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ख़लील जिब्रान
महात्मा
जवानी के दिनों में मैं पहाडि़यों के पार शान्त वन में एक सन्त से मिलने गया था। हम सद्गुणों के स्वरूप पर बातचीत कर रहे थे कि एक डाकू लड़खड़ाता हुआ टीले पर आया। कुटिया पर पहुँचते ही वह संत के आगे घुटनों के बल झुक गया और बोला, ‘‘महाराज,मैं बहुत बड़ा पापी हूँ।’’
सन्त ने उत्तर दिया, ‘‘मैं भी बहुत बड़ा पापी हूँ।’’
डाकू ने कहा, ‘‘मैं चोर और लुटेरा हूँ।’’
सन्त ने कहा, ‘‘मैं भी चोर और लुटेरा हूँ ।’’
डाकू ने कहा, ‘‘मैंने बहुत से लोगों का कत्ल किया है, उनकी चीख–पुकार मेरे कानों में बजती रहती है।’’
सन्त ने भी उत्तर दिया, ‘‘मैं भी एक हत्यारा हूँ, जिनको मैंने मारा है, उन लोगों की चीख पुकार मेरे कानों में भी बजती रहती है।’’
फिर डाकू ने कहा, ‘‘मैंने असंख्य अपराध किए हैं।’’
सन्त ने उत्तर दिया, ‘‘मैंने भी अनगिनत अपराध किए हैं। ’’
डाकू उठ खड़ा हुआ ओर टकटकी लगाकर संत की ओर देखने लगा। उसकी आँखों में विचित्र भाव थे। लौटते समय वह उछलता–कूदता पहाड़ी से उतर रहा था।
मैंने सन्त से पूछा, ‘‘आपने झूठ–मूठ में खुद को अपराधी क्यों कहा? आपने देखा नहीं कि जाते समय उस आदमी की आस्था आप में नहीं रही थी।’’
सन्त ने उत्तर दिया, ‘‘यह ठीक है कि अब उसकी आस्था मुझमें नहीं थीं, पर वह यहाँ से बहुत निश्चिन्त होकर गया है।’’
तभी दूर से डाकू के गाने की आवाज हमारे कानों में पड़ी। उसके गीत की गूँज ने घाटी को खुशी से भर दिया।
(अनुवाद:सुकेश साहनी)
 
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