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लघुकथाएँ - देशान्तर - अलेग्जांद्रु साहिया
किरिच

जादूगर अपना खेल शुरू करने वाला था। लोग आते जा रहे थे। गेरला ने जनता की उत्सुकता को देखते हुए उसी वक्त खेल शुरूकर दिया।
किसान बहुत खुश थे। वे तालियाँ बजाते और ऊँची आवाज में कहते, ‘‘गेरला।’’
जादूगर का उत्साह भी पूरे जोर पर था। जब उसने अपनी तीन तलवारों को सूर्य के प्रकाश में चमकाया और सहसा तलवारें जादूगर के गले में गायब हो गई, तो हर्ष की ध्वनि मानो आकाश चूमने लगी।
तभी अचानक एक कठोर आवाज भीड़ पर छा गई, ‘‘झूठा,मक्कार! यह हमें धोखा दे रहा है। इसकी तलवार असली नहीं है। इसे मेरी किरिच निगलने को दो, तब देखें।’’
‘‘हाँ,यह ठीक है,’’ सैकड़ों किसान विद्रोह के स्वर में चिल्लाए।
‘‘मैं कहता हूँ मिहाइल गेरला, यदि तुम अपने करिश्में के बारे में विश्वास कराना चाहते हो, तो तुम्हें किरिच निगलनी होगी।’’
‘‘हाँ,, हाँ,, लोग चिल्लाए। गेरला धोखेबाज है,खूसट बूढ़ा,मक्कार!’’
जादूगर ने देखा, उसका अस्तित्व खतरे में है, उसकी बीसियों वर्षो की ख्याति और प्रतिष्ठा सदा के लिए धूल में मिल रही है। उसने अपनी पेटी में उन विश्वविख्यात तलवारों को रख लिया और सार्जेट की किरिच को कंपित हाथों से ले लिया।
सार्जेट व्यंग्य से मुस्कराया। भीड़ साँस रोके सब देखती रही। जादूगर ने किरिच को अपनी दो उंगलियों में ले लिया और उसने उसे गले में डालने की कोशिश की। वह आधा ही निगल पाया था कि तेजी से उसने उसे खींच कर बाहर निकाल लिया। फिर उसे अपनी आस्तीन पर पोंछा और पोंछ कर पूरी किरिच उसने गले के अंदर उतार ली। केवल मूठ बाहर रह गई थी, जो उसके ओठों के पास रुकी थी। सहसा एक घबराए पक्षी की तरह वह काँपा,जैसे उड़ने की कोशिश कर रहा हो। प्रशंसा की आवाजें फूट पड़ी। किसान पागलों की तरह चिल्ला उठे, ‘‘गेरला शाबाश! गेरला जिंदाबाद! शाबाश!’’
गेरला ने काँपते हाथों से किरिच की मूठ को पकड़ा और जैसे ही उसकी बाहर खींचा, उसके गले से खून की धार फूट पड़ी।
गेरला कुछ बोलना चाहता था। वह हकलाया। फिर सार्जेट की किरिच के पास, कुर्सी से लुढ़क कर गिर पड़ा।

[अनुवाद:कमला जोशी]

 
 
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