां से पूछना, मेम साब! अपन रेता है। निकाल दिया उसने घर से....’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘बोत खड़ुश है वो, अक्खा दिन भुक्का रखती थी। क्या करता, अपुन पड़ोस का ‘बेकरी’ से पाव चोरी करके कू लगा। एक दिन हाथ आ गया शेठ के....वो मारा...दे दिया पोलिस को....मां–बाप बोल दिया–मैं उसका बच्चा नई। थाने से छुटा तो टिकट घरका सामने हमाली करना शुरू किया....पन...बिल्ला मंगता न हमाली करने का वास्ते....एक दादा के घर में रेता मैं। ‘भीख’ का पइसा वोइच लेता। फकत सुबू–शाम खाने को देता.....तुम हमारा पर ईस्वास करो.....अपुन दगा नई करेगा.....नक्की....रख लो न मेमसाब!....
उसके इतिहास ने मेरी हिम्मत निचोड़ ली। घर नहीं, घाट नहीं, जिस पर लफंगों का साथ। घर थोड़े ही लुटवाना है मुझे।
‘‘देखो, सच तो यह है’’, मैंने फौरन बात पलटी, ‘‘मेरे पास तो पहले से ही एक नौकर है, तुम्हें रखकर क्या करूँगी, हाँ,यह लो पांच रुपए।’’ मैंने उसे ‘पर्स’ में से फौरन पांच का नोट निकालकर थमाते हुए कहा, ‘‘कुछ धंधा कर लेना....बूट–पालिश का या रूमाल–उमाल बेचने का....छोटी–मोटी चीजें बहुत–से बच्चे ट्रेनों में बेचते हैं।’’
वह प्रतिक्रिया में तमतमा उठा। पांच का नोट मेरे चेहरे पर उछालकर बोला, ‘‘भीख न दो मेम साब, भीख! दस पैसा....पांच पैसा...सीख क्यों देता है, व तुम खुदीच हमारा पर ईस्वास नई कर सकता?.....नई मांगता। रखो अपना पैसा....’’ और वह मेरी नसीहत का खोखलापन मुझ पर ही पटककर सर्र से भीड़ में गायब हो गया।

°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above