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असंतुष्ट

एक समय शहर के प्रवेशद्वार पर दो देवदूत मिले। आपस में दुआ–सलाम के बाद वे बातचीत करने लगे।
पहले देवदूत ने कहा,‘‘आजकल क्या कर रहे हो? तुम्हें क्या काम मिला है?’’
दूसरे ने बताया, ‘‘मुझे घाटी में रहने वाले एक पापी आदमी पर नज़र रखने का काम दिया गया है, वह बहुत बड़ा अपराधी और चरित्रहीन है। तुम्हें क्या बताऊँ..यह बहुत महत्त्वपूर्ण काम है। मुझे इसमें बहुत मेहनत करनी पड़ती है।’’
पहले देवदूत ने कहा, ‘‘मुझे न जाने कितनी बार पापियों पर नियुक्त किया गया है, यह बहुत साधारण–सा काम है। मैं आजकल एक संत की देखभाल कर रहा हूँ, जो उधर लताकुंज में रहता है। सच मानों यह काम बहुत कठिन है। इसके लिए कुशाग्र बुद्धि की जरूरत होती है।’’
दूसरा देवदूत बोला, ‘‘निरी बकवास! यह तुम्हारा अहंकार बोल रहा है। भला किसी पापी की तुलना में संत की देख–रेख करना कैसे कठिन हो सकता है?’’
पहले ने उत्तर दिया, ‘‘तुम ढीठ! मुझे अहंकारी कहते हो? मैंने सच कहा है। घमण्डी तो तुम हो!’’
दोनों झगड़ने लगे। बातचीत से हाथापाई पर उतर आए।
तभी वहाँ पर बड़ा देवदूत आ गया। उसने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘क्यों लड़ते हो? नगर के प्रवेशद्वार पर देवदूतों का आपस में लड़ना कितनी शर्म की बात है। बताओ, आखिर बात क्या है?’’
दोनों एक साथ बोलने लगे। दोनों अपने काम को अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्व करने में लगे थे।
बड़े देवदूत ने सिर हिलाया और कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘मित्रो! मेरे लिए यह कह पाना मुश्किल है कि कौन प्रशंसा और इनाम का अधिकारी है। चूंकि मुझे भी शान्ति व्यवस्था बनाए रखने का काम दिया गया है, अत: मैं जनहित में आदेश देता हूँ कि तुम लोग आपस में अपना काम बदल लो क्योंकि तुम दोनों ही एक दूसरे के काम को सरल कह रहे हो। जाओ खुशी से अपना काम करो।’’
आदेश मिलते ही दोनों देवदूत अपने–अपने रास्ते चल पड़े, पर दोनों ही मुड़–मुड़कर जलती हुई आँखों से बड़े देवदूत को देखे जा रहे थे और मन ही मन कह रहे थे, ‘‘ये बड़े देवदूत! दिन प्रतिदिन हमारा जीना दुश्वार करते जा रहे हैं।’’
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