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लघुकथाएँ - देशान्तर - ख़लील ज़िब्रान
नशा- ख़लील ज़िब्रान ( अनुवाद: सुकेश साहनी)
उस धनी आदमी को अपने पास जमा शराब के भण्डार पर बहुत नाज़ था। उसके पास बहुत पुरानी शराब से भरा एक जग था, जिसे उसने किसी खास मौके के लिए सम्भाल कर रखा हुआ था।
राज्य का गर्वनर उसके यहाँ आया तो उसने सोचा, एक मामूली गवर्नर के लिए इस जग को नहीं खोलना चाहिए।
बिशप का आना हुआ तो उसने मन ही मन कहा, नहीं, मैं जग नहीं खोलूँगा। भला वह इसकी कीमत क्या जाने, उसकी नाक तो इसकी सुगन्ध को भी नहीं महसूस कर पाएगी।
राजा ने आकर उसके यहाँ भोजन किया तो उसने सोचा यह कीमती शराब एक राजा के लिए नहीं है।
यहाँ तक कि अपने भतीजे की शादी पर भी उसने खुद को समझाया–इन मेहमानों के लिए जग खोलना बेकार है।
वर्ष बीतते गए और एक दिन वह मर गया। उस बूढ़े आदमी को भी दूसरे लोगों की तरह दफना दिया गया।
जिस दिन उसे दफनाया गया, पुरानी शराब से भरा जग भी दूसरी शराब के साथ बाहर लाया गया। अड़ोस–पड़ोस के किसानों ने उस शराब का आनन्द लिया, पर किसी को भी शराब की उम्र की जानकारी नहीं थी। उनके लिए तो प्यालों में ढाली जा रही शराब महज शराब थी।
 
 
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