एक पार्टी में एक युवती को मैंने उस अवस्था में मैंने देखा था कि प्रेम की तीव्रता ने उसे उन्मत्त बना डाला था। उसकी आँखों में दुहरी नीलिमा और दुहरी झिलमिलाहट थी और अपनी भावनाओं को दूसरों से छुपाने में वह बुरी तरह असफल हो गई थी। उसे किससे प्यार हो गया था? मेजबान के युवा बेटे से, जो खिड़की के पास खड़ा था। वह खूबसूरत वर्दी पहने हुए था और उसकी आवाज में बाग जैसी गरज छिपी हुई थी। ओह उस युवती की नजरें जम ही तो गई थीं और अपनी कुरसी में वह बिल्कुल स्तंभित बैठी हुई थी।
‘वाह। कितना सुहाना मौसम है। उस रात घर की ओर चलते हुए मैंने उस युवती से कहा था....।’ जी हाँ, वह मेरी मंगेतर थी।
‘क्या आज शाम तुम्हें पार्टी में आनंद आया?’ और फिर उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना उसके हृदय की इच्छा को महसूस करते हुए मैंने अपनी उँगली से मँगनी की अँगूठी उतार डाली।
‘तुम्हें पता है, तुमने यह जो अँगूठी मुझे दी है, यह मेरी उँगली में फँस गई है? क्या वह संभव नहीं कि तुम इसे जरा खुला करवा दो।’
उसने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया।
‘लाओ! यह मुझे दे दो। मैं जल्दी ही इसे खुला करवा दूँगी।’ और मैंने अपनी अँगूठी उसके हवाले कर दी।
एक महीने के बाद उससे फिर मिला। मैं उससे अँगूठी के बारे में पूछना चाहता था, मगर एक अन्य विचार ने मुझे ऐसा करने से रोके रखा। ऐसी भी जल्दी क्या है? मैंने अपने आप से कहा। उसे कुछ समय और दो। एक महीना तो बहुत थोड़ा समय है।
‘ओह हाँ! मुझे याद आया। वह अँगूठी....’ वह कहने लगी, ‘उस अँगूठी का भाग्य ही अच्छा नहीं। मुझे लगता है मैं उसे रखकर कहीं भूल गई हूँ। वह कहीं खो गई है’। और वह मेरे उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी।
‘क्या तुम मुझसे नाराज हो?’ उसने दुविधा से पूछा।’ और आह! वह मुझसे अलग होते हुए कितनी प्रसन्न थी, क्योंकि मैंने यही दिखाया था कि मैं उससे नाराज नहीं हूँ।
पूरा एक वर्ष बीत गया। एक बार फिर मैं अपनी जानी–पहचानी जगहों में आने–जाने लगा। फिर एक शाम मैं उसी परिचित पगडंडी पर चहलकदमी कर रहा था कि मैंने उसे सामने अपनी ओर आते हुए देखा। उसकी आँखों में अब तिहरी नीलिमा और तिहरी जगमगाहट थी। हाँ, उसका चेहरा कुछ लटक आया था और उस पर पीलापन भी छाया हुआ था।
उसने दूर ही से मुझे पुकारा, ‘यह रही तुम्हारी अँगूठी। मँगनी की अँगूठी। मेरे प्यारे! मुझे फिर मिल गई। और मैंने उसे खुला भी करवा लिया है। अब यह कभी तुम्हारी उँगली में तंग नहीं होगी।’ मैंने पहले तो उस निराश पीली स्त्री को देखा और फिर अँगूठी पर नजर डाली.....
‘अफसोस!’ मैंने उसके सामने झुकते हुए कहा, ‘यह अँगूठी सचमुच बड़ी अभागिन है, क्योंकि अब यह इतनी खुल गई है कि मेरी उंगली में अटक ही नहीं सकती।’
-0- |