जीवन में अलग–थलग रहते हुए भी कोई व्यक्ति जब -तब कहीं न किसी हद तक जुड़ना चाहेगा। दिन के अलग–अलग समय ,मौसम,काम धंधे की दशा आदि में उसे कम से कम एक ऐसी स्नेहिल बाँह की चाहत होती है, जिस पर वह सिर रख सके । कुछ भी न करने की मन:स्थिति के बावजूद वह थके कदमों से खिड़की की ओर बढ़ जाता है और बेमन से कभी लोगों को और कभी आसमान की ओर देखने लगता है, उसका सिर धीरे से पीछे की ओर झुक जाता है। इस स्थिति में भी सड़क पर दौड़ते घोड़े,उनकी बग्घियों की खड़खड़ और शोरगुल उसे अपनी ओर खींच लेंगे और अंतत: वह जीवन–धारा से जुड़ ही जाएगा।
(अनुवाद:सुकेश साहनी)