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लघुकथाएँ - देशान्तर - ख़लील ज़िब्रान
बंधुत्व

प्राचीन समय में जब मैंने पहले–पहल बोलना सीखा तो पवित्र पर्वत पर चढ़कर ईश्वर से कहा, ‘‘भगवन् मैं आपका दास हूँ, आपका हर आदेश सिर आँखों पर!’’
ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया और वह किसी तेज तूफान की तरह मेरे पास से गुजर गया।
एक हजार वर्ष के बाद मैंने पुन: उस पवित्र पर्वत पर चढ़कर ईश्वर से कहा,‘‘हे विधाता, मैं आपकी सृष्टि हूँ। आपने मिट्टी से मेरा निर्माण किया है, जो कुछ भी है सब आपका है।’’
इस पर ईश्वर चुप रहा, वह तत्काल असंख्य–असंख्य पक्षियों की तरह फड़फड़ाता हुआ मेरे पास से गुज़र गया।
हजार वर्ष बाद मैं फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढ़ा और भगवान से बोला,‘‘हे परमपिता, मैं आपकी संतान हूँ। दया करके आपने प्रेमपूर्वक मुझे जन्म दिया। प्यार और भक्तिभाव से ही मैं आपके राज्य का उत्तराधिकारी बनूँगा।’’
ईश्वर ने कोई जवाब नहीं दिया और सुदूर पहाड़ियों पर छायी धुंध की तरह मेरे पास से निकल गया।
एक हजार साल बाद मैं फिर उस पुण्य पर्वत पर चढ़ा और ईश्वर से कहा,‘‘मेरे प्रभु! मेरे लक्ष्य! ...मैं आपका बीता हुआ कल और आप मेरा भविष्य हैं। धरती में मैं आपकी जड़ हूँ और आकाश में आप मेरे पुष्प। हम दोनों ही सूर्य के प्रकाश में साथ–साथ पलते बढ़ते हैं।’’
तब ईश्वर मुझ पर झुका, मेरे कानों में उसके शब्द झरे और जिस तरह समुद्र नदी नालों को अपने आगोश में ले लेता है, उसने मुझे अपने सीने से लगा लिया।
जब मैं पहाड़ से नीचे उतरकर घाटियों और मैदानों में आया तो मैंने ईश्वर को वहाँ भी पाया....हरेक में।

अनुवाद: सुकेश साहनी

 
 
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