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पागल - ख़्लील जिब्रान ( अनुवाद: सुकेश साहनी)
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आप
मुझसे पूछते हैं कि मैं पागल कैसे हुआ? यह सब तरह हुआ, एक दिन मैं गहरी
नींद से जागा तो देखा कि मेरे सभी मुखौटे चोरी हो गए थे, वे सभी सात
मुखौटे, जिन्हें मैंने सात जीवन जीते हुए बड़े शौक से पहना था। मैं पहली
बार बिना किसी मुखौटे के भीड़ भरी गलियों में चिल्लाता हुआ दौड़ पड़ा,
‘‘चोर! चोर! चोट्टे!!’’
आदमी, औरतें मुझे देखकर हँसने लगे और कुछ तो मारे डर के घरों में जा घुसे।
जब मैं भरे बाजार में पहुँचा तो एक युवक छत पर से चिल्लाया,‘‘पागल है!’’
मैंने उसकी ओर देखा तो सूर्य ने पहली बार मेरे नंगे चेहरे को चूमा और मेरी
आत्मा सूर्य के प्रेम से अनुप्राणित हो उठी। अब मुझे अपने मुखौटों की कोई
आवश्यकता नहीं रह गई थी। मैं स्तब्ध -सा चिल्ला पड़ा, ‘‘भला हो! मेरे
मुखौटे चुराने वालों का भला हो!’’
इस तरह मैं पागल बन गया।
अपने इस पागलपन में मुझे आजादी और सुरक्षा दोनों ही महसूस हुई–अकेलेपन की
आजादी और दूसरों द्वारा समझे जाने से सुरक्षा। क्योंकि जो लोग हमारी
कमजोरियों को जान जाते हैं, वे हमारे भीतर किसी न किसी अंश को गुलाम बना
लेते हैं।
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