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लू शुन:ठंडी आग
मैंने स्वप्न में देखा कि मैं बर्फ़ के पहाड़ पर दौड रहा हूँ ।
बर्फ़ीले आकाश को छूता यह एक विशाल और ऊँचा पहा।ड़ था। आकाश बर्फ़ के बादलों से अटा पड़ा था। हर टुकड़ा केंचुली–सा सफेद लग रहा था। पहाड़ की तलहटी में बर्फ़ का जंगल था। साइप्रस और पाईन के पेड़ों की पत्तियाँ और तने–सब बर्फ़ के थे।
लेकिन अचानक मैं बर्फ़ के पहाड़ पर दौड़ रहा हूँ।
नीचे–ऊपर बर्फ़ानी–ठंड थी, राख–सा भुरभुरापन था। उस पीली बर्फ़ पर अनगिनत सुर्ख साये थे, मूँगई जालों में गूँथें हुए। एकदम अपने पाँवों के नीचे मैंने एक लौ देखी। यह ठंडी आग थी। बहुत भयानक लेकिन पूरी तरह स्थिर । पूरी तरह जमी हुई। काला–धुआँ जमी मूँगई टहनियों–सी एकदम जीवन्त। भट्टी से निकलती हुई सी। इसी के बिम्ब–प्रतिबिम्ब अनगिनत सायों के रूप में घाटी को सुर्ख बनाए हुए थे।
अहा! एक शिशु की तरह, धधकती–भट्टी से निकलती लपलपाती लपटों और तैरते जहाजों से उत्पन्न झागों को देखना मुझे हमेशा ही भला लगता रहा है। और,न सिर्फ़ देखना ]बल्कि पास से देखना। दुर्भाग्य,कि वे हर पल बदल रहे थे और स्थिर आकार में नहीं रह पा रहे थे। उन पर मुश्किल से ही दृष्टि जमती थीं और कोई स्थायी–प्रभाव नहीं पड़ता था।
ठंडी आग, मैंने आखिर तुम्हें पा ही लिया।
जैसे ही मैंने ठंडी आग को पास से देखने को उठाया, मेरी उँगलियां उसकी ठंडक से झुलस गईं। लेकिन दर्द की चिन्ता किए बिना मैंने उसे अपनी जेब में डाल दिया। एकाएक सारी घाटी पीली पड़ गईं। मैं उसी समय उस जगह को छोड़ने की जुगत में लग गया।
मेरे शरीर से धुएँ का एक छल्ला, उठा, जो कि पतले साँप–सा लहरा गया। हर जगह से सुर्ख़ लपटें निकलने लगीं। मैं उन लपटों में घिर गया। नीचे,मैंने पाया कि ठंडी आग पुन: भभक उठी थी। उसने मेरे कपड़ों से शुरुआत की थी। और बर्फ़ीले धरातल पर बह निकली थी।
‘‘अहा, दोस्त!’’ उसने कहा, ‘‘तुमने अपनी गर्मी से मुझे जगा दिया।’’
मैंने तुरन्त उसका अभिवादन किया और नाम पूछा।
‘‘मैं इस बर्फ़ीली–घाटी में आदमी द्वारा कैद थी।’’ उसने मेरे सवाल को नजरअन्दाज कर कहा, ‘‘मुझे बंदी बनाने वाले पहले ही तहस–नहस हो चुके हैं। और, इस बर्फ़ के द्वारा में भी लगभग मरने को थी। अगर तुमने मुझे अपनी गर्मी न दी होती और भभकने का यह मौका न दिया होता ,तो अब तक मैं कभी की नष्ट हो चुकी होती।’’
‘‘तुम्हारे जाग जाने पर मैं प्रसन्न हूँ। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बर्फ़ की इस घाटी से छुटकारा कैसे पाऊँ। मैं चाहूँगा कि तुम्हें अपने साथ ले चलूँ ताकि तुम कभी न जमो और हमेशा प्रज्ज्वलित रहो।’’
‘‘ओह नहीं, तब तो मैं जला भी सकूँगी।’’
‘‘अगर तुम जला पाओगी, तो मुझे दुख होगा। इससे अच्छा है कि तुम्हें यहीं छोड़ दूँ।’’
‘‘ओह, नहीं यहाँमैं जमकर मर जाऊँगी।’’
‘‘तब,क्या किया जाए?’’
‘‘तुम्हारी क्या राय है?’’ उसने प्रतिप्रश्न किया।
‘‘मैंने कहा न, मैं तो इस बर्फ़ की घाटी से निकल जाना चाहता हूँ।’’
‘‘तब तो ज्वलनशील हो पाना ही ठीक होगा।’’
वह लाल धूमकेतु–सी उछली और हम दोनों घाटी से बाहर आ गए। अचानक एक बड़ी पत्थर–गाड़ी आई और मैं उसके पहियों के नीचे कुचलकर मर गया। पर, उसी क्षण वह गाड़ी घाटी में जा गिरी।
‘‘आह! तुम अब कभी भी ठंडी आग नहीं देख पाओगे।’’ कहने के साथ ही मैं प्रसन्नतापूर्वक हँसा।
क्या ही अच्छा होता कि ऐसा होता !
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