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लघुकथाएँ - देश - दर्शन जोगा
कड़वा सच

‘‘दुलारी, अब नहीं मुझसे बसों में उतरा–चढ़ा जाता। ड्यूटी पर जाकर बैठना भी कठिन लगता है। अब तो डाक्टरों ने भी कह दिया, भई आराम कर। ज्यादा चलना–फिरना ठीक नहीं, बेआरामी से हालत बिगड़ सकती है।’’
‘‘रब बैरी हुआ है, गर लड़का कहीं छोटे–मोटे काम पर अटक गया होता तो जैसे–तैसे वक्तकटी कर लेते।’’ शिवलाल की बात सुनकर पत्नी की पीड़ा बाहर आने लगी।
‘‘मैंने तो अब रिटायरमैंट के कागज भेज देने हैं। बहुत कर ली नौकरी, अब जब सेहत ही इज़ाजत नहीं देती।’’ शिवलाल ने अपनी बात जारी रखी।
‘‘वह तो ठीक है...मगर...’’ पत्नी ने अपने भीतर की चिन्ता को और उजागर करना चाहा।
‘‘अगर–मगर कर क्या करें? चाहता तो मैं खुद भी नहीं, लेकिन...।’’
‘‘मैं तो कहती हूं कि धीरे–धीरे यूँ ही जाते रहो। तीन साल पड़े हैं रिटायरमैंट में। क्या पता भगवान ने हम पर गर पहाड़ ही गिरा दिया, तो बाद में नौकरी तो मिल जाएगी लड़के को, बेकार फिर रहा है।’’
यह सुनते ही शिवलाल का चेहरा एकदम पीला पड़ गया।
पत्नी की आँखों से झर–झर आँसू बहने लगे।

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