भट्टे का मजदूर एक–एक कर कच्ची ईटों को भट्टे में सजा रहा था, उनमें से एक इस डर से काँपने लगी कि वह भट्टे की तेज आग में जल जाएगी।
‘‘डरो नहीं,’’ दूसरी ईटों ने उसे समझाया, ‘‘यह सौभाग्य तो मुश्किल से मिलता है। आग ही हमें काम के लायक बनाती है।’’ पर उसने एक शब्द भी नहीं सुना और कतराकर बगल में पड़ी घास के ढेर में छिप गई।
और इस प्रकार वह भट्टे में जाने से बच गई। जब कुछ दिनों के बाद वह पकी ईटों से मिली तो पकी ईटों ने उसके बारे में अफसोस जाहिर किया, किन्तु उसे यह देखकर कि उसकी सहेलियों का रंग थोड़ा लाल होने के सिवा खास नहीं बदला है, उसने परवाह नहीं की।
जल्दी ही ईंटों को ले जाने के लिए मजदूर ले आई। एक ने कच्ची ईट को वहां देखकर पूछा, ‘‘अरे,यह यहां कैसे आ गई?’’ उसने उसे उठाकर बाहर फेंक दिया। अपनी सहेलियों को खुशी–खुशी जाती देखकर कच्ची ईट को बहुत अफसोस हुआ, पर अब अफसोस करने का कोई फायदा न था। वह यहाँ अलग,अकेली और बेकार पड़ी रही, फिर हवा
चलने और बारिश होने के बाद धीरे–धीरे उसने अपना आकार खो दिया और अंतत: कीचड़ का लोंदा बन गई।