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झंकार
आज फिर साधना मैडम का मुँह लटका हुआ था।
यह बात शीला मैडम के परिपक्व अनुभव–ज्ञान से छिपी न रही। वे साधना से कुछ पूछना ही चाहती थीं, तभी स्कूल की बेल गूँज उठी।
तीसरा पीरियड दोनों का ही खाली था। शीला ने प्यार से साधना को साथ बिठाया और परेशानी की वजह पूछी।
साधना भी शीला को को ‘सीनियर’ तथा बड़ा होने के नाते सम्मान देती थी। वक्त–जरूरत सही राय देने के लिए राय देने के लिए गार्जियन–सा मानती थी।
इतनी सहानुभूति पाकर साधना, मन हल्का करने लगी। वही सब पुरानी बातें–‘‘स्कूल से खटकर घर पहुँचते ही खटने लगी। छोटे बच्चे को देखो। सास–ससुर–पत्नी की हाजिरी में जुट जाओ। जरा–सी कहीं भी कोर–कसर रह जाए, तो पति पुरखों तक की खबर लेने को तुल जाएँगे। कभी सोचती हूँ, किन जानवरों से पाला पड़ा? आज तो मैंने खाना भी नहीं खाया।’’
‘‘वाह, खूब! ऐसे कैसे काम चलेगा, मैडम! पहले भी मैंने तुम्हें समझाया था। परवाह ही मत करो किसी की। डरो मत, डट करके खाओ। हाँ, थोड़ा नखरा भी दिखाओ, कहो, मैंने तो कुछ भी नहीं खाया है, इसी के मारे....’’
बातों–बातों में फिर घंटा बज गया।
आधी छुट्टी में फिर दोनों सहेलियाँ मिलीं।
शीला अपनी राय देने में कुछ ज्यादा ही जोश दिखा रही थी।
‘‘मेरी बात समझी कि नहीं?’’
‘‘ हूँ।’’ साधना अब भी उदास थी।
शीला फिर उसी जोश से बोली–‘‘मैंने कहा ना, फिक्र ही मत करो। एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो। पति बोलते हैं तो बोलने दो। समझो कुत्ता भौंक रहा है। मस्त रहो...’’ शब्द बीच में रुक गए।
झन्न! शीला मैडम की कनपटी झनझना उठी थी, चाँटे से झुमका झूल रहा था।
‘‘मेरे पति को कुत्ता कहा?’’ साधना का स्वर तीखा था।

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